ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
इ॒ममू॒ षु वो॒ अति॑थिमुष॒र्बुधं॒ विश्वा॑सां वि॒शां पति॑मृञ्जसे गि॒रा। वेतीद्दि॒वो ज॒नुषा॒ कच्चि॒दा शुचि॒र्ज्योक्चि॑दत्ति॒ गर्भो॒ यदच्यु॑तम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । वः॒ । अति॑थिम् । उ॒षः॒ऽबुध॑म् । विश्वा॑साम् । वि॒शाम् । पति॑म् । ऋ॒ञ्ज॒से॒ । गि॒रा । वेति॑ । इत् । दि॒वः । ज॒नुषा॑ । कत् । चि॒त् । आ । शुचिः॑ । ज्योक् । चि॒त् । अ॒त्ति॒ । गर्भः॑ । यत् । अच्यु॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इममू षु वो अतिथिमुषर्बुधं विश्वासां विशां पतिमृञ्जसे गिरा। वेतीद्दिवो जनुषा कच्चिदा शुचिर्ज्योक्चिदत्ति गर्भो यदच्युतम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। ऊँ इति। सु। वः। अतिथिम्। उषःऽबुधम्। विश्वासाम्। विशाम्। पतिम्। ऋञ्जसे। गिरा। वेति। इत्। दिवः। जनुषा। कत्। चित्। आ। शुचिः। ज्योक्। चित्। अत्ति। गर्भः। यत्। अच्युतम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यतस्त्वमिमं विश्वासां विशां पतिमतिथिमुषर्बुधमृञ्जसे गर्भ इव य उ दिवो जनुषा सुवेतीत् कच्चिद्यच्छुचिरच्युतं वस्तु ज्योगत्ति वो गिरा चिदाऽऽजानाति स विद्वान् भवति ॥१॥
पदार्थः
(इमम्) (उ) वितर्के (सु) शोभने (वः) युष्माकम् (अतिथिम्) अतिथिमिव वर्त्तमानम् (उषर्बुधम्) य उषसि बोधयति तम् (विश्वासाम्) सर्वासाम् (विशाम्) मनुष्यादिप्रजानाम् (पतिम्) पालकम् (ऋञ्जसे) प्रसाध्नोषि (गिरा) वाचा (वेति) व्याप्नोति (इत्) एव (दिवः) दिवसस्य पदार्थबोधस्य (जनुषा) जन्मना (कत्) कदापि (चित्) अपि (आ) (शुचिः) पवित्रः (ज्योक्) निरन्तरम् (चित्) अपि (अत्ति) भुङ्क्ते (गर्भः) अन्तःस्थ (यत्) (अच्युतम्) नाशरहितम् ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथाऽतिथिः पूजनीयोऽस्ति तथैव पदार्थविद्यावित्सत्कर्त्तव्योऽस्ति ये सर्वान्तःस्थं नित्यं विद्युज्ज्योतिर्जानन्ति तेऽभीप्सितं सुखं लभन्ते ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उन्नीस ऋचावाले सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जिस कारण से आप (इमम्) इस (विश्वासाम्) सम्पूर्ण (विशाम्) मनुष्य आदि प्रजाओं के (पतिम्) पालक (अतिथिम्) अतिथि के समान वर्त्तमान (उषर्बुधम्) प्रातःकाल में जगानेवाले को (ऋञ्जसे) सिद्ध करते हैं (गर्भः) अन्तःस्थ के समान जो (उ) तर्कनासहित (दिवः) पदार्थबोध की (जनुषा) उत्पत्ति से (सु, वेति) अच्छे प्रकार व्याप्त होता (इत्) ही है तथा (कत्) कभी (चित्) भी (यत्) जो (शुचिः) पवित्र (अच्युतम्) नाश से रहित वस्तु को (ज्योक्) निरन्तर (अत्ति) भोगता है और (वः) आप लोगों की (गिरा) वाणी से (चित्) निश्चित (आ) आज्ञा करता है, वह विद्वान् होता है ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे अतिथि सत्कार करने योग्य है, वैसे ही पदार्थविद्या का जाननेवाला सत्कार करने योग्य है, जो सब के अन्तःस्थ नित्य बिजुली की ज्योति को जानते हैं, वे अभीप्सित सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥
विषय
वेद के भोजन से ज्ञान की वृद्धि । प्रातः जागने का रहस्य । जीवन के प्रथम भाग ब्रह्मचर्य में पालन का उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! तू (वः) अपने लोगों में से जो ( दिवः ) ज्ञान प्रकाश के कारण (जनुषा ) स्वभाव से ( शुचिः ) शुद्ध पवित्र है जो (स्वयं गर्भः) विद्यादि ग्रहण करने में समर्थ होकर ( अच्युतम् ) अविनाशी, स्थिर नित्य वेद ज्ञान को ( आ अत्ति ) सब प्रकार से भोगता है, और ( वेति इत् ) स्वयं विद्या से चमकता है (इमम् ) उस ( अतिथिम्) अतिथि के समान पूज्य, (उषः-बुधम् ) प्रातःकाल स्वयं जागने वाले, यज्ञाग्निवत् वा सूर्यवत् तेजस्वी, अन्यों को प्रभात, वा जीवन के प्रभात वेला बाल्य और कौमार दशा में ज्ञान द्वारा प्रबुद्ध करता है उस ( विश्वासां विशाम् ) आश्रम में प्रविष्ट समस्त शिष्यों को (पतिम् ) प्रजावत् पालन करने वाले गुरु की ( गिरा ऋञ्जसे ) विनीत वाणी से सेवा किया कर । अध्यात्म में - 'अच्युत', 'वीतहव्य' जीव है । उसको अपने में ले लेने हारा तेजोमय अग्नि 'प्रभु' है। उसकी वाणी से स्तुति कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उपासना से वासना विनाश
