ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
तं प्र॒त्नथा॑ पू॒र्वथा॑ वि॒श्वथे॒मथा॑ ज्ये॒ष्ठता॑तिं बर्हि॒षदं॑ स्व॒र्विद॑म्। प्र॒ती॒ची॒नं वृ॒जनं॑ दोहसे गि॒राशुं जय॑न्त॒मनु॒ यासु॒ वर्ध॑से ॥१॥
स्वर सहित पद पाठतम् । प्र॒त्नऽथा॑ । पू॒र्वऽथा॑ । वि॒श्वऽथा॑ । इ॒म्ऽअथा॑ । ज्ये॒ष्ठऽता॑तिम् । ब॒र्हि॒ऽसद॑म् । स्वः॒ऽविद॑म् । प्र॒ती॒ची॒नम् । वृ॒जन॑म् । दो॒ह॒से॒ । गि॒रा । आ॒शुम् । जय॑न्तम् । अनु॑ । यासु॑ । वर्ध॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम्। प्रतीचीनं वृजनं दोहसे गिराशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठतम्। प्रत्नऽथा। पूर्वऽथा। विश्वऽथा। इमऽथा ज्येष्ठऽतातिम्। बर्हिऽसदम्। स्वःऽविदम्। प्रतीचीनम्। वृजनम्। दोहसे। गिरा। आशुम्। जयन्तम्। अनु। यासु। वर्धसे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यरूपतया राजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यस्त्वं गिरा प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदं प्रतीचीनं वृजनमाशुं जयन्तं दोहसे तं त्वां यास्वनु वर्धसे ताः सेना प्रजाश्च वयं सततं वर्धयेम ॥१॥
पदार्थः
(तम्) (प्रत्नथा) प्रत्नमिव (पूर्वथा) पूर्वमिव (विश्वथा) विश्वमिव (इमथा) इममिव (ज्येष्ठतातिम्) ज्येष्ठमेव (बर्हिषदम्) बर्हिष्युत्तमासनेऽन्तरिक्षे वा सीदन्तम् (स्वर्विदम्) स्वः सुखं विदन्ति येन तम् (प्रतीचीनम्) अस्मान् प्रत्यभिमुखं प्राप्नुवन्तम् (वृजनम्) बलम् (दोहसे) पिपरसि (गिरा) वाण्या (आशुम्) शीघ्रकारिणं सङ्ग्रामम् (जयन्तम्) विजयमानम् (अनु) (यासु) (वर्धसे) ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! ये सनातनरीत्या पूर्वोत्तमराजवत्पितृवद् राष्ट्रं सम्पाल्य पूर्णबलां सेनां कृत्वा सद्योविजयमानाः प्रजाः सुखानुकूला वर्त्तयन्तु तानेवोत्तमाऽधिकारे नियोजयत यतो राजप्रजानां सततं सुखं वर्धेत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पन्द्रह ऋचावाले चवालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में सूर्यरूपता से राजगुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो आप (गिरा) वाणी से (प्रत्नथा) पुराने के सदृश (पूर्वथा) पूर्व के सदृश (विश्वथा) सम्पूर्ण संसार के सदृश (इमथा) इसके सदृश (ज्येष्ठतातिम्) जेठे ही को (बर्हिषदम्) उत्तम आसन वा अन्तरिक्ष में स्थित होनेवाले (स्वर्विदम्) सुख को जानते जिससे उस (प्रतीचीनम्) हम लोगों के सम्मुख प्राप्त होते हुए (वृजनम्) बल को तथा (आशुम्) शीघ्रकारी संग्राम को (जयन्तम्) जीतते हुए को (दोहसे) पूर्ण करते हो (तम्) उन आपको और (यासु) जिनमें (अनु, वर्धसे) वृद्धि को प्राप्त होते हो, उन सेनाओं और उन प्रजाओं की हम लोग निरन्तर वृद्धि करें ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो प्राचीन रीति से प्राचीन उत्तम राजाओं के तुल्य पिता के सदृश राज्य का उत्तम प्रकार पालन करके पूर्ण बलयुक्त सेना को कर शीघ्र विजय को प्राप्त हुई प्रजाओं को सुख के अनुकूल वर्त्तावें, उन्हीं को उत्तम अधिकार में नियुक्त करिये, जिससे राजा और प्रजा का निरन्तर सुख बढ़े ॥१॥
विषय
राजा को राष्ट्र-दोहन का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे राजन् ! ( यासु ) जिन प्रजाओं के बीच रहकर ( अनु वर्धसे ) तू प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होता रहता है, और ( यासु ) जिनके बीच में से तू ( प्रतीचीनम् ) शत्रु के प्रति निर्भयता से जाने वाले, (आशुं ) शीघ्रगामी ( जयन्तम् ) विजय प्राप्त करने वाले, ( वृजनं ) शत्रु के वारक बल, सैन्य को भी ( गिरा ) अपनी वाणी के बल से ( दोहसे ) दोहता है, सार रूप से प्राप्त करता है, ( तम् ) उस ( प्रत्नथा ) अति उत्तम, दृढ़ पुरातन के समान ( पूर्वथा) पूर्ववत् (विश्वथा) सर्वस्व के तुल्य ( ज्येष्ठतातिं ) सर्वश्रेष्ठ ( बर्हिषदम् ) वृद्धिशील राष्ट्र में विद्यमान, ( स्वर्विदम् ) सुख के प्राप्त करने और कराने वाले ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र की तू सदा ( दोहसे वर्धसे ) दोहन किया कर और बढ़ाया कर । इसी प्रकार राष्ट्र का प्रजाजन भी ऐसे वृद्धिकर राजा को बढ़ाया करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु स्तवन व विजय
