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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पृथिवी छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    बळि॒त्था पर्व॑तानां खि॒द्रं बि॑भर्षि पृथिवि। प्र या भूमिं॑ प्रवत्वति म॒ह्ना जि॒नोषि॑ महिनि ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बट् । इ॒त्था । पर्व॑तानाम् । खि॒द्रम् । बि॒भ॒र्षि॒ । पृ॒थि॒वि॒ । प्र । या । भूमि॑म् । प्र॒व॒त्व॒ति॒ । म॒ह्ना । जि॒नोषि॑ । म॒हि॒नि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बळित्था पर्वतानां खिद्रं बिभर्षि पृथिवि। प्र या भूमिं प्रवत्वति मह्ना जिनोषि महिनि ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बट्। इत्था। पर्वतानाम्। खिद्रम्। बिभर्षि। पृथिवि। प्र। या। भूमिम्। प्रवत्वति। मह्ना। जिनोषि। महिनि ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे प्रवत्वति महिनि पृथिवीव वर्त्तमाने ! या त्वं पर्वतानां मह्ना भूमिं धरसीत्था बट् सत्यं यतो बिभर्षि खिद्रं प्र जिनोषि तस्मात् सत्कर्त्तव्याऽसि ॥१॥

    पदार्थः

    (बट्) सत्यम्। बडिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (इत्था) अनेन प्रकारेण (पर्वतानाम्) मेघानाम् (खिद्रम्) दैन्यम् (बिभर्षि) (पृथिवी) भूमिवद्वर्त्तमाने (प्र) (या) (भूमिम्) (प्रवत्वति) प्रवणदेशयुक्ते (मह्ना) महत्त्वेन (जिनोषि) (महिनि) पूज्ये ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा भूमौ शैलाः स्थिरा वर्त्तन्ते तथा येषां हृदि धर्म्मादयः सद्व्यवहारा वर्त्तन्ते ते पूज्या जायन्ते ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तीन ऋचावाले चौरासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (प्रवत्वति) अत्यन्त नीचे स्थान से युक्त (महिनि) आदर करने योग्य (पृथिवि) भूमि के सदृश वर्त्तमान ! (या) जो तुम (पर्वतानाम्) मेघों के (मह्ना) महत्त्व से (भूमिम्) भूमि को धारण करती (इत्था) इस प्रकार से (बट्) सत्य को जिस कारण (बिभर्षि) धारण करती हो तथा (खिद्रम्) दीनता को (प्र, जिनोषि) विशेष करके नष्ट करती हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे भूमि पर पर्वत स्थिर होकर वर्त्तमान हैं, वैसे जिनके हृदय में धर्म आदि श्रेष्ठ व्यवहार हैं, वे आदर करने योग्य होते हैं ॥१॥

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    विषय

    पृथिवी के तुल्य माता का वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार पृथिवी ( पर्वतानां मह्ना ) पर्वतों और मेघों के महान् सामर्थ्य से ( खिद्रं बिभर्षि, भूमिं च जिनोषि ) दीन प्रजा को पालती और भूमि को जल धाराओं और नदियों से सींचती है उसी प्रकार हे ( पृथिवि ) पृथिवी के समान विशाल हृदय वाली ! हे ( प्रवत्वति ) उत्तम गुणों वाली ! हे ( महिनि ) पूज्ये ! दानशीले महान् सामर्थ्य वाली ! तू भी ( पर्वतानां मह्ना ) मेघ या पर्वतों के तुल्य उदार और पालन सामर्थ्यो से युक्त पुरुषों का पालन कर, और अपनी (भूमिं ) अन्न-सस्योत्पादक भूमि और सन्तत्युत्पादक अंग को भी ( प्र जिनोषि ) उत्तम रीति से सींच और उत्तम प्रजा उत्पन्न कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः। पृथिवी देवता ॥ छन्द: – १, २ निचदनुष्टुप् । ३ विराडनुष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    पर्वत- खेदन

    पदार्थ

    [१] 'पृथिवी' शब्द इस विस्तारवाले अन्तरिक्ष का भी वाचक है । हे (पृथिवि) = अन्तरिक्ष देवते! तू (बट्) = सचमुच (इत्था) = इस प्रकार (पर्वतानाम्) = वाष्प पर्वों [तहों] से बने हुए इन मेघों के (खिद्रम्) = खेदन व भेदन को (बिभर्षि) = धारण करती है। अन्तरिक्ष में ही इन बादलों का निर्माण होता है। वहाँ से इनका भेदन होकर वृष्टि का सम्भव हुआ करता है। [२] हे (प्रवत्वति) = उत्कर्षवाली अन्तरिक्ष देवते! तू वह है (या) = जो, हे (महिनि) = महिमाशालिनि ! (मह्ना) = अपनी महिमा से, इस वृष्टि की व्यवस्था से (भूमिम्) = इस प्राणियों के निवास स्थानभूत भूप्रदेश को (प्रजिनोषि) = प्रकर्षेण प्रीणित करती है। वृष्टि के होने से ही यहाँ सब प्राणियों के जीवन का सम्भव होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ– अन्तरिक्ष में बादलों का भेदन होकर वृष्टि से अन्नोत्पत्ति द्वारा इस भूमि पर प्राणियों का प्रीणन होता है

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात मेघ, विद्वान व स्त्रीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे भूमीवर पर्वत स्थिर असतात तसे ज्यांच्या हृदयात धर्म इत्यादी श्रेष्ठ व्यवहार असतात. ते आदरणीय असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Truly, O terrestrial mother, revered earth, you bear the thunder breaker of the clouds, bear the burden of mountain ranges, hold on the flood of rivers and contain the rolling oceans. O mighty one on the onward move, you are the one who thus with your great power and force rule and sustain the land and her people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned and respectable lady! for bearing nature like the earth, which contains some low regions also, you uphold the earth by the greatness of the clouds and in this manner uphold the truth and destroy poverty. Therefore you are worthy of honor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the mountains are steadfast on the earth, in the same manner those persons become venerable in whose heart Dharma (righteousness) and other good dealings are firmly established.

    Foot Notes

    (बट्) सत्यम् । वडिति सत्यनाम (NG 3, 10) = Truth. ( खिद्रम्) दैन्यम् । ( खिद्-दैन्ये (दिवा० ) | = Poverty. (महिनि) पूज्ये । मह-पूजायाग् (भ्वा०) । = Regenerable.

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