Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 60 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ईळे॑ अ॒ग्निं स्वव॑सं॒ नमो॑भिरि॒ह प्र॑स॒त्तो वि च॑यत्कृ॒तं नः॑। रथै॑रिव॒ प्र भ॑रे वाज॒यद्भिः॑ प्रदक्षि॒णिन्म॒रुतां॒ स्तोम॑मृध्याम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इळे॑ । अ॒ग्निम् । सु॒ऽअव॑सम् । नमः॑ऽभिः । इ॒ह । प्र॒ऽस॒त्तः । वि । च॒य॒त् । कृ॒तम् । नः॒ । रथैः॑ऽइव । प्र । भ॒रे॒ । वा॒ज॒यत्ऽभिः॑ । प्र॒ऽद॒क्षि॒णित् । म॒रुता॑म् । स्तोम॑म् । ऋ॒ध्या॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईळे अग्निं स्ववसं नमोभिरिह प्रसत्तो वि चयत्कृतं नः। रथैरिव प्र भरे वाजयद्भिः प्रदक्षिणिन्मरुतां स्तोममृध्याम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईळे। अग्निम्। सुऽअवसम्। नमःऽभिः। इह। प्रऽसत्तः। वि। चयत्। कृतम्। नः। रथैःऽइव। प्र। भरे। वाजयत्ऽभिः। प्रऽदक्षिणित्। मरुताम्। स्तोमम्। ऋध्याम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यैः किं साधनीयमित्याह ॥

    अन्वयः

    यथा प्रसत्त इहाहं नमोभिरस्मि तथा नमोभिः स्ववसमग्निमीळे कृतं वि चयत्। ये मरुतां गणा वाजयद्भी रथैरिव नोऽस्मान् वहन्ति तानहं प्र भरे प्रदक्षिणिदहं मरुतां स्तोममृध्याम् ॥१॥

    पदार्थः

    (ईळे) अधीच्छामि (अग्निम्) विद्युतम् (स्ववसम्) सुष्ठ्ववो रक्षणं यस्मात्तम् (नमोभिः) सत्कारैः (इह) अस्मिन् संसारे (प्रसत्तः) प्रसन्नः (वि) (चयत्) विचिनोमि (कृतम्) (नः) अस्मान् (रथैरिव) (प्र) (भरे) (वाजयद्भिः) वेगवद्भिः (प्रदक्षिणित्) यः प्रदक्षिणां नयति (मरुताम्) मनुष्याणाम् (स्तोमम्) श्लाघाम् (ऋध्याम्) वर्धयेयम् ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । विदुषा विदुषां सङ्गेनाग्न्यादिविद्यामाविर्भाव्य प्रसन्नता सम्पादनीया ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जैसे (प्रसत्तः) प्रसन्न (इह) इस संसार में मैं (नमोभिः) सत्कारों से हूँ वैसे सत्कारों से (स्ववसम्) उत्तम रक्षण जिससे उस (अग्निम्) बिजुली की (ईळे) अधिक इच्छा करता और (कृतम्) किये काम को (वि, चयत्) विवेक करता हूँ और जो (मरुताम्) मनुष्यों के समूह (वाजयद्भिः) वेगवाले (रथैरिव) वाहनों के सदृश पदार्थों से (नः) हम लोगों को पहुँचाते हैं उनको मैं (प्र, भरे) धारण करता हूँ और (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणा को प्राप्त करानेवाला मैं मनुष्यों की (स्तोमम्) प्रशंसा को (ऋध्याम्) बढ़ाऊँ ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । विद्वान् जन को चाहिये कि विद्वानों के सङ्ग से अग्नि आदि विद्या को प्रकट करा के प्रसन्नता सम्पादित करे ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मरुतों के दृष्टान्त से वीरों, विद्वानों का वर्णन । प्रजा की उत्तम अभिलाषा ।

