ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋत॑स्य गोपा॒वधि॑ तिष्ठथो॒ रथं॒ सत्य॑धर्माणा पर॒मे व्यो॑मनि। यमत्र॑ मित्रावरु॒णाव॑थो यु॒वं तस्मै॑ वृ॒ष्टिर्मधु॑मत्पिन्वते दि॒वः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठऋत॑स्य । गो॒पौ॒ । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒थः॒ । रथ॑म् । सत्य॑ऽधर्माणा । प॒र॒मे । विऽओ॑मनि । यम् । अत्र॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । अव॑थः । यु॒वम् । तस्मै॑ । वृ॒ष्टिः । मधु॑ऽमत् । पि॒न्व॒ते॒ । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य गोपावधि तिष्ठथो रथं सत्यधर्माणा परमे व्योमनि। यमत्र मित्रावरुणावथो युवं तस्मै वृष्टिर्मधुमत्पिन्वते दिवः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य। गोपौ। अधि। तिष्ठथः। रथम्। सत्यऽधर्माणा। परमे। विऽओमानि। यम्। अत्र। मित्रावरुणा। अवथः। युवम्। तस्मै। वृष्टिः। मधुऽमत्। पिन्वते। दिवः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 63; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मित्रावरुणविद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋतस्य गोपौ सत्यधर्माणा मित्रावरुणा राजामात्यौ ! युवं परमे व्योमनि स्थित्वा रथमधि तिष्ठथोऽत्र यमवथस्तस्मै दिवो वृष्टिर्मधुमत्पिन्वते ॥१॥
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्य (गोपौ) रक्षकौ राजामात्यौ (अधि) (तिष्ठथः) (रथम्) (सत्यधर्माणा) सत्यो धर्मो ययोस्तौ (परमे) प्रकृष्टे (व्योमनि) व्योमवत्प्रकाशिते व्यापके परमात्मनि (यम्) (अत्र) राज्ये (मित्रावरुणा) (अवथः) (युवम्) युवाम् (तस्मै) (वृष्टिः) वर्षाः (मधुमत्) मधुरादिगुणयुक्तम् (पिन्वते) सिञ्चति (दिवः) अन्तरिक्षात् ॥१॥
भावार्थः
यत्र धार्मिका विद्वांसः पुत्रमिव प्रजां पालयितारो राजादयो भवन्ति तत्र काले वृष्टिः काले मृत्युश्च जायते ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब चतुर्थाध्याय का आरम्भ है और पञ्चम मण्डल में सात ऋचावाले त्रेसठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मित्रावरुण विद्वद्विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋतस्य) ऋत अर्थात् सत्य की (गोपौ) रक्षा करनेवाले और (सत्यधर्माणा) सत्य है धर्म जिनका ऐसे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान राजा और अमात्य जनो ! (युवम्) आप दोनों (परमे) अति उत्तम (व्योमनि) आकाश के सदृश प्रकाशित व्यापक परमात्मा में स्थित होकर (रथम्) वाहन पर (अधि, तिष्ठथः) वर्त्तमान हूजिये और (अत्र) इस राज्य में (यम्) जिसकी (अवथः) रक्षा करते हैं (तस्मै) उसके लिये (दिवः) अन्तरिक्ष से (वृष्टिः) वर्षा (मधुमत्) मधुर आदि श्रेष्ठ गुणों से युक्त (पिन्वते) सिञ्चन करती है ॥१॥
भावार्थ
जहाँ धार्मिक विद्वान् पुत्र की जैसे वैसे प्रजा की पालना करनेवाला राजा आदि होते हैं, वहाँ उचित काल में वृष्टि और उचित काल में मृत्यु होता है ॥१॥
विषय
देह में प्राण उदानवत्, गृह में पतिपत्नीवत्, रथी सारथिवत् राजा प्रजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( ऋतस्य ) सत्य व्यवहार, सत्य ज्ञान, ऐश्वर्य और तेज के ( गोपौ ) रक्षक, ( सत्य-धर्माणा ) सत्य धर्म का पालन करने वाले (परमे व्योमनि) सर्वोत्कृष्ट रक्षक, आकाशवत् व्यापक, परमेश्वर पर आश्रित वा सर्वोच्च पद पर स्थित होकर ( रथम् अधि तिथष्ठः ) रमण करने योग्य रथवत् राष्ट्र का शासन करने के लिये उसके अध्यक्ष पद पर विराजें और उसका संचालन रथी सारथिवत् करें। हे ( मित्रावरुणा ) शरीर में प्राण उदान वत् एवं गृह में पतिपत्नीवत् एक दूसरे के स्नेह और एक दूसरे को स्व-स्वामिभाव से