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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रयस्वन्तः आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यम॑ग्ने वाजसातम॒ त्वं चि॒न्मन्य॑से र॒यिम्। तं नो॑ गी॒र्भिः श्र॒वाय्यं॑ देव॒त्रा प॑नया॒ युज॑म् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अ॒ग्ने॒ । वा॒ज॒ऽसा॒त॒म॒ । त्वम् । चि॒त् । मन्य॑से । र॒यिम् । तम् । नः॒ । गीः॒ऽभिः । श्र॒वाय्य॑म् । दे॒व॒ऽत्रा । प॒न॒य॒ । युज॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमग्ने वाजसातम त्वं चिन्मन्यसे रयिम्। तं नो गीर्भिः श्रवाय्यं देवत्रा पनया युजम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। अग्ने। वाजऽसातम। त्वम्। चित्। मन्यसे। रयिम्। तम्। नः। गीःऽभिः। श्रवाय्यम्। देवऽत्रा। पनय। युजम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निपदवाच्यविद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वाजसातमाग्ने ! त्वं गीर्भिर्यं देवत्रा श्रवाय्यं युजं रयिं स्वार्थं मन्यसे तं चिन्नः पनया ॥१॥

    पदार्थः

    (यम्) (अग्ने) विद्वन् (वाजसातम) अतिशयेन वाजानां विज्ञानादिपदार्थानां विभाजक (त्वम्) (चित्) अपि (मन्यसे) (रयिम्) श्रियम् (तम्) (नः) अस्मान् (गीर्भिः) सूपदिष्टाभिर्वाग्भिः (श्रवाय्यम्) श्रोतुं योग्यम् (देवत्रा) देवेषु (पनया) व्यवहारेण प्रापय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (युजम्) यो युनक्ति तम् ॥१॥

    भावार्थः

    अयमेव धर्म्यो व्यवहारो यादृशीच्छा स्वार्था भवति तादृशीमेव परार्थां कुर्याद्यथा प्राणिनः स्वार्थं दुःखं नेच्छन्ति सुखं च प्रार्थयन्ते तथैवान्यार्थमपि तैर्वर्त्तितव्यम् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब चार ऋचावाले बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निपदवाच्य विद्वान् के गुणों का वर्णन करते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वाजसातम) अतिशय विज्ञान आदि पदार्थों के विभाजक (अग्ने) विद्वन् ! (त्वम्) आप (गीर्भिः) उत्तम प्रकार उपदेशरूप हुई वाणियों से (यम्) जिस (देवत्रा) विद्वानों में (श्रवाय्यम्) सुनने योग्य (युजम्) योग करनेवाले (रयिम्) धन को अपने लिये (मन्यसे) स्वीकार करते हो (तम्) उसको (चित्) भी (नः) हम लोगों को (पनया) व्यवहार से प्राप्त कराइये ॥१॥

    भावार्थ

    यही धर्मयुक्त व्यवहार है कि जैसे इच्छा अपने लिये होती है, वैसे ही दूसरे के लिये करे और जैसे प्राणी अपने लिये दुःख की नहीं इच्छा करते हैं और सुख की प्रार्थना करते हैं, वैसे ही अन्य के लिये भी उनको वर्त्ताव करना चाहिये ॥१॥

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    विषय

    विद्वान् का उपदेश करने का कर्त्तव्य । उसका आदर सत्कार करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) विद्वन् ! प्रमुख नायक ! हे ( वाजसातम ) ज्ञान और ऐश्वर्य को देने में सर्वश्रेष्ठ ! ( त्वं ) तू ( यम् ) जिस ( र-यिम् ) धन सम्पदा को ( मन्यसे चित् ) स्वयं उत्तम जानता है ( तं ) उस ( श्रवाय्यं ) श्रवण करने योग्य कीर्त्तिदायक (युजम् ) हित में लगाने वाले, उत्तम फलप्रद, सहायकारी ऐश्वर्य और ज्ञान का (नः) हमें (देवत्रा ) विद्वानों के बीच, वाह्य कामनायुक्त शिष्य जन को ( गीर्भिः पनय ) उत्तम वाणियों से उपदेश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयस्वन्त अत्रय ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: - १, ३ विराड्नुष्टुप । २ निचृदनुष्टुप । ४ पंक्तिः ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    यशस्वी दिव्य ऐश्वर्य

    पदार्थ

    [१] हे (वाजसातम) = अधिक से अधिक शक्ति को देनेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (यं चित्) = जिस भी (रयिम्) = ऐश्वर्य को (मन्यसे) = मान्यता देते हैं, उत्कृष्ट समझते हैं, (तम्) = उस ऐश्वर्य को (नः) = हमारे लिये (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के साथ (पनय) = [प्रापय] प्राप्त कराइये । हम आपकी कृपा से ज्ञान व ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले हों। [२] हमें आप उस ऐश्वर्य को प्राप्त कराइये, जो कि (श्रवाप्य) = अत्यन्त यशस्वी है, हमारे यश का कारण बनता है तथा (देवत्रा आ युजम्) = देवों में सम्पर्कवाला है, हमें दिव्य गुणों की ओर ले चलता है। वह ऐश्वर्य जो हमें विलास में फँसानेवाला नहीं तथा जो हमारे अपयश का कारण नहीं बनता। उत्तम साधनों से कमाया जाने के कारण व दानादि में विनियुक्त होने के कारण वह 'श्रवाय्य' हो तथा विलास में व्ययित न होता हुआ वह 'देव युज्' हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे प्रभो ! हमें वह धन दीजिये जो कि यशस्वी व दिव्यगुणों का प्रापक हो ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नीचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जशी स्वतःसाठी इच्छा केली जाते. तशी दुसऱ्याबद्दल बाळगावी. जसे प्राणी स्वतःसाठी दुःख इच्छित नाहीत सुखच इच्छितात तसेच इतरांबरोबरही वर्तन करावे. हाच धर्मव्यवहार आहे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, scholar of eminence, expert in matters of food, energy, success and victory in the affairs of life, whatever you think is the real wealth worthy to be heard of, acknowledged, and, accepted for application as friendly and companionable power, speak to us among the generous and illuminative divines in words of truth in faith with admiration.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the enlightened persons, are mentioned with the word 'Agni'.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O distributor of knowledge and other things among others! O highly learned person! whichever wealth you consider good for yourself, which (wealth) is to be admired by the truthful learned persons, which (wealth) is useful to hold (being noble), convey or disseminate that to others also (for their use) through your dealings and good speeches.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Whatever good desire one has for his own self, he should have the same kind of desire for others. That only is the righteous dealing. As living beings do not to suffer from miseries in their own case and pray and attempt for happiness, they should do the same for others also.

    Foot Notes

    (वाजसातम) अतिष्येनम्वजानां। विग्यानदिपदार्थानां विभाजक तत्संबुद्धौ । वाजः वन - गतौ गतेस्त्रिष्वपष्वत्र ज्ञानार्थं ग्रहणम् । = Distributor of true knowledge and other things among others. (पनया ) व्यवहारेण प्रापय मनसंहितायामिति दीर्घः । पन-व्यवहारे स्तुतौ च । भव व्यवहारासंग्रहणम् = Convey or disseminate it to achieve by your dealings.

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