    भावार्थ

    भा०- मैं प्रजाजन ( सु-अवसं ) उत्तम रक्षा करने वाले (अग्निम् ) ऐसे अग्रणी पुरुष को ( नमोभिः ) आदर सत्कारों से ( ईडे ) अपने ऊपर अधिकारी बनाना चाहता हूं जो (प्र-सत्तः ) उत्कृष्ट पद पर विराज कर (नः) हमारे ( कृतं ) किये कामों को ( वि चयत् ) विवेक पूर्वक जाने, अच्छे बुरे का अच्छी प्रकार विवेक करे । और ( वाजयद्भिः रथैः ) संग्राम करने वाले रथों से जिस प्रकार ( मरुतां स्तोमम् भरे ) शत्रु को मारने वाले वीर पुरुषों का गण संग्राम में अच्छी प्रकार समृद्ध होता है, उसी प्रकार मैं प्रजाजन ( भरे ) अपने पालन पोषण के निमित्त ( वाजयद्भिः रथैः ) अन्न ऐश्वर्यादि के लिये गमन करने वाले रथों, यानों से (प्र-दक्षिणित ) खूब पृथिवी भर के देशों का चक्कर लगाता हुआ ( मरुतां स्तोमम् ) राष्ट्रवासी मनुष्यों के समूह को ( प्र ऋध्याम्) अच्छी प्रकार समृद्ध करूं । अथवा - ( वाजयद्भिः रथैः इव प्र भरे ) संग्रामकारी यानों से जिस प्रकार शत्रुओं पर प्रहार करूं उसी प्रकार धनैश्वर्यादि से लदी गाड़ियों से मैं खूब ( प्र भरे ) अपनों को पुष्ट करूं वा खूब समृद्धि अपने देश में लाऊं। और (प्र-दक्षिणित ) आदर पूर्वक प्रदक्षिणा करता हुआ ( मरुतां स्तोमम् ऋध्याम् ) विद्वानों के उपदेश स्तुत्य गुणों को अच्छी प्रकार बढ़ाऊं, अधिक सफल और उच्च करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो मरुतो वाग्निश्च देवता ॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८ जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु-स्मरण-प्राणायाम

    पदार्थ

    [१] मैं (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (नमोभिः) = नमस्कारों द्वारा (ईडे) = उपासित करता हूँ। उस प्रभु को जो (स्ववसम्) = उत्तम रक्षणवाले हैं। प्रभु के रक्षण में रक्षित हुआ हुआ ही मैं सब कर्मों को कर पाता हूँ। वे प्रभु (इह) = यहाँ हमारे हृदयों में (प्रसत्तः) = प्रकर्षेण स्थित हुए-हुए (ना कृतम्) = हमारे कर्मों को (विचयत्) = पूरा-पूरा जान रहे हैं 'यो वेदिता कर्मणः पापकस्य तस्यान्तिके त्वे वृजिनं करोषि वर्द्धा संनिषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद्वेद वरुणस्तृतीयः'। [२] मैं उस प्रभु के निरीक्षण में (वाजयद्भिः) = [ वाजं कुर्वद्भिः] संग्राम को करते हुए (रथैः इव) = रथों से ही (प्रभरे) = उत्कृष्ट कार्यों का भरण करता हूँ । शरीर-रथ के द्वारा जीवन-संग्राम में उत्कृष्ट कार्यों का करनेवाला होता हूँ। (प्रदक्षिणित्) = सरल व उदार दक्षिण मार्ग से नकि उलटे [वाम] मार्ग से, गतिकरता हुआ (मरुतां स्तोमम्) = प्राणों के स्तवन को (ऋध्याम्) = समृद्ध करूँ, खूब ही प्राणसाधना करता हुआ जीवन को निर्दोष बनाने का प्रयत्न करूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का स्तवन करूँ तथा सरल मार्ग से चलता हा प्राणसाधना में होऊँ ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वायू, अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. विद्वान लोकांनी विद्वानांच्या संगतीने अग्नी इत्यादी विद्या प्रकट करून प्रसन्नतेने राहावे. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Collecting the work already done for us in the field, happy and enthusiastic, in perfect faith with relentless dedication and investments, I study and adore Agni, heat, light and electric energy, rich source of protection and progress, in order to extend the knowledge, hoping that, going round the world as if by tempestuous chariots of the winds in right order, I would raise the song of celebration in honour of the scholars and humanity. May the lord of knowledge accept and consecrate our work!

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As I am glad here with the honour received from others, so I intensely desire to have the knowledge and application of Agni (fire or electricity), which gives us much protection with due respect to the teachers. I gather what I have done, (reap what I have sown), I support the band of the thoughtful men who carry us to distant places with quick-going vehicles. Turning to the right (as a mark of respect), let me multiply the praise of the thoughtful persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Learned men should be glad to manifest the science of Agni (fire and or electricity) etc. by associating themselves with great scholars and scientists.

    Foot Notes

    (ईले) अधीच्छामि । ईधिरध्येषणाकर्मा (NKT 7, 4, 16 ) = Intensely long for. (अग्निम् ) विद्युतम् = Electricity. (ऋभ्याम्) वर्धयेयम् । ऋषु-वृद्धौ (दिवा० ) = Let me grow.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top