ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
स आ ग॑म॒दिन्द्रो॒ यो वसू॑नां॒ चिके॑त॒द्दातुं॒ दाम॑नो रयी॒णाम्। ध॒न्व॒च॒रो न वंस॑गस्तृषा॒णश्च॑कमा॒नः पि॑बतु दु॒ग्धमं॒शुम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठसः । आ । ग॒म॒त् । इन्द्रः॑ । यः । वसू॑नाम् । चिके॑तत् । दातु॑म् । दाम॑नः । र॒यी॒णाम् । ध॒न्व॒ऽच॒रः । न । वंस॑ऽगः । तृ॒षा॒णः । च॒क॒मा॒नः । पि॒ब॒तु॒ । दु॒ग्धम् । अं॒शुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स आ गमदिन्द्रो यो वसूनां चिकेतद्दातुं दामनो रयीणाम्। धन्वचरो न वंसगस्तृषाणश्चकमानः पिबतु दुग्धमंशुम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठसः। आ। गमत्। इन्द्रः। यः। वसूनाम्। चिकेतत्। दातुम्। दामनः। रयीणाम्। धन्वऽचरः। न। वंसगः। तृषाणः। चकमानः। पिबतु। दुग्धम्। अंशुम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रपदवाच्यराजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! य इन्द्रो वसूनां दातुं चिकेतद्रयीणां दामनश्चिकेतत्स तृषाणो धन्वचरो न वंसगश्चकमानोऽस्माना गमदंशुं दुग्धं पिबतु ॥१॥
पदार्थः
(सः) (आ) समन्तात् (गमत्) गच्छेत् (इन्द्रः) दाता (यः) (वसूनाम्) द्रव्याणाम् (चिकेतत्) जानाति (दातुम्) (दामनः) दात्रीः (रयीणाम्) (धन्वचरः) यो धन्वन्यन्तरिक्षे चरति (न) इव (वंसगः) यो वंसान् सत्याऽसत्यविभाजकान् गच्छति (तृषाणः) तृषातुर इव (चकमानः) कामयमानः (पिबतु) (दुग्धम्) (अंशुम्) प्राणप्रदम् ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यो धनप्रदो विवेचकः सत्यं कामयमान इष्टमर्य्यादो जनो भवेत् स एव राजा भावनीयः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब छः ऋचावाले छत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (इन्द्रः) दाता (वसूनाम्) द्रव्यों के (दातुम्) देने को (चिकेतत्) जानता और (रयीणाम्) धनों की (दामनः) देनेवालियों को जानता है (सः) वह (तृषाणः) पिपासा से व्याकुल के सदृश और (धन्वचरः) अन्तरिक्ष में चलनेवाले के (न) सदृश (वंसगः) सत्य और असत्य के विभाग करनेवालों को प्राप्त होनेवाला और (चकमानः) कामना करता हुआ हम लोगों को (आ) सब प्रकार से (गमत्) प्राप्त होवे और (अंशुम्) प्राणों के देनेवाले (दुग्धम्) दुग्ध का (पिबतु) पान करे ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो धन देने, विचार करने, सत्य की कामना करने और मर्य्यादा को चाहनेवाला होवे, उसी को राजा मानें ॥१॥
विषय
समृद्धिकाम राजा की करसंग्रह की नीति ।
भावार्थ
भा० – (यः) जो पुरुष ( वसूनां ) राष्ट्र में बसे प्रजा जनों, में ( रयीणां दामनः ) ऐश्वर्यों के देने वाली प्रजाओं को (चिकेतत् ) जाने और जो ( वसूनां दातुं चिकेतत् ) ऐश्वर्यों को स्वयं देना भी जानता है ( सः ) वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा ( आ गमत् ) आवे, हमें प्राप्त हो । ( धन्वचरः तृषाणः वंसगः चकमानः यथा जलं पिबति ) जिस प्रकार मरुभूमि में विचरने वाला पियासा बैल जल चाहता हुआ, जलपान करता है उसी प्रकार राजा भी ( धन्व-चरः ) धनुष के बल पर विचरण करता हुआ ( वंस-गः ) सत्यासत्य विवेकी पुरुषों के बीच स्थित एवं उत्तम आचारवान् ( तृषाणः ) पिपासितवत् ( चकमानः ) अर्थं की कामना करता हुआ (दुग्धम् ) प्रजा से प्राप्त (अंशुम् ) अपने भाग को ( पिबतु ) गौ के वत्स के समान ही स्वल्प मात्रा में उपभोग करे और पूर्णसमृद्ध व्यापक राष्ट्र का पालन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रभूवसुरांगिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६ त्रिष्टुप । ३ जगती ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दामन: रयीणाम्
