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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सस आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    म॒नु॒ष्वत्त्वा॒ नि धी॑महि मनु॒ष्वत्समि॑धीमहि। अग्ने॑ मनु॒ष्वद॑ङ्गिरो दे॒वान्दे॑वय॒ते य॑ज ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒नु॒ष्वत् । त्वा॒ । नि । धी॒म॒हि॒ । म॒नु॒ष्वत् । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । अग्ने॑ । म॒नु॒ष्वत् । अ॒ङ्गि॒रः॒ । दे॒वान् । दे॒व॒ऽय॒ते । य॒ज॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनुष्वत्त्वा नि धीमहि मनुष्वत्समिधीमहि। अग्ने मनुष्वदङ्गिरो देवान्देवयते यज ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनुष्वत्। त्वा। नि। धीमहि। मनुष्वत्। सम्। इधीमहि। अग्ने। मनुष्वत्। अङ्गिरः। देवान्। देवऽयते। यज ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अङ्गिरोऽग्ने! यथा वयं कार्यसिद्धयेऽग्निं मनुष्यवन्नि धीमहि देवयते देवान् मनुष्वत् समिधीमहि तथा त्वा सत्यक्रियायां निधीमहि त्वं मनुष्वद्यज ॥१॥

    पदार्थः

    (मनुष्वत्) मनुष्येण तुल्यम् (त्वा) त्वाम् (नि) (धीमहि) निधिमन्तो भवेम (मनुष्वत्) (सम्) (इधीमहि) प्रकाशितान् कुर्याम (अग्ने) विद्वन् (मनुष्वत्) (अङ्गिरः) प्राणा इव प्रिय (देवान्) दिव्यविद्वद्विपश्चितः (देवयते) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानाय (यज) सङ्गच्छस्व ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये नरा मननशीला भूत्वा दिव्यान् गुणान् कामयन्ते ते अग्न्यादिपदार्थविद्यां विजानन्तु ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब चार ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अङ्गिरः) प्राणों के सदृश प्रिय (अग्ने) विद्वन् ! जैसे हम लोग कार्य्य की सिद्धि के लिये अग्नि को (मनुष्वत्) मनुष्य को जैसे वैसे (नि, धीमहि) निरन्तर धारण होवें और (देवयते) श्रेष्ठ गुणों की कामना करते हुए के लिये (देवान्) श्रेष्ठ विद्यायुक्त विद्वानों को (मनुष्वत्) मनुष्यों के समान (सम्, इधीमहि) प्रकाशित करें वैसे (त्वा) आपको उत्तम कर्म्म में स्थित करें और आप (मनुष्वत्) मनुष्य के तुल्य (यज) मिलिये अर्थात् कार्य्यों को प्राप्त हूजिये ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य विचारशील होकर श्रेष्ठ गुणों की कामना करते हैं, वे अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को जानें ॥१॥

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    विषय

    मनुष्यवत् अग्नि, विद्युत् आदि का स्थापन । विद्वान् सन्देशहर अग्नि । उसका आदर सत्कार ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) अग्नि ! विद्युत् ! (त्वा ) तुझ को हम ( मनु-वत् ) मननशील पुरुष के तुल्य ( नि धीमहि ) अन्नादि में स्थापित करें, और (मनुष्वत् ) मनुष्य के तुल्य ही जान कर ( सम् इधीमहि ) अच्छी प्रकार प्रदीप्त करे । हे ( अंगिरः ) प्राणवत् प्रिय और प्रीतियुक्त अंशों वाले अग्ने ! तू भी ( मनुष्वत् ) मननशील पुरुष के तुल्य ही ( देव-यते) प्रकाश आदि पदार्थों को चाहने वाले को ( देवान् ) किरण, प्रकाश आदि दिव्य पदार्थ (यज ) दे, प्राप्त करा । (२) हे अग्रणी नायक, (मनु-ध्वत्) मनुष्यों के बल से युक्त बल को उत्तम पद पर स्थापित करें, तुझे अधिक बलवान् बनावें । तू ( देवयते ) देवों के प्रिय प्रजा जन के हितार्थ ( देवान् ) विजयेच्छुक वीरों और व्यवहार कुशल पुरुषों को (यज) संगत कर, राष्ट्र रख और उनका सत्संग कर, उनका दान मान सत्कार कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सस आत्रेय ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ अनुष्टुप । २ भुरिगुष्णिक् । ३ स्वराडुष्णिक् । ४ निचृद्बृहती ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    निधीमहि-समिधीमहि

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (मनुष्यत्) = मनु की तरह एक विचारशील पुरुष की तरह (त्वा) = आपको (निधीमहि) = अपने हृदयों में स्थापित करते हैं। (मनुष्वत्) = एक विचारशील पुरुष की तरह (समिधीमहि) = अपने हृदयों में आपको समिद्ध करते हैं। ध्यान द्वारा आपको हृदयों में स्थापित करने के लिये यत्न करते हैं तो स्वाध्याय द्वारा आपकी ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करके आपके प्रकाश को देखने का प्रयत्न करते हैं । [२] हे (अंगिरः) = हमारे अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले प्रभो ! (मनुष्वत्) = एक विचारशील पुरुष की तरह (देवयते) = दिव्य गुणों की कामनावाले मेरे लिये (देवान् यज) = दिव्य वृत्ति के पुरुषों को आप मेरे साथ संगत करिये ताकि उनके संग से मेरे अन्दर भी दिव्य गुणों का वर्धन हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ध्यान द्वारा प्रभु को हृदयों में स्थापित करें, स्वाध्याय द्वारा उनके प्रकाश को देखें । प्रभु कृपा से दिव्य पुरुषों के संग से देववृत्तिवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे मननशील असून दिव्य गुणांची इच्छा बाळगतात. ती अग्नी इत्यादी पदार्थविद्या जाणतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light of life, like a living human presence we meditate on you. Like a living human power, we enkindle, serve and develop you. O breath of life, Angira, like a human power and sagely presence, inspire the brilliant and generous sages with the light of life for the sake of those who love the divinities.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons (Agni) is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you are dear to us like Prana. We place Agni (fire/energy) for the accomplishment of various works. We make a man glorious (lit. enkindle) divine and make for him (in his favor) because he desires to enlightened persons to cultivate divine virtues, like a thoughtful person. In the same manner, we establish you in the performance of the truthful act and thus be united like good men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The thoughtful persons desire to cultivate divine virtues. They should know the science of Agni (energy/and electricity) and other objects.

    Foot Notes

    (अङ्गिर:) प्राण इव प्रियः । = Dear like Prana. (यज) सङ्गच्छस्व । = Be united or associated. (देवयते) देवान् दिव्यगुणान्कामय-मानाय । = Desiring divine virtues.

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