ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वम॑ग्ने॒ वरु॑णो॒ जाय॑से॒ यत्त्वं मि॒त्रो भ॑वसि॒ यत्समि॑द्धः। त्वे विश्वे॑ सहसस्पुत्र दे॒वास्त्वमिन्द्रो॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । वरु॑णः । जाय॑से । यत् । त्वम् । मि॒त्रः । भ॒व॒सि॒ । यत् । सम्ऽइ॑द्धः । त्वे । विश्वे॑ । स॒ह॒सः॒ । पु॒त्र॒ । दे॒वाः । त्वम् । इन्द्रः॑ । दा॒शुषे॑ । मर्त्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने वरुणो जायसे यत्त्वं मित्रो भवसि यत्समिद्धः। त्वे विश्वे सहसस्पुत्र देवास्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। वरुणः। जायसे। यत्। त्वम्। मित्रः। भवसि। यत्। सम्ऽइद्धः। त्वे इति। विश्वे। सहसः। पुत्र। देवाः। त्वम्। इन्द्रः। दाशुषे। मर्त्याय ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजकर्तव्यकर्म्माह ॥
अन्वयः
हे सहसस्पुत्राग्ने ! यत्त्वं मित्रो यत्समिद्धो भवसि यस्त्वं वरुणो जायसे यस्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय धनं ददासि तस्मिँस्त्वे विश्वे देवाः प्रसन्ना जायन्ते ॥१॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) कृतविद्याभ्यास (वरुणः) दुष्टानां बन्धकृच्छ्रेष्ठः (जायसे) (यत्) यस्य (त्वम्) (मित्रः) सखा (भवसि) (यत्) येन (समिद्धः) प्रदीप्तः (त्वे) त्वयि (विश्वे) सर्वे (सहसः) (पुत्रः) बलस्य पालक (देवाः) विद्वांसः (त्वम्) (इन्द्रः) ऐश्वर्यदाता (दाशुषे) दातुं योग्याय (मर्त्याय) ॥१॥
भावार्थः
हे राजन् ! यस्य त्वं सखा यस्माद्विरुद्ध उदासीनो वा भवसि स त्वया सह सदैव मित्रतां रक्षेत् त्वमपि ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बारह ऋचावाले तीसरे सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा के कर्त्तव्य को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहसः) बल के (पुत्र) पालन करनेवाले (अग्ने) विद्या का अभ्यास किये हुए विद्वान् ! (यत्) जिसके (त्वम्) आप (मित्रः) सखा और (यत्) जिससे (समिद्धः) प्रकाशयुक्त (भवसि) होते हो और जो (त्वम्) आप (वरुणः) दुष्टों के बन्ध करनेवाले श्रेष्ठ (जायसे) होते हो और जो (त्वम्) आप (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य के दाता (दाशुषे) देने योग्य (मर्त्याय) मनुष्य के लिये धन देते हो उन (त्वे) आप में (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन प्रसन्न होते हैं ॥१॥
भावार्थ
हे राजन् ! जिसके आप मित्र वा जिससे आप विरुद्ध और उदासीन होते हैं, वह आपके साथ सदैव मित्रता रक्खे और आप भी उसके साथ रक्खें ॥१॥
विषय
अग्रणी नायक के ही वरुण, मित्र, इन्द्रादि नाना रूप और उनकी विशेषताएं।
भावार्थ
भा०-हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! राजन् ! ज्ञानवन् गुरो ! हे परमेश्वर ! ( यत् ) क्योंकि तू ( वरुणः ) सर्व-श्रेष्ठ, सब कष्टों का निवारक ( जायसे ) है । और (यत्) जो तू ( समिद्धः ) अति दीप्त, उत्तेजित और उग्र होकर भी ( मित्रः भवसि ) सबका स्नेही और सबको मरने से बचाने वाला ही बना रहता है । इसलिये हे (सहसः पुत्र ) बलवान् पुरुष के पुत्र वा बल की एकमात्र मूर्ति ! तू (विश्वे देवाः ) सब विद्वान् और नाना कामनावान् जन ( त्वे ) तेरे ही पर आश्रित रहते हैं । ( त्वम् ) तू भी ( दाशुषे मर्त्याय ) कर आदि देने वाले वा आत्मसमर्पक मनुष्य के लिये ( इन्द्रः) उसके विघ्नों का नाशक और सूर्य वा मेघ के तुल्य ऐश्वर्य का दाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्पंक्तिः। ११ भुरिक् पंक्ति: । २, ३, ५, ६, १२ निचृत्-त्रिष्टुप् । ४, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् ७, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥
