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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दितो मृतवाहा आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्रा॒तर॒ग्निः पु॑रुप्रि॒यो वि॒शः स्त॑वे॒ताति॑थिः। विश्वा॑नि॒ यो अम॑र्त्यो ह॒व्या मर्ते॑षु॒ रण्य॑ति ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒तः । अ॒ग्निः । पु॒रु॒ऽप्रि॒यः । वि॒शः । स्त॒वे॒त॒ । अति॑थिः । विश्वा॑नि । यः । अम॑र्त्यः । ह॒व्या । मर्ते॑षु । रण्य॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातरग्निः पुरुप्रियो विशः स्तवेतातिथिः। विश्वानि यो अमर्त्यो हव्या मर्तेषु रण्यति ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातः। अग्निः। पुरुऽप्रियः। विशः। स्तवेत। अतिथिः। विश्वानि। यः। अमर्त्यः। हव्या। मर्तेषु। रण्यति ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निवदतिथिविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽग्निरिव पुरुप्रियो मर्त्तेष्वमर्त्यो रण्यति विश्वानि हव्या स्तवेत यः प्रातरारभ्य विश उपदिशेत् सोऽतिथिः पूजनीयो भवति ॥१॥

    पदार्थः

    (प्रातः) (अग्निः) अग्निरिव पवित्रः (पुरुप्रियः) बहुभिः कमितः सेवितो वा (विशः) प्रजाः (स्तवेत) प्रशंसेत् (अतिथिः) पूजनीय आप्तो विद्वान् (विश्वानि) (यः) (अमर्त्यः) स्वभावेन मरणधर्मरहितः (हव्या) दातुमर्हाणि (मर्तेषु) मरणधर्मेषु कार्य्येषु (रण्यति) रमते ॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽतिथिरात्मवित्सत्योपदेशको विद्वान् विद्वत्प्रियः परमात्मेव सर्वहितैषी नित्यं क्रीडते स एव सत्कर्त्तव्योऽस्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले अठारहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के सदृश अतिथि के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (अग्निः) अग्नि के सदृश पवित्र (पुरुप्रियः) बहुतों से कामना किया वा सेवन किया गया (मर्त्तेषु) नाश होनेवाले कार्य्यों में (अमर्त्यः) स्वभाव से मरणधर्म्मरहित (रण्यति) रमता है (विश्वानि) सम्पूर्ण (हव्या) देने योग्यों की (स्तवेत) प्रशंसा करे और जो (प्रातः) प्रातःकाल के आरम्भ से (विशः) प्रजाओं को उपदेश देवे वह (अतिथिः) आदर करने योग्य यथार्थवक्ता विद्वान् सत्कार करने योग्य होता है ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अतिथि आत्मा का जाननेवाला, सत्य का उपदेशक, विद्वान्, विद्वानों का प्रिय, परमात्मा के सदृश सब के हित को चाहनेवाला नित्य क्रीड़ा करता है, वह ही सत्कार करने योग्य है ॥१॥

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    विषय

    प्रातः स्मरणीय प्रभु की उपासना । उत्तम विद्वान् अधिनायक वृद्ध का आदर सत्कार ।

    भावार्थ

    भा०—( यः ) जो ( मर्त्तेषु ) मरणधर्मा, सामान्य मनुष्यों में, ( अमर्त्यः ) अमर, चिरंजीव असाधारण भोक्ता होकर योग्य पदार्थों में आत्मा के तुल्य ( विश्वानि ) सब प्रकार के ( हव्या ) ऐश्वर्य (रण्यति ) चाहता और भोगता है, वह ( अतिथिः ) शत्रु कुलों पर आक्रमण करने हारा ( पुरुः-प्रियः ) बहुतों का प्रिय होकर ( विशः ) सब को बसाने वाला, राजा (प्रातः स्तवेत) सब से प्रथम अपनी प्रजाओं को उत्तम आज्ञा करे और वह भी ( प्रातः स्तवेत ) प्रातः स्मरण करने योग्य है । ( २ ) परमेश्वर सर्वप्रिय, अतिथिवत् आदरणीय है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्वितो मृक्तवाहा आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः — १, ४ विराडनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ५ भुरिग-बृहती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु पूजन से दिन का प्रारम्भ

    पदार्थ

    [१] हे (विशः) = प्रजाओ ! (प्रातः) = दिन के प्रारम्भ में यह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (स्तवेत) = तुम्हारे से स्तुति किया जाये। जो प्रभु (पुरुप्रियः) = उत्तमोत्तम वरणीय [हव्य] पदार्थों के द्वारा हमें प्रीणित करनेवाले हैं। (अतिथि:) = [अत सातत्यगमने] हमें सुन्दर प्रेरणाओं को देने के लिये निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं। [२] ये प्रभु वे हैं (यः) = जो कि (अमर्त्यः) = अमरणधर्मा होते हुए (मर्तेषु) = मनुष्यों में (विश्वानि) = सब (हव्या) = हव्य पदार्थों को (रण्यति) = [कामयते] चाहते हैं। हमें प्रभु सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, यदि हम अपने को उनका पात्र बनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सर्वप्रथम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारे अतिथि हैं, हमारे लिये सब हव्य - पदार्थों को प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नीप्रमाणे अतिथींच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो अतिथी आत्म्याला जाणणारा, सत्योपदेशक विद्वान व विद्वानांना प्रिय, परमेश्वराप्रमाणे सर्वांचे हित इच्छिणारा, सदैव प्रसन्नतेने विहार करणारा असतो तोच सत्कार करण्यायोग्य असतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let Agni, beloved of all people, freely roaming around as a visitor, be welcomed and honoured early morning, the immortal spirit and power which pervades, energises and beatifies all acts and things worth doing, giving and receiving among the mortals.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! guest is venerable who is purifier like the fire, is liked and loved and served by many. Being immortal by the nature of his soul, he takes delight in good (ever though perishable) deeds; showers his praises over all things that are worth giving, and delivers sermons to the people from morning (till night).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! only the absolutely truthful guest is to be most revered. He knows well the mystery of the soul and God. Preacher of truth, highly learned, beloved of the enlightened persons and well-wisher of all like God, he is ever cheerful.

    Foot Notes

    (अग्नि) अग्निरिव पवित्रः । = Purifier like the fire. (मर्तेषु) मरणधर्मेषु कार्येषु । = In acts which are perishable.

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