पदार्थ
[१] (इममू) = इस (वः अतिथिम्) = तुम्हारे लिये अतिथिवत् पूज्य, (उषर्बुधम्) = उषाकाल में बोध द्रष्टव्य है । करने योग्य [स्मरणीय] (विश्वासां विशां पतिम्) = सब प्रजाओं के रक्षक प्रभु को उन्ही (सु) = अच्छी प्रकार (गिरा ऋञ्जसे) = स्तुति वाणियों से प्रसाधित करता हूँ । वस्तुतः यह प्रभु - स्मरण ही उपासक को वासनाओं से बचाकर 'भरद्वाज' बनाता है। [२] ये प्रभु (इत्) = निश्चय से (दिवः) = ज्ञान से आवेति समन्तात् दीप्त होते हैं [कान्ति] । ज्ञानदीप्त ये प्रभु जनुषा स्वभाव से ही (कच्चिद् शुचिः) = कुछ अद्भुत ही पवित्रतावाले हैं। ये प्रभु (गर्भ:) = सब के अन्दर वर्तमान होते हुए (ज्योक् चित्) = दीर्घकाल से ही (यद्) = जो (अच्युतम्) = बड़ी दृढ़ वासनाएँ हैं, उन्हें (अत्ति) = खा जाते हैं, विनष्ट कर देते हैं। इनके हृदयस्थ होने पर वहाँ वासनाएँ भस्मीभूत हो जाती हैं। वासनाओं के विनाश से यह उपासक भी उपास्य प्रभु के समान पवित्र व दीप्त हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु को स्तुति-वाणियों द्वारा जीवन में प्रसाधित करने का प्रयत्न करें। ये ज्ञानदीप्त पवित्र प्रभु हृदयस्थ होते हुए हमारी वासनाओं को दग्ध कर देंगे। हम भी उपास्य प्रभु के समान हो उठेंगे।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी, विद्वान, ईश्वर व गृहस्थांच्या कार्याचे वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसा अतिथी सत्कार करण्यायोग्य असतो तसेच पदार्थविद्या जाणणारा सत्कार करण्यायोग्य असतो. जे सर्वांच्या अन्तःस्थ नित्य विद्युतला जाणतात त्यांना इच्छित सुख प्राप्त होते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O sage and scholar, this holy guest of yours visiting and waking you up at dawn, guardian and sustainer of all people of the world, you honour and adore with sacred words of song. He comes from the heaven of light, is wholly pure and immaculate by nature and, subsisting in the earth and everywhere, constantly consumes what never perishes, never decreases.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men know is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person ! as you please this Guru or preceptor who is the protector of all people, who is venerable like a guest, and asks his pupils at the dawn, to sit within himself i.e. like embryo keeps the pupils in his Asharama and creates in them the knowledge of all objects as in day time, and who being pure enjoys the imperishable soul or God, who ever knows all this also becomes an enlightened person.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as a guest is venerable, so a knower of physics and other sciences also is worthy of respect. Those who know the properties of electricity that is within all, enjoy desirable happiness.
Foot Notes
(ऋञजसे) प्रसाध्नोषि । ऋजतिः प्रसाधनकर्मा (NKT 6, 4, 21)। = Accomplish, here please. (दिवः) दिवसस्य पदार्थबोधस्य | दिवु धातोद्युत्यर्थमादाय गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणम् = Of the knowledge of all objects of the day.
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