विषय
वरुण मित्र इन्द्र
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (यत्) = जब (जायसे) = हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होते हैं, तो (वरुण:) = सब पापों का निवारण करनेवाले होते हैं । (यत् समिद्धः) = जब हमारे हृदयों में आप समिद्ध [दीप्त] होते हैं तो (त्वम्) = आप (मित्रः) = सब प्रमीतियों से, मृत्यु व रोगों से बचानेवाले (भवसि) = होते हैं। [२] हे (सहसः) = पुत्र शत्रुओं का मर्षण करनेवाली शक्ति के पुञ्ज प्रभो ! (त्वे) = आप में (विश्वे देवाः) = सब देवों का निवास है। आपके प्राप्त होने पर सब देवों की प्राप्ति तो हो ही जाती है। आपका आना ही सब दिव्य गुणों के आने का कारण बनता है। आपका स्मरण करके हम हृदयों को पवित्र व दिव्यवृत्तियों का अधिष्ठान बना पाते हैं । [३] हे प्रभो! आप (दाशुषे मर्त्याय) = इस दाश्वान् मनुष्य के लिये देने की वृत्तिवाले मनुष्य के लिये अथवा अपना अर्पण करनेवाले मनुष्य के लिये (त्वम्) = आप (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं तथा शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हैं। जो भी आपके प्रति अपना अर्पण करता है, उसे आप परमैश्वर्य-सम्पन्न करते हैं और उसके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु दाश्वान् पुरुष के लिये मित्र हैं, वरुण हैं, इन्द्र हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजा व प्रजेला चोरी व अन्य अपराध इत्यादींचे निवारण सांगितल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे राजा! ज्याच्याबरोबर तू मैत्री ठेवतोस किंवा जो तुझा शत्रू आहे त्याच्याशी तू असा वाग, की त्याने तुझ्याबरोबर सदैव मैत्री करावी व तूही त्याच्याबरोबर मैत्री ठेवावीस. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, flaming fire, light of knowledge and power of the world, when you are born, you shine like Varuna, light of the dawn and spirit of justice and discrimination in mankind. When you are in full blaze of your glory, you are like Mitra, bright sun, friend of all. In you reside and abide all the powers of nature’s divinity, O child of omnipotence, and you are Indra, giver of honour and excellence for the man of charity and generosity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned ruler ! O protector of strength all enlightened persons are pleased with you when being a friend you are illumined or enlightened; when you take the form of Varuna-the best acceptable and the fastener of the wicked, and when being Indra you become the giver of wealth. You give the wealth thus to him, who deserves your help and encouragement.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O ruler! let that man ever maintain friendship with you, even if you are his friend, foe or indifferent. You should also be friendly to all.
Foot Notes
(वरुणः) दुष्टानां बन्धकृच्छेष्ठः । अनृते खलु वै क्रियमाणे वरुणो गृह्णाति (Taittiriya 1, 7, 2, 6) वरुणो वा एते गृह्वाति यः पाम्मना गृहीतो भवति (Stph 12, 7, 2, 17 ) = The best binder (fastener) of the wickeds. (इन्द्र) ऐश्वर्यदाता । इदि परमंश्यर्ये (भ्वा० ) । = Giver of health. (दाशुषे ) दातुं योग्याय । दाशु दाने (भ्वा) = Deserving donation or help.
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