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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यदि॑न्द्र चित्र मे॒हनास्ति॒ त्वादा॑तमद्रिवः। राध॒स्तन्नो॑ विदद्वस उभयाह॒स्त्या भ॑र ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । चि॒त्र॒ । मे॒हना॑ । अस्ति॑ । त्वाऽदा॑तम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । राधः॑ । तत् । नः॒ । वि॒द॒द्व॒सो॒ इति॑ विदत्ऽवसो । उ॒भ॒या॒ह॒स्ति । आ । भ॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र चित्र मेहनास्ति त्वादातमद्रिवः। राधस्तन्नो विदद्वस उभयाहस्त्या भर ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। इन्द्र। चित्र। मेहना। अस्ति। त्वाऽदातम्। अद्रिऽवः। राधः। तत्। नः। विदद्वसो इति विदत्ऽवसो। उभयाहस्ति। आ। भर ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे अद्रिवो विदद्वसो चित्रेन्द्र ! यत्त्वादातं राधो मेहनेवास्ति तदुभयाहस्ति न आ भर ॥१॥

    पदार्थः

    (यत्) (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्ययुक्त (चित्र) अद्भुतगुणकर्मस्वभाव (मेहना) वृष्टिः (अस्ति) (त्वादातम्) त्वया शोधितम् (अद्रिवः) सूर्य्य इव विद्याप्रकाशक (राधः) द्रव्यम् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विदद्वसो) लब्धधन (उभयाहस्ति) उभये हस्ता प्रवर्त्तन्ते यस्मिँस्तत् (आ, भर) ॥१॥

    भावार्थः

    स एव राजा धनाढ्यो वा सुकृती स्याद्यो वृष्टिवदन्येषां कामान् वर्षेत् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले उनचालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्र के गुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अद्रिवः) सूर्य के सदृश विद्या के प्रकाश करनेवाले (विदद्वसो) धन को प्राप्त हुए (चित्र) अद्भुत गुण, कर्म्म और स्वभाववाले (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त ! (यत्) जो (त्वादातम्) आपसे शुद्ध किया (राधः) द्रव्य (मेहना) वृष्टि के सदृश (अस्ति) है (तत्) उस (उभयाहस्ति) उभयाहस्ति अर्थात् दो प्रकार के हाथ प्रवृत्त होते हैं जिसमें ऐसे को (नः) हम लोगों के लिये (आ, भर) सब प्रकार धारण कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    वही राजा धन से युक्त वा कुशली होवे, जो वृष्टि के सदृश अन्यों के मनोरथों को वर्षावे ॥१॥

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    विषय

    राजा के प्रजा को समृद्ध करने के कर्तव्य । दानशील को उपदेश । सर्वदाता प्रभु । उसकी स्तुति ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( अद्रिवः) सूर्यवत् अभेद्य एवं मेघों के समान उदार पुरुषों और दृढ़ सैनिकों के स्वामिन् ! हे ( चित्र ) पूज्य ! अद्भुत गुण कर्म स्वभाव ! हे ( विदद्-वसो) प्राप्त धन के स्वामिन् ! हे प्राप्त करने और ज्ञान करने वालों को बसाने और उनमें बसने वाले वा उनके धनों और प्राणों के स्वामिन् ! ( मेहना ) जिस प्रकार सूर्य वृष्टि लाता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ( यद् ) जो ( मेहना ) उत्तम दान देने वा वृष्टिवत उदारता से देने योग्य धन वा ज्ञान है वह ( त्वादातम् ) सब तेरे ही द्वारा देने योग्य है । उन सबका माता तू है (नः) हमें (तत्) वह ( राधः ) धनैश्वर्य तू (उभया·हस्ति ) दोनों हाथों से ( आ भर) प्राप्त करा अर्थात् तू उदारतापूर्वक दोनों हाथों से और हम आदरपूर्वक दोनों हाथों से लें । देने लेने दोनों कार्यों में दोनों हाथों का व्यापार हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ विराडनुष्टुप् । २, ३ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडुष्णिक् । ५ बृहती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उभयाहस्त्य

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (चित्र) = चायनीय-पूजनीय अथवा अद्भुत (अद्रिवः) = आदरणीय व (वज्रवन्) = प्रभो! (यत्) = जो (त्वादातम्) = आप से देने योग्य धन है वह (मेहना अस्ति) = सब सुखों का सेचन करनेवाला है। [२] हे (विदद्वसो) = सब वसुओं को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे लिये (तद् राधः) = उस धन को (उभयाहस्तिः) = दोनों हाथों से आभार प्राप्त कराइये । सब धनों के स्वामी आप ही हैं, आपकी कृपा से हमें जीवन के लिये आवश्यक वसुओं की प्राप्ति हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से प्राप्त होनेवाला धन महनीय है। प्रभु हमारे लिये इस धन को खूब ही दें।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इन्द्र, राजा, प्रजा व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जो राजा पर्जन्याप्रमाणे इतरांचे मनोरथ पूर्ण करतो तोच राजा धनवान व चांगले कार्य करणारा असतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, 0 lord of light and power, mysterious and sublime, refulgent ruler of the clouds and mountains, omniscient dispenser of munificence, whatever the rain of blessings showered by you, whatever the wealth and honour of success, not yet ours, pray give us with both hands.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Indra (king) are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! O illuminator of knowledge like the sun! O possessor of knowledge and wealth! O man of wonderful merits, actions and temperament! whatever is the wealth in the form of rains (and irrigational facilities. Ed.) purified by you, bestow that upon us with both hands i.e., profusely.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king or wealthy person only is meritorious who fulfils the noble desires of others like the rain.

    Foot Notes

    (मेहना) वृष्टि: (मेहना) मिह-सेचने = वृष्टिः (भ्वा० )। = Rain. (त्वादातम् ) त्वया शोधितम् । (त्वादातम् ) देप्-शोधने (भ्वा० ) । Purified by you. (अद्रिवः) सूर्य इव विद्याप्रकाशक | = Illuminator of knowledge like the sun. (इन्द्र) विद्येश्वर्ययुक्त । इदि परमैश्वर्ये (भ्वा० ) । = Endowed with knowledge and wealth.

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