ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र वः॒ स्पळ॑क्रन्त्सुवि॒ताय॑ दा॒वनेऽर्चा॑ दि॒वे प्र पृ॑थि॒व्या ऋ॒तं भ॑रे। उ॒क्षन्ते॒ अश्वा॒न्तरु॑षन्त॒ आ रजोऽनु॒ स्वं भा॒नुं श्र॑थयन्ते अर्ण॒वैः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । स्पट् । अ॒क्र॒न् । सु॒वि॒ताय॑ । दा॒वने॑ । अर्च॑ । दि॒वे । प्र । पृ॒थि॒व्यै । ऋ॒तम् । भ॒रे॒ । उ॒क्षन्ते॑ । अश्वा॑न् । तरु॑षन्ते । आ । रजः॑ । अनु॑ । स्वम् । भा॒नुम् । श्र॒थ॒य॒न्ते॒ । अ॒र्ण॒वैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वः स्पळक्रन्त्सुविताय दावनेऽर्चा दिवे प्र पृथिव्या ऋतं भरे। उक्षन्ते अश्वान्तरुषन्त आ रजोऽनु स्वं भानुं श्रथयन्ते अर्णवैः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। स्पट्। अक्रन्। सुविताय। दावने। अर्च। दिवे। प्र। पृथिव्यै। ऋतम्। भरे। उक्षन्ते। अश्वान्। तरुषन्ते। आ। रजः। अनु। स्वम्। भानुम्। श्रथयन्ते। अर्णवैः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! ये सुविताय दावने दिवे पृथिव्यै वो भर ऋतं प्राक्रन्नश्वानुक्षन्ते तरुषन्ते रजोऽनु स्वं भानुं चार्णवैः प्राश्रथयन्ते तान् यूयं सत्कुरुत। हे राजन् स्पट् ! त्वमेतान् सततमर्चा ॥१॥
पदार्थः
(प्र) (वः) युष्मभ्यम् (स्पट्) स्पष्टा (अक्रन्) कुर्वन्ति (सुविताय) ऐश्वर्य्यवते (दावने) दात्रे (अर्चा) सत्कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवे) कामयमानाय (प्र) (पृथिव्यै) अन्तरिक्षाय भूमये वा (ऋतम्) सत्यम् (भरे) बिभ्रति यस्मिंस्तस्मिन् (उक्षन्ते) सेवन्ते (अश्वान्) वेगवतोऽग्न्यादीन् (तरुषन्ते) सद्यः प्लवन्ते (आ) (रजः) लोकम् (अनु) (स्वम्) स्वकीयम् (भानुम्) दीप्तिम् (श्रथयन्ते) शिथिलीकुर्वन्ति (अर्णवैः) समुद्रैर्नदीभिर्वा ॥१॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये मनुष्या शिल्पविद्यया विमानादिकं निर्मायान्तरिक्षादिषु गत्वागत्य सर्वेषां सुखायैश्वर्य्यमाश्रयन्ति ते जगद्विभूषका भवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब आठ ऋचावाले उनसठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वद्गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जो (सुविताय) ऐश्वर्य से युक्त और (दावने) देनेवाले के लिए (दिवे) कामना करते हुए के लिए (पृथिव्यै) अन्तरिक्ष वा भूमि के लिये तथा (वः) आप लोगों के लिये (भरे) धारण करते हैं जिसमें उस व्यवहार में (ऋतम्) सत्य को (प्र, अक्रन्) अच्छे प्रकार करते हैं और (अश्वान्) वेग से युक्त अग्नि आदि को (उक्षन्ते) सेवते हैं तथा (तरुषन्ते) शीघ्र प्लवित होते हैं तथा (रजः) लोक के (अनु) पश्चात् (स्वम्) अपनी (भानुम्) कान्ति को (अर्णवैः) समुद्रों वा नदियों से (प्र, आ, श्रथयन्ते) सब प्रकार शिथिल करते हैं, उनका आप लोग सत्कार करिये और हे राजन् (स्पट्) स्पर्श करनेवाले ! आप इनका निरन्तर (अर्चा) सत्कार कीजिये ॥१॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो मनुष्य शिल्पविद्या से विमानादि को रच के अन्तरिक्षादि मार्गों में जा आ कर सब के सुख के लिये ऐश्वर्य्य का आश्रयण करते हैं, वे संसार के विभूषक होते हैं ॥१॥
विषय
मरुतों का वर्णन । वीरों, विद्वानों के कर्त्तव्य । मेघोंवत् उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे राजन् ! जो वीर पुरुष एवं प्रजा के लोग ( सुविताय ) उत्तम मार्ग में सुखपूर्वक जाने के लिये, सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिये और ( दावने दिवे ) दानशील तेजस्वी पुरुष राजा के लिये और ( पृथिव्यै) और पृथिवी वा उसके वासी जनों और अज्ञानी आश्रित जनों के ( भरे) भरण पोषण वा संग्रामादि के लिये ( ऋतम् प्र अक्रन् ) जल, अन्न उत्पन्न करते और सत्य न्याय की व्यवस्था वा प्रयाण करते हैं, हे राजन् ! तू (स्पट् ) सर्वद्रष्टा, सर्वाध्यक्ष होकर भी उनका ( प्र अर्च) अच्छी प्रकार आदर-सत्कार किया कर। इसी प्रकार जो वीर, प्रजा जन ( अश्वान् उक्षन्ते ) अश्वों को सेचते या अश्व सैन्यों को संचालित करते हैं, उनका भरण पोषण, वर्धन आदि का भार अपने ऊपर लेते हैं, और जो ( रजः ) समस्त लोक को ( तरुषन्त ) व्यापते, दुनियां भर में जाते आते रहते हैं, और जो (अर्णवै: ) जल भरे समुद्रों वा नदियों द्वारा ( अनु ) निरन्तर ( स्वं भानुं ) अपने तेज वा देदीप्यमान धनैश्वर्यं को ( श्रथयन्ते ) सञ्चित करते हैं उन व्यपारी और यान कुशल लोगों का भी तू ( प्र अर्च ) अच्छी प्रकार आदर कर। ये वायुगण ( दिवे पृथिव्यै ऋतम् अक्रन् ) आकाश से जल और पृथिवी पर अन्न उत्पन्न करते हैं ( अश्वान् ) मेघों वा सूर्य किरणों को धारते, उन द्वारा वृष्टि कराते, ( रजः ) अन्तरिक्षों में वेग से जाते, जलों सहित ( भानुं ) सूर्य प्रकाश को शिथिल, सह्य कर देते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती । २, ३, ६ निचृज्जगती । ५ जगती । ७ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
