ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्ने॑ सु॒तस्य॑ पी॒तये॒ विश्वै॒रूमे॑भि॒रा ग॑हि। दे॒वेभि॑र्ह॒व्यदा॑तये ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ । विश्वैः॑ । ऊमे॑भिः । आ । ग॒हि॒ । दे॒वेभिः॑ । ह॒व्यऽदा॑तये ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने सुतस्य पीतये विश्वैरूमेभिरा गहि। देवेभिर्हव्यदातये ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। सुतस्य। पीतये। विश्वैः। ऊमेभिः। आ। गहि। देवेभिः। हव्यऽदातये ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वान् विद्वद्भिस्सह किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने! त्वं विश्वैरूमेभिर्देवेभिः सह सुतस्य पीतये हव्यदातय आ गहि ॥१॥
पदार्थः
(अग्ने) विद्वन् (सुतस्य) निष्पादितस्यौषधिरसस्य (पीतये) पानाय (विश्वैः) सर्वैः (ऊमेभिः) रक्षणादिकर्त्तृभिस्सह (आ) (गहि) आगच्छ (देवेभिः) विद्वद्भिः (हव्यदातये) दातव्यदानाय ॥१॥
भावार्थः
यदि विद्वांसः परमविदुषा सह सर्वाञ्जनान् सम्बोधयेयुस्तर्हि सर्व आनन्दिताः स्युः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पन्द्रह ऋचावाले इक्यावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन विद्वानों के साथ क्या करे, यह उपदेश किया जाता है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (विश्वैः) सम्पूर्ण (ऊमेभिः) रक्षा आदि करनेवाले (देवेभिः) विद्वानों के साथ (सुतस्य) निकाले हुए ओषधिरस के (पीतये) पान करने के लिये और (हव्यदातये) देने योग्य वस्तु के देने के लिये (आ, गहि) प्राप्त हूजिये ॥१॥
भावार्थ
जो विद्वान् जन अत्यन्त विद्वान् के साथ सम्पूर्ण जनों को उत्तम प्रकार बोध देवें तो सब आनन्दित होवें ॥१॥
विषय
राजा वा शासक का पुत्रवत् प्रजा के पालन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (अग्ने) अग्रणी नायक अग्निवत् तेजस्विन्! राजन् ! तू (विश्वेभिः ) समस्त (ऊमैः ) रक्षा साधनों और रक्षकों सहित ( सुतस्य पीतये ) उत्तम ओषधि के रसके समान राष्ट्र से प्राप्त ऐश्वर्य, एवं शासित राज्यपद के उपयोग के लिये और उत्पन्न किये निज पुत्रवत् प्रजावर्ग के पालन करने के लिये और ( हव्य-दातये ) देने योग्य अन्न, धन, अधिकार आदि देने के लिये ( देवेभिः) उत्तम विद्वानों, व्यवहारकुशल पुरुषों सहित ( आ गहि ) हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वस्त्यात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१ गायत्री । २, ३, ४ निचृद् गायत्री । ५, ८, ९, १० निचृदुष्णिक् । ६ उष्णिक् । ७ विराडुष्णिक् ११ निचृत्त्रिष्टुप । १२ त्रिष्टुप । १३ पंक्तिः । १४, १५ अनुष्टुप् ।।
विषय
प्रभु द्वारा रक्षित होकर 'सोमपान' करना
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (सुतस्य पीतये) = शरीर में उत्पन्न सोम के पान [= रक्षण] के लिये आप (विश्वैः) = सब (ऊमेभिः) = रक्षणों के साथ आगहि हमें प्राप्त होइये । आप ही हमें वासनाओं से बचायेंगे और तब ही सोम का शरीर में रक्षण होगा। [२] (देवेभिः) = दिव्यगुणों के हेतु से आप हमारे लिये हव्यदातये सब हव्य पदार्थ को देने के लिये होइये। ये हव्य पदार्थ ही हमारे जीवन में दिव्यता का वर्धन करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ - परमात्म स्मरण के द्वारा वासनाओं से बचते हुए हम सोम का शरीर में रक्षण करनेवाले हों । हव्य पदार्थों के सेवन से दिव्य गुणों का वर्धन करें ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जर विद्वानांनी अत्यंत विद्वानांबरोबर संपूर्ण लोकांना उत्तम प्रकारे शिकवण दिली तर सर्व जण आनंदी होतील. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, light of knowledge and fire of life, come with all the means and methods of protection and progress, come with all the divines of the world and divine generosities of nature to enjoy what knowledge and nourishment we have distilled for your treat and bring the wealth and knowledge you have gained for us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Behaviour of a highly learned person towards other enlightened men is pointed out.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned leader ! come with all the protecting enlightened persons in order to drink the juice of the various nourishing herbs. Come for giving articles worth-giving.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If highly learned persons address all people along with an enlightened great scholar, they all enjoy bliss.
Foot Notes
(उमैभि:) रक्षणादिकर्तृभिस्सह । अव-रक्षणगति क्रान्तिप्रीतितृप्त्यवगम वृद्धिषु (भ्वा० ) = Protectors, lovers, knowers etc.. (हव्यदातये) दातव्यदानाय । हु-दानादनयोः आदाने च ( जुहो० ) अत्र दानार्थकः । = For giving in charity, what is worth giving.
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