ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
यस्ते॒ साधि॒ष्ठोऽव॑स॒ इन्द्र॒ क्रतु॒ष्टमा भ॑र। अ॒स्मभ्यं॑ चर्षणी॒सहं॒ सस्निं॒ वाजे॑षु दु॒ष्टर॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । ते॒ । साधि॑ष्ठः । अव॑से । इन्द्र॑ । क्रतुः॑ । टम् । आ । भ॒र॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । सस्नि॑म् । वाजे॑षु । दु॒स्तर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते साधिष्ठोऽवस इन्द्र क्रतुष्टमा भर। अस्मभ्यं चर्षणीसहं सस्निं वाजेषु दुष्टरम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। ते। साधिष्ठः। अवसे। इन्द्र। क्रतुः। तम्। आ। भर। अस्मभ्यम्। चर्षणिऽसहम्। सस्निम्। वाजेषु। दुस्तरम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रगुणानाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यस्तेऽवसे साधिष्ठः क्रतुरस्ति तं चर्षणीसहं सस्निं वाजेषु दुष्टरमस्मभ्यमा भर ॥१॥
पदार्थः
(यः) (ते) तव (साधिष्ठः) अतिशयेन साधुः (अवसे) रक्षणाद्याय (इन्द्र) सूर्य्यवन्न्यायप्रकाशित राजन् (क्रतुः) प्रज्ञा (तम्) (आ) (भर) धर (अस्मभ्यम्) (चर्षणीसहम्) मनुष्याणां सोढारम् (सस्निम्) ब्रह्मचर्य्यव्रतविद्याग्रहणाभ्यां पवित्रम् (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (दुष्टरम्) दुःखेनोल्लङ्घयितुं योग्यम् ॥१॥
भावार्थः
स एव राजोत्तमः स्याद्यो दीर्घेण ब्रह्मचर्य्येणाप्तेभ्यो विद्याविनयौ गृहीत्वा न्यायेन राज्यं शिष्यात् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब आठ ऋचावाले पैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों का वर्णन करते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश न्याय से प्रकाशित राजन् (यः) जो (ते) आपकी (अवसे) रक्षा आदि के लिये (साधिष्ठः) अत्यन्त श्रेष्ठ (क्रतुः) बुद्धि है (तम्) उस (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को सहनेवाले (सस्निम्) ब्रह्मचर्य्यव्रत और विद्या के ग्रहण से पवित्र (वाजेषु) और संग्रामों में (दुष्टरम्) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य को (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (आ, भर) सब प्रकार धारण करिये ॥१॥
भावार्थ
वही राजा उत्तम होवे जो दीर्घ ब्रह्मचर्य्य से यथार्थवक्ता जनों से विद्या और विनय को ग्रहण करके न्याय से राज्य की शिक्षा देवे ॥१॥
विषय
राजा वा आचार्य प्रजार्थ ही शक्तियों, ज्ञानों और सभादि को धारण करे और उनको भी सम्पन्न करे । उसके अन्यान्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! अज्ञाननाशक राजन् ! गुरो ! ( यः ) जो ( ते ) तेरा ( साधिष्ठः ) अति उत्तम, कार्य साधक, (क्रतुः ) कर्मकौशल और ज्ञान है ( तम् ) उस ( चर्षणीसह ) सब मनुष्यों को जीतने वाले ( सस्निं ) अतिपवित्र और अन्यों को पवित्र, पापरहित करने वाले ( वाजेषु ) संग्रामादि में ( दुस्तरम् ) अपार सामर्थ्य को (अस्मभ्यम् आ भर) हमें प्राप्त करावे और हमारे लिये उसको धारण कर और प्रयोग कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रभूवसुराङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१ निचृदनुष्टुप् । ३ भुरिगनुष्टुप् । ७ अनुष्टुप् । २ भुरिगुष्णिक् । ४, ५, ६ स्वराडुष्णिक् । ८ भुरिग्बृहती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
साधिष्ठः क्रतुः
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यः) = जो (ते) = आपका (साधिष्ठः) = हमारे सब कर्तव्यकर्मों को उत्तमता से सिद्ध करनेवाला (क्रतुः) = प्रज्ञान व बल है, (तम्) = उसे (अवसे) = हमारे रक्षण के लिए (आभर) = हमारे में सर्वथा भर दीजिए। इस प्रज्ञान व बल के द्वारा हम अपने कर्त्तव्यों को सम्यक् पूर्ण करते हुए अपना रक्षण कर सकें। २. (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए आप उस (क्रतु) = को भरनेवाले होइए, जो कि (चर्षणीसहम्) = [चर्षणी=a disloyal woman बन्धकी] बन्धकी स्त्रियों का पराभव करनेवाला हो, अर्थात् जिस प्रज्ञान व बल के द्वारा हम इन बन्धकी स्त्रियों के कटाक्षों का शिकार न हो जाएँ। (सस्निम्) = जो हमारे जीवन को बड़ा शुद्ध बनाए और जो (वाजेषु दुष्टरम्) = संग्रामों में शत्रुओं से अभिभव के योग्य न हो।
भावार्थ
भावार्थ– हे प्रभो! आप हमें वह प्रज्ञान व बल प्राप्त कराइए। जिससे हम स्त्री व्यसन में न फंसकर जीवन को शुद्ध बनाएँ और काम-क्रोध-लोभ से पराजित न हों।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, राजा, प्रजा व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जो दीर्घ ब्रह्मचर्य पाळून आप्त विद्वानाकडून विनयाने विद्या ग्रहण करून न्यायपूर्वक राज्याचे शिक्षण देतो तोच राजा उत्तम असतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord refulgent, ruler of the world, for our protection and promotion, bear and bring for us that straight and most effective vision and action of yours which is pure and most bountiful, tolerant and yet challenging for people and informidable in our battles of life, the discipline inviolable.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king illumined with justice like the sun, uphold for us that your intellect which is the guarantee of protection, which is capable to subdue men, is pure because of the observance of Brahmacharya (continence) and acquisition of knowledge. Such a king is difficult to be encountered in the battles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He alone is the best among the kings, who has observed Brahmacharya for a long period and has received knowledge and humility from the absolutely truthful enlightened men. He rules over his State with justice.
Foot Notes
(इन्द्र) सूर्य्यवन्न्यायप्रकाशित राजन् । अथ यः स इन्द्रोऽसौ स आदित्य: ( Stph 8,5,3,2) एष एवेन्द्रः य एष (सूर्य) तपति । ( Stph 1,6,4,18) । =0 king illumined with justice like the sun. (सस्निम् ) ब्रह्मचर्य्यव्रतविद्याग्रहणाभ्यां पवित्रम् । (सास्निम) ष्णा -शोचे (अदा० ) । = Pure or spotless because of the observance of the Brahmacharya and acquisition of knowledge.
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