विषय
'ज्ञान-विज्ञान' की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे मरुतो [प्राणो] ! (स्पट्) = यह द्रष्टा ज्ञानी पुरुष (वः) = आपको (प्र अक्रन्) [क्रन्दति] = प्रकर्षेण पुकारता है। जिससे (सुविताय) = सुवित के लिये, दुरितों से दूर होने के लिये तथा (दावने) = दान व त्याग की भावना के निमित्त वह आपका स्तवन करता है। प्राणसाधना से मनुष्य दुरितों से बचता है और त्यागशील बनता है। (प्र अर्चा) = वह आपकी अर्चना करता है (दिवे) = ज्ञान के प्रकाश के लिये तथा (पृथिव्याः) = इस शरीररूप पृथिवी के ऋतं भरे ऋत को भरने के निमित्त [भरणं भरः] । शरीर के सब अंगों को ठीक करने के निमित्त वह आपका आह्वान करता है, प्राणसाधना से ही ज्ञान व शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। [२] प्राणसाधक (अश्वान्) = इन्द्रियाश्वों को (उक्षन्ते) = शक्ति से सिक्त करते हैं। (रजः) = रजोगुण को (आ तरुषन्ते) = तैर जाते हैं और (स्वं भानुम्) = आत्म प्रकाश को (अर्णवैः) = विज्ञान समुद्रों से (अनु श्रथयन्ते) = अनुश्लिष्ट करते हैं, ज्ञान को विज्ञान के साथ जोड़नेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से 'सुवित, त्यागवृत्ति, प्रकाश व स्वास्थ्य' प्राप्त होता है। इससे शक्ति का सेचन - सत्त्वगुण में स्थिति तथा ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति होती है ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायू व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन करण्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे राजा! जी माणसे शिल्पविद्येने विमान इत्यादी निर्माण करून अंतरिक्षातून गमनागमन करून सर्वांच्या सुखासाठी ऐश्वर्य प्राप्त करतात ती जगाचे भूषण ठरतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Adore and exalt those who are close to you, who do good and observe truth and law in their character, conduct and action for you, for your welfare, for the generous, and for the earth, the firmament and the regions of light. They energise the motive forces, radiate their light and lustre upto the regions of space and attain their ends by the seas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the enlightened persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! honour those who perform truthful deeds for the welfare of the (poor and Ed. wealthy. and liberal donor for a man designing (planning. Ed.) the welfare of all, for the firmament and earth in a dealing that supports all. Honour those who make proper use of the impetuous fire, electricity and other articles and move quickly, who make their own splendour some what slack by the illustration of the oceans or rivers. O king! being the destroyer of the foes and touching lovingly the friends, honour good persons constantly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! those persons who construct aeroplanes and other vehicles with the help of the technology, travel in the firmament. They multiply wealth and prosperity for the happiness of all become the ornaments of the world.
Foot Notes
(सुविताय)ऐश्वर्य्यवते। (सुविताय) षु-प्रसवैश्वर्ययोः (स्वा० ) अत्रैश्वर्यार्थग्रहणम् । = For a wealthy or prosperous person. (सपट्) स्पष्टा। स्पश वाधनस्पर्शयो: = One who touches lovingly or destroy enemies. (अश्वान्) वेगवतोग्न्यादीन। अग्निर्वा अश्वः श्वेतः = (Stph 3, 6, 2, 5) = Speedy horses in the form of the fire, electricity etc.
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