पदार्थ
[१] (सः) = वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (आगमत्) = हमें प्राप्त हो । (यः) = जो प्रभु (वसूनां दातुम्) = धनों को देने के लिये (चिकेतत्) = जानता है और वस्तुतः (रयीणां दामन:) = सब ऐश्वर्यों को देनेवाला है। वस्तुतः प्रभु ही लक्ष्मी पति हैं, हम प्रभु के अतिथि बनते हैं, तो लक्ष्मी हमारा आतिथ्य करती ही है। [२] (न) = जैसे एक (धन्वचरः) = मरुस्थल में विचरनेवाला (वंसगः) = वननीय [प्रशंसनीय] गतिवाला, अकर्मण्य न होकर खूब तीव्रगति से चलता हुआ (तृषाण:) = प्यासा अतएव (चकमान:) = पानी की प्रबल कामनावाला होता है, उसी प्रकार यहां इस शरीर में (दुग्धं अंशुम्) = प्रभु से प्रपूरित इस सोम को (पिबतु) = पीनेवाला बने। सोमपान की उसमें प्रबल कामना हो । वैसी ही कामना जैसे कि उस रेगिस्तान में तीव्र गति से चलते हुए प्यासे यात्री को पानी की कामना होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सब ऐश्वर्यों के दाता हैं। इन ऐश्वर्यों का पात्र वह बनता है, जो कि प्रभु से प्रपूरित सोम को पीने की प्रबल कामनावाला होता है।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, विद्वान व शिल्पी यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची यापूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो धन देणारा, विचार करणारा, सत्याची इच्छा करणारा व मर्यादा पाळणारा असेल त्यालाच माणसांनी राजा मानावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Come, Indra, lord of honour and excellence, you know the wealth, beauty and excellence, of the world of existence, you know how to give, you are the giver and treasure hold of the wealth of life, golden orb of the full moon. Like a sojourner of the skies, like a bird or bull, thirsting, loving, discriminating between truth and falsehood, come, drink the nectar of refreshing, rejuvenating, regenerating milk of life, your rightful share.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of 'Indra' a king are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! may Indra (a liberal king ) who knows how to give articles, and knows how to give and whom to give riches, come to us like a thirsty bird flying in the firmament. In fact, he approaches those who are capable to distinguish between truth and untruth, desiring to know the truth and drinks this milk which is giver of new life-as offered by us with love.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should regard him only as a king, who is giver of wealth, discreet, desirous of truth and fond of observing proper limits in everything.
Foot Notes
(धन्वचरः ) यो धन्वन्यन्तरिक्षे चरति धन्वअन्तरिक्षे धन्वन्ति अस्मादापः इति यास्काचार्या: ( NKT 5, 1, 5)। = That which flies in the firmament. (वंसगः ) यो वंसान् सत्याऽसत्य विभाजकान् गच्छति । वन् संभक्तौ (भ्वा० ) । = He who approaches those who are discriminators between truth and falsehood (वंशुम्) प्राणप्रदम् । अंशुः शमष्टमात्रोभवति । अननाय शंभवतीति वा (NKT 2, 2, 5 ) अननाय प्राणधारणाय अन प्राणने (भ्वा० ) । = Giver of new life or vital energy. (चकमानः ) कामयमानः । कमु -कान्तौ कान्तिः कामना (भ्वा० ) । = Desiring or desirous of.
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