ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 79/ मन्त्र 1
ऋषिः - सप्तवध्रिरात्रेयः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
म॒हे नो॑ अ॒द्य बो॑ध॒योषो॑ रा॒ये दि॒वित्म॑ती। यथा॑ चिन्नो॒ अबो॑धयः स॒त्यश्र॑वसि वा॒य्ये सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥१॥
स्वर सहित पद पाठम॒हे । नः॒ । अ॒द्य । बो॒ध॒य॒ । उषः॑ । रा॒ये । दि॒वित्म॑ती । यथा॑ । चि॒त् । नः॒ । अबो॑धयः । स॒त्यऽश्र॑वसि । वा॒य्ये । सुऽजा॑ते । अश्व॑ऽसूनृते ॥
स्वर रहित मन्त्र
महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती। यथा चिन्नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमहे। नः। अद्य। बोधय। उषः। राये। दिवित्मती। यथा। चित्। नः। अबोधयः। सत्यऽश्रवसि। वाय्ये। सुऽजाते। अश्वऽसूनृते ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 79; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्त्री कीदृशी भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे उषर्वद्वर्त्तमाने वाय्ये सुजातेऽश्वसूनृते स्त्रि ! यथा दिवित्मत्युषा महे राये बोधयति तथाऽद्य नो बोधय चिदपि सत्यश्रवसि नोऽस्मानबोधयः ॥१॥
पदार्थः
(महे) महते (नः) अस्मान् (अद्य) (बोधय) (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (राये) धनाय (दिवित्मती) प्रकाशयुक्ता (यथा) (चित्) अपि (नः) अस्मान् (अबोधयः) बोधय (सत्यश्रवसि) सत्यानां श्रवणे सत्येऽन्ने वा (वाय्ये) तन्तुसदृशे सन्ताननीये विस्तारणीये सन्ततिरूपे (सुजाते) सुष्ठुरीत्योत्पन्ने (अश्वसूनृते) अश्वा महती सूनृता प्रिया वाग्यस्यास्तत्सम्बुद्धौ। अश्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३।६) ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा प्रातर्वेला दिनं जनयित्वा सर्वाञ्जागरयति तथैव विदुषी स्त्री स्वसन्तानानविद्यानिद्रात उत्थाप्य विद्यां बोधयति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब दश ऋचावाले उनासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में स्त्री कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (उषः) श्रेष्ठ गुणों से प्रातःकालः के सदृश वर्त्तमान (वाय्ये) डोरे के सदृश फैलाने योग्य सन्ततिरूप (सुजाते) उत्तम रीति से उत्पन्न (अश्वसूनृते) बड़ी प्रिय वाणी जिसकी ऐसी हे स्त्रि ! (यथा) जैसे (दिवित्मती) प्रकाश से युक्त प्रातर्वेला (महे) बड़े (राये) धन के लिये प्रबोध देती है, वैसे (अद्य) आज (नः) हम लोगों को (बोधय) जनाइये और (चित्) भी (सत्यश्रवसि) सत्यों के श्रवण, सत्य वा अन्न में (नः) हम लोगों को (अबोधयः) जनाइये ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे प्रातर्वेला दिन को उत्पन्न कर के सब को जगाती है, वैसे ही विद्यायुक्त स्त्री अपने सन्तानों को अविद्या के सदृश वर्त्तमान निद्रा से उठा कर विद्या को जनाती है ॥१॥
विषय
उषा । प्रभात वेला के दृष्टान्त से स्त्री के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
भा०—हे (उषः) प्रभात वेला के समान कान्तिमती, पति और पुत्रों की प्रेम से कामना करने हारी ! विदुषी स्त्री ! ( अद्य ) आज, सदा तू ( दिवित्मती ) दीप्तियुक्त, ज्ञान, उत्तम व्यवहार और कान्ति, उत्तम पदार्थों की कामना से युक्त होकर ( नः ) हमें (महे राये ) बड़े भारी ऐश्वर्य और प्राप्त करने योग्य उद्देश्य के लिये ( बोधयः ) जगाया कर । हे ( अश्व-सूनृते ) भोक्ता पति वा हृदय में व्यापक पुरुष के प्रति उत्तम वाणी बोलने हारी, वा ‘अश्व' अर्थात् भोजन करने वालों को 'सूनृत' अर्थात् अन्न देने वाली ! वा 'अश्व' व्याप्त, हृदयंगम, महत्वयुक्त वाणी, अन्न आदि की स्वामिनि ! हे ( सुजाते ) उत्तम गुणों में प्रसिद्ध ! माता पिता के उत्तम गुणों से युक्त ! हे (वाय्ये) तन्तु सन्तान रूप से उत्तम सन्ततियों को उत्पन्न करने हारी ! तू ( सत्य-श्रवसि ) सत्य अर्थात् सात्विक अन्न, सत्यश्रवण योग्य ज्ञान और सत्य कीर्त्ति के निमित्त ( यथाचित् ) जैसे भी हो उस रीति से ( नः अबोधयः ) हमें सचेत किया कर । यह कान्त संमित उपदेश करने का वर्णन है । वाणी पक्ष में-( अश्वसूनृते ) विद्या के मार्ग में वेग से जाने वाले विद्वान् की वाणी ! तू ( नः ) हमारे (सुजाते) उत्तम रीति से ब्राह्म आदि संस्कार में उत्पन्न पुत्र रूप ( वाय्ये) शिष्य रूप से सन्ततिवत् उत्पन्न सत्य प्रतिज्ञ बालक में जैसे हो तू मातृवत् ज्ञान प्रदान कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सत्यश्रवा आत्रेय ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १ स्वराड्ब्राह्मी गायत्री । २, ३, ७ भुरिग् बृहती । १० स्वराड् बृहती । ४, ५, ८ पंक्तिः । ६, ९ निचृत्-पंक्तिः ॥
विषय
महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति -
पदार्थ
[१] हे (उष:) = उषाकाल की देवते! (नः) = हमें (अद्य) = आज (महे राये) = महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (बोधय) = उद्बुद्ध कर । वस्तुतः प्रातः जागरण सात्त्विक वृत्ति को उत्पन्न करके हमारे शरीर में नीरोगिता व मन को प्रकाशमय करता है। एवं उषा हमें 'स्वास्थ्य व ज्ञान' रूप ऐश्वर्यों को देनेवाली है। [२] हे उषः ! तू (दिवित्मती) = प्रकाशवाली है। तू सत्यवसि सत्य कीर्तिवाले, सच्चे कीर्तिकर कर्मों में प्रेरित होनेवाले (वाय्ये) = कर्मतन्तु का सन्तान [विस्तार] करनेवाले (सुजाते) = उत्तम निवासवाले (अश्वसूनृते) = [अशूव्याप्तौ] कर्मों में व्याप्त सत्य वाणीवाले मेरे में उषः ! तू ऐसा कर (यथा) = जिससे (चित्) = निश्चयपूर्वक (न:) = हमें (अबोधयः) = जागरित कर । उष:काल का जागरण ही हमें उत्कृष्ट ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उषाकाल में जागें। यह जागरण हमें सात्त्विक वृत्तिवाला बनाकर नीरोगिता व ज्ञान के ऐश्वर्य को प्राप्त करायेगा ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात प्रातःकाल व स्त्रीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी उषा दिवस उत्पन्न करून सर्वांना जागृत करते. तसेच विद्यायुक्त स्त्री स्वसंतानांना अविद्यारूपी निद्रेतून जागृत करून विद्या देते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O dawn, lady of morning light brilliant with splendour, arouse us and enlighten us today for the achievement of grandeur, wealth and excellence of life as you have been the giver of enlightenment and generosity ever before, O majesty of renown, symbol of life’s extension, nobly born, commander of the nation’s power, achievement and love of noble truth.$(Swami Dayananda interprets this mantra as an address to the lady of the house.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
An ideal woman is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wife! you are like the dawn, to be extended like the thread in the form of progeny, well-born (born in a noble family), great utterer of true and sweet words like the dawn which is full of light. Awaken us for great wealth, and enlighten us today. Enlighten us for the hearing (receiving. Ed.) of truth and good food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the dawn awakens all by ushering in the day, in the same manner, an enlightened or highly educated lady awakens her children from the slumber of ignorance and gives them good knowledge.
Foot Notes
(उष:) उषवर्द्वत्तमाने |= O wife who are like dawn. (अश्वसूनूते) अश्वा महती सूनूता प्रिया वाग्यस्यास्ततसंबुद्धौ अश्व इति महान्नाम (NG 3, 2)। = Endowed with great and pleasant speech. (वाक्ये) तन्तुसदृशे सन्ताननीये विस्तारणीये सन्ततिरूपे । वेन् तन्तु सन्ताने (भ्वा) = To be extended life a thread in the form of progeny.
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