वरण करने वाले होकर वे ( युवं ) आप दोनों ( अत्र ) इस राष्ट्र में ( सम् अवथः ) जिस प्रजा जन की रक्षा करते हो ( तस्मै ) उसको (दिवः ) आकाश या अन्तरिक्ष से ( मधुमत् वृष्टिः ) जलमय वृष्टि के समान (दिवः) तेजस्वी क्षात्रवर्ग और ज्ञानमय ब्राह्मण वर्ग और कामना योग्य व्यवहारवित् वैश्य वर्ग से ( मधुमत् वृष्टिः ) ज्ञान, बल और अन्नमय वर्षा ( पिन्वते ) प्रजाजन की पुष्टि और वृद्धि करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अर्चनाना आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवता ।। छन्दः - १, २, ४, ७ निचृज्जगती। ३, ५, ६ जगती ।। सप्तर्चं सूक्तम् ।।
विषय
ऋत-सत्य=आनन्द वृष्टि
पदार्थ
[१] (मित्रावरुणा) = हे मित्र और वरुण ! [स्नेह व निर्देषता] आप (ऋतस्य गोपौ) = जीवन में ऋत के रक्षक हो, स्नेह व निर्देषता के होने पर जीवन में अमृत का प्रवेश नहीं होता। ऋत का वर्धन करते हुए अन्त में आप (परमे व्योमनि) = परम व्योम, अर्थात् हृदयाकाश में (सत्यधर्माणा) = सत्यस्वरूप प्रभु का धारण करनेवाले हैं। मित्र और वरुण के कारण भौतिक जीवन में 'ऋत' तथा अध्यात्म जीवन में 'सत्य' की स्थिति होती है । [२] इस प्रकार हे मित्रावरुणा ! (युवम्) = आप (अत्र) = इस जीवन में (यम् अवथः) = जिसको रक्षित करते हैं, (तस्मै) = उसके लिये (दिवः) = द्युलोक से (वृष्टिः) = होनेवाली वर्षा-धर्ममेध समाधि में होनेवाली आनन्द की वृष्टि (मधुमत्) = माधुर्यवाली होती है (पिन्वते) = सेचन करती है। उसका निरन्तर वर्धन करती है ।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के भाव के होने पर भौतिक जीवन में 'ऋत' होता है, अध्यात्म जीवन में सत्य तथा तब आनन्द की वृष्टि का अनुभव होता है ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मित्र वरुण व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जेथे धार्मिक विद्वान पुत्राप्रमाणे प्रजेचे पालन करणारा राजा असतो तेथे योग्य काळी वृष्टी व योग्यकाळी मृत्यू होतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, lord of light and lord of justice and rectitude, ruler and judge, guardians of truth and law, observers of truth and law and eternal Dharma, you abide in the highest regions of existence in the presence of Divinity and ride over the chariot of life and the state while you occupy the highest seats of the social order. In this state, whoever you protect is blest, rains of honey sweets shower on him from heaven above.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now something about the Mitrāvarunau is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O protectors of truth ! O observers of true Dharma (righteousness) ! king and his minister ! dwelling in God who is Refulgent like the sky, you, mount on your charming vehicle. He whom you protect in this world, or him the sweet rain (of joy and bliss ) is sprinkled from the firmament.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Where there are righteous king and other officers to govern who nourish theme subjects like their own children. it rains there at proper time and people die in proper time.
Foot Notes
(व्योमवत्प्रकाशिते ब्यापके परमात्मनि । = In Omnipresent God, Who is full of light like the sky. (पिन्वति ) सिञ्चति । पिवि-सेवने सेने चेत्येके (भ्वा० ) पिवि-सेचने (काशकृत्स्नं धातुपाठे 1,269)। = Sprinkles.
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