पदार्थ
[१] (तम्) = उस प्रभु को (प्रत्नथा) = पुराण सनातन पुरुष के रूप में [=पुराण पुरुष की तरह], (पूर्वथा) = पालन व पूरण करनेवाले के रूप में, (विश्वथा) = सर्वत्र प्रविष्ट-सर्वव्यापक के रूप में, (इमथा) = सदा वर्तमान के रूप में [प्रभु के लिये सब वर्तमानकाल ही है, वस्तुतः प्रभु ही 'काल' हैं] (गिरा) = स्तुति के द्वारा (दोहसे) = अपने अन्दर प्रपूरित करता है। उन स्तुतियों के द्वारा (यासु) = जिनमें (अनुवर्धसे) = तू दिन प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। अधिकाधिक स्तुति करता हुआ तू प्रभु को अपने अन्दर प्रपूरित कर रहा है। यह प्रभु को अपने अन्दर भरना ही स्तुति का सच्चा लाभ है, प्रभु जैसा बनना । [२] उस प्रभु को जो (ज्येष्ठतातिम्) = सर्वश्रेष्ठ हैं । (बर्हिषदम्) = वासनाशून्य हृदय में आसीन होते हैं। वही स्थित होकर (स्वर्विदम्) = सम्पूर्ण प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं। (प्रतीचीनं) = हमारी ओर आनेवाले हैं, जितना-जितना हमारा ज्ञान बढ़ता है, उतना उतना हम प्रभु को प्राप्त करते हैं । (वृजनम्) = बल के पुञ्ज हैं। जो प्रभु को प्राप्त करता है, वह प्रभु के बल से (बलवान्) = होता है। (आशुम्) = सर्वत्र व्याप्त होनेवाले व शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले हैं, सदा (जयन्तम्) = विजयशील हैं। उपासक को वह वह विजय इस उपास्य प्रभु से ही प्राप्त होती है । उपासक के शत्रुओं को ये प्रभु ही पराजित करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा प्रभु-स्तवन करें। यही ज्ञान शक्ति व विजय प्राप्ति का मार्ग है।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य, मेघ व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे प्राचीन उत्तम राजांप्रमाणे, पित्याप्रमाणे राज्याचे पालन चांगल्या प्रकारे करून तात्काळ विजय प्राप्त करणाऱ्या बलवान सेनेद्वारे प्रजेच्या सुखासाठी झटतात त्यांनाच उत्तम पदावर नियुक्त करावे. ज्यामुळे राजा व प्रजेचे सुख वाढेल. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, Ruler as of ancient times, as before, as always, as of now, with your holy voice you draw upon the highest, heavenly, blissful force and power present upfront and instantly victorious in the battles of life, and you grow and progress in consequence of that same power and force. O Ruler, let us all honour and augment and serve that power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! as you sustain with good speech a man who behaves like the man of yore, like the predecessors, like this noble persons, and like all enlightened persons, who are the best, who are seated on the best seat (Asana), who are bestowers of happiness, who come in front of us, are mighty and victorious. Let us strengthen those armies by whose help glory as well as your subjects enhance.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should appoint them only on good posts of administration who sustain the State in accordance with the eternal paths and like the old good kings as fathers, who make their armies perfectly strong and conquering all enemies, and make the subjects happy, so that the happiness of the rulers and the subjects may go up constantly.
Foot Notes
(बर्हिषदम् ) बर्हिष्युत्तमासनेऽन्तरिक्षे या सीदन्तम् । बर्हिरिति अन्तरिक्षनाम (NG1, 3) बर्हिरिति इति महन्नाम (NG 3, 3)। = Seated on good seat (Asana) or in the firmament (in an aircraft). Great or good Asana etc. (बजनम् ) बलम् । बृजनम् इति बलनाम (NG 2, 9)। = Might, but here mighty.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal