ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
त्वाम॑ग्न ऋता॒यवः॒ समी॑धिरे प्र॒त्नं प्र॒त्नास॑ ऊ॒तये॑ सहस्कृत। पु॒रु॒श्च॒न्द्रं य॑ज॒तं वि॒श्वधा॑यसं॒ दमू॑नसं गृ॒हप॑तिं॒ वरे॑ण्यम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । ऋ॒त॒ऽयवः॑ । सम् । ई॒धि॒रे॒ । प्र॒त्नम् । प्र॒त्नासः॑ । ऊ॒तये॑ । स॒हः॒ऽकृ॒त॒ । पु॒रु॒ऽच॒न्द्रम् । य॒ज॒तम् । वि॒श्वऽधा॑यसम् । दमू॑नसम् । गृ॒हऽप॑तिम् । वरे॑ण्यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्न ऋतायवः समीधिरे प्रत्नं प्रत्नास ऊतये सहस्कृत। पुरुश्चन्द्रं यजतं विश्वधायसं दमूनसं गृहपतिं वरेण्यम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। ऋतऽयवः। सम्। ईधिरे। प्रत्नम्। प्रत्नासः। ऊतये। सहःऽकृत। पुरुऽचन्द्रम्। यजतम्। विश्वऽधायसम्। दमूनसम्। गृहऽपतिम्। वरेण्यम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निशब्दार्थगृहाश्रमविषयमाह ॥
अन्वयः
हे सहस्कृताग्ने ! प्रत्नास ऋतायव ऊतये यं प्रत्नं पुरुश्चन्द्रं यजतं विश्वधायसं [दमूनसं] वरेण्यं गृहपतिं त्वां समीधिरे स त्वमेतान् सत्कुरु ॥१॥
पदार्थः
(त्वाम्) (अग्ने) कृतब्रह्मचर्य्यगृहाश्रमिन् (ऋतायवः) ऋतं सत्यमिच्छवः (सम्, ईधिरे) सम्यक् प्रदीपयेयुः (प्रत्नम्) प्राचीनम् (प्रत्नासः) प्राचीना विद्वांसः (ऊतये) रक्षणाद्याय (सहस्कृत) सहो बलं कृतं येन तत्सम्बुद्धौ (पुरुश्चन्द्रम्) बहुहिरण्यादियुक्तम् (यजतम्) पूजनीयम् (विश्वधायसम्) सर्वव्यवहारधनधर्त्तारम् (दमूनसम्) इन्द्रियान्तःकरणस्य दमकरम् (गृहपतिम्) गृहव्यवहारपालकम् (वरेण्यम्) अतिशयेन वर्त्तव्यम् ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये युष्मान् विद्यादानादिभिर्वर्धयन्ति तान् यूयं सततं सत्कुरुत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले आठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्निशब्दार्थ गृहाश्रमी के विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहस्कृत) बल किये (अग्ने) और ब्रह्मचर्य्य किये हुए गृहाश्रमी ! (प्रत्नासः) प्राचीन विद्वान् जन (ऋतायवः) सत्य की इच्छा करनेवाले (ऊतये) रक्षण आदि के लिये जिस (प्रत्नम्) प्राचीन (पुरुश्चन्द्रम्) बहुत सुवर्ण आदि से युक्त (यजतम्) आदर करने योग्य (विश्वधायसम्) सब व्यवहार और धन के धारण तथा (दमूनसम्) इन्द्रिय और अन्तःकरण के दमन करनेवाले (वरेण्यम्) अतीव स्वीकार करने योग्य और श्रेष्ठ (गृहपतिम्) गृहस्थ व्यवहार के पालन करनेवाले (त्वाम्) आप को (सम्, ईधिरे) उत्तम प्रकार प्रकाशित करावें, वह आप इनका सत्कार करो ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो आप लोगों की विद्या और दान आदिकों से वृद्धि करते हैं, उनका आप लोग निरन्तर सत्कार करो ॥१॥
विषय
यज्ञाग्निवत् तेजस्वी का वरण और संस्थापन ।
भावार्थ
भा०-जिस प्रकार (ऋतायवः अग्निं समिन्धते ) तेज के वा अन्न और ऐश्वर्य के इच्छुक यज्ञाग्नि वा विद्युत्-अग्नि को प्रदीप्त करते हैं । हे (अग्ने) अनि के समान तेजस्विन् ! हे (सहस्कृत) बाधाओं को पराजित करने वाले, बल का सम्पादन करने हारे विद्वन् ! ( प्रत्नासः ) अति पुराने, सनातन से प्राप्त (ऋतायवः ) सत्य ज्ञान से युक्त वेद, वेदज्ञ विद्वान् जन (ऊतये ) ज्ञान और रक्षा के लिये ( पुरु-चन्द्रं ) बहुतों को चन्द्रवत् आह्लादक, बहुत सुवर्ण आदि के स्वामी, ( यजतं ) पूज्य, दानी (विश्व-धायसं ) समस्त विश्व के पालक, सबके पोषक, ( दमूनसम् ) जितेन्द्रिय, मन को वश करने वाले, (गृहपतिम् ) गृह के पालक, (वरेण्यम्) - सबसे वरण करने योग्य, वा उत्तम मार्ग में ले जाने वाले (त्वाम् ) तुझ को ( सम् ईधिरे ) अच्छी प्रकार प्रकाशित करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इष आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्द:- १, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ४, ७ निचृज्जगती । ६ विराड्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'ऋतायु' को प्रभु के प्रकाश की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (प्रत्नम्) = सनातन आपको (प्रत्नासः ऋतायवः) = सनातन काल से चले आनेवाले ऋतायु लोग (ऊतये) = अपने रक्षण के लिये (समीधिरे) = अपने में सम्यक् दीप्त करते हैं। ऋत का आचरण करनेवाले ऋतायु सदा से आपको ही अपने हृदय देश में देखने का प्रयत्न करते हैं। अपने को वासनाओं के आक्रमण से बचाने का यही मार्ग है। [२] हे (सहस्कृत) = शत्रुपराभव करने की शक्ति को उत्पन्न करनेवाले प्रभो! आपको ही वे समिद्ध करते हैं। जो आप (पुरुश्चन्द्रम्) = खूब ही आह्लादमय हैं, उपासकों को आह्लादित करनेवाले हैं। (यजतम्) = उपासनीय हैं। (विश्वधायसम्) = सबका धारण करनेवाले हैं। (दमूनसम्) = दान के मनवाले हैं, आप हमें सब कुछ देने की कामना करते हैं। (गृहपतिम्) = आप ही हमारे शरीर रूप गृह के रक्षक हैं। (वरेण्यम्) = वरने के योग्य हैं।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन की क्रियाओं को ऋतपूर्वक करने से प्रभु के प्रकाश की प्राप्ति होती है।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे विद्या व दान यांनी तुमची वृद्धी करतात त्यांचा तुम्ही निरंतर सत्कार करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
You, light of the world, life of life, Agni, the lovers of Truth and universal law dedicated to yajna since time immemorial kindle and install in the home for protection and progress: Agni, ancient and eternal born of omnipotence, golden glorious, worthy of reverence, sustainer of the universe, self-controlled and abiding in divine law, head of human family, chosen and worthy of choice.$(Swami Dayananda applies this hymn by implication and extension to home life and the homely fire yajna, of which the head and yajamana is the married couple. Agni, further, may be interpreted as the head of a state and of the world government elected and anointed by common consent.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of householders are told; taking the sense the word 'Agni'.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty householder! you have earlier observed Brahmacharya. Honor those ancient or aged learned persons who are always desirous of truth, who have enlightened you for protection, but are not experienced, with regard to possession of much gold and other kind of wealth. In fact, they are upholder of all dealings, controller of the senses and mind, most acceptable, and efficient in the discharge of the duties of a household.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! always honor those persons who make you advanced by giving you knowledge and other things.
Foot Notes
(अग्ने) कृतब्रह्मचर्ययगृहाश्रमिन् = O observer of Brahmacharya who thereafter entered with householder's stage. (ऋतायवः) ऋतं सत्यमिच्छ्वः । = Seekers of truth. (प्रत्नम् ) प्राचीनम् । (प्रत्नासः) प्राचीना विद्वांसः । = Ancient or aged scholars. (सहस्कृत ) सहोबलं कृतं येन तत्सम्बुद्धौ | = One who acquired wealth. (पुरुश्चन्द्रम् ) बहुहिरण्या दियुक्तम् । = Stuffed with gold and other kinds of wealth. (दमूनसम् ) इन्द्रियान्तः करणस्य दमकरम् । = Controller of senses and up keeper of conscience.
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