ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पिबा॒ सोम॑म॒भि यमु॑ग्र॒ तर्द॑ ऊ॒र्वं गव्यं॒ महि॑ गृणा॒न इ॑न्द्र। वि यो धृ॑ष्णो॒ वधि॑षो वज्रहस्त॒ विश्वा॑ वृ॒त्रम॑मि॒त्रिया॒ शवो॑भिः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । सोम॑म् । अ॒भि । यम् । उ॒ग्र॒ । तर्दः॑ । ऊ॒र्वम् । गव्य॑म् । महि॑ । गृ॒णा॒नः । इ॒न्द्र॒ । वि । यः । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । वधि॑षः । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । विश्वा॑ । वृ॒त्रम् । अ॒मि॒त्रिया॑ । शवः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गृणान इन्द्र। वि यो धृष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वृत्रममित्रिया शवोभिः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठपिब। सोमम्। अभि। यम्। उग्र। तर्दः। ऊर्वम्। गव्यम्। महि। गृणानः। इन्द्र। वि। यः। धृष्णो इति। वधिषः। वज्रऽहस्त। विश्वा। वृत्रम्। अमित्रिया। शवःऽभिः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्म्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे वज्रहस्त धृष्णो इन्द्र ! यः शवोभिर्वृत्रं सूर्य्य इव विश्वाऽमित्रिया त्वं वि वधिषः। हे उग्र ! महि गव्यं गृणानो यमूर्वमभि तर्दस्तत्सम्बन्धे स त्वं सोमं पिबा ॥१॥
पदार्थः
(पिबा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (सोमम्) महौषधिरसम् (अभि) (यम्) (उग्र) तेजस्विन् (तर्दः) (ऊर्वम्) हिंस्यम् (गव्यम्) गवामिदम् (महि) महत् (गृणानः) स्तुवन् (इन्द्र) परमैश्वर्यमिच्छो (वि) (यः) (धृष्णो) प्रगल्भ (वधिषः) हन्याः (वज्रहस्त) शस्त्रपाणे (विश्वा) सर्वाणि (वृत्रम्) मेघम् (अमित्रिया) अमित्राणि (शवोभिः) बलैः ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण विद्यया सत्कर्म्मणा दुष्टान्निवार्य्य श्रेष्ठान् स्वीकुर्वन्ति ते शत्रून् घ्नन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब चतुर्थ अष्टक में छठे अध्याय और छठे मण्डल में पन्द्रह ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (व्रजहस्त) शस्त्र है हस्त में जिनके ऐसे (धृष्णो) अत्यन्त दृढ़ (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाले ! (यः) जो (शवोभिः) बलों से (वृत्रम्) मेघों को सूर्य्य जैसे वैसे (विश्वा) सम्पूर्ण (अमित्रिया) शत्रुओं को आप (वि) विशेष करके (वधिषः) नाश करिये और हे (उग्र) तेजस्विन् (महि) बड़े (गव्यम्) गौओं के घृत की (गृणानः) स्तुति करते हुए (यम्) जिस (ऊर्वम्) हिंसा करने योग्य की (अभि) (तर्दः) हिंसा करिये, उसके सम्बन्ध में वह आप (सोमम्) महौषधि के रस (पिबा) पीजिये ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य, विद्या और सत्कर्म्म से दुष्टों को दूर करके श्रेष्ठों को स्वीकार करते हैं, वे शत्रुओं का नाश करते हैं ॥१॥
विषय
शत्रु दमन के साथ राष्ट्र में कृषि की वृद्धि का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( वज्रहस्त ) शस्त्र को हनन-साधन रूप से अपने वश में रखने हारे ! हे ( घृष्णो ) शत्रुओं का बलपूर्वक मान भङ्ग करने हारे ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यचन् ! हे ( उग्र ) शत्रुओं का उद्विग्न करने में समर्थ ! बलवन् ! ( ग्रः ) जो तू ( शवोभिः ) अपने बलों से ( वृत्रम् ) मेघ को सूर्य के समान बढ़ते हुए शत्रु को और (विश्वा अभित्रिया) समस्त अमित्र भाव से रहने वाले जनों को ( वि वधिष:) विविध प्रकारों से दण्डित करते हो वे आप ( यम् ) जिस ( ऊर्वं ) हिंसनीय शत्रु का ( तर्दः ) नाश करते और ( गव्यं ) भूमि के हितकारी कृषि आदि ( महि ) श्रेष्ठ कर्म का ( गृणान: ) उपदेश करते हुए आप उस ( सोमम् ) ऐश्वर्य का (पिब) उपभोग करो और पालन करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।
विषय
इन्द्रियसमूह की वासना से मुक्ति
पदार्थ
[१] हे इन्द्र शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (उग्रः) = तेजस्वी आप (महि गृणान:) = खूब स्तवन किये जाते हुए (यम्) = जिस सोम का (अभि) = लक्ष्य करके (गव्यं ऊर्वम्) = इन्द्रियों सम्बन्धी समूह को (तर्द:) = [to set free] वासनाओं से मुक्त करते हो उस (सोमम्) = सोम का (पिब) = पान करिये, शरीर में रक्षण करिये। प्रभु स्तवन से सोम वासनाओं का विनाश होता है और इन्द्रिय समूह वासनाओं के आवरण से बचा रहता है और इस प्रकार शरीर में सोम के रक्षण सम्भव होता है। [२] (यः) = जो आप हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले, (वज्रहस्त) = वज्र हाथ में लिए हुए प्रभो, (विश्वा अमित्रिया) = सब हमारे शत्रुभूत (वृत्रम्) = ज्ञान के आवरणभूत काम-क्रोध आदि को (शवोभिः) = बलों के द्वारा (विवधिषः) = विशिष्टरूप से नष्ट कर देते हैं, वे आप सोम का पान [रक्षण] कीजिए ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु इन्द्रियसमूह को वासनामुक्त करके हमें सोम के रक्षण के योग्य बनाते हैं, प्रभु अपनी शक्ति से इन अमित्रभूत वासनाओं का विनाश करते हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी, विद्वान, राजा, मंत्री व प्रजेच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्य, विद्या, सत्कर्म यांच्याद्वारे दुष्टांना दूर करून श्रेष्ठांचा सत्कार करतात ती शत्रूंचा नाश करतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty invincible lord of the force of cosmic energy, wielder of the thunderbolt in hand, drink and celebrate with soma while you are sung and celebrated since you break the cloud of showers as the sun, release the vast and great wealth of cows, milk and ghrta, and with your powers and action destroy all unfriendly and antilife forces of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O holder of the weapons ! bold, desirous of acquiring wealth and prosperity, you smite with the might, every hostile being as the sun destroys the cloud. O full of splendor praising great products of milk, slay the person who deserves to be slayed, drink some juice of the invigorating herbs like the Soma (moon-creeper).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who accept good persons who having removed the wicked with Brahmacharya, knowledge and noble deeds destroy enemies.
Foot Notes
(ऊर्वम्) हिस्यम् । उर्वी-हिंसार्थः (भ्वा० ) = He who deserves to be killed, (शवोभिः) बलैः । शव इति बलनाम (NG 2, 9)। = With might. (वृत्नम्) मेघम् । वृत्त इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Cloud। By oversight the meaning of तर्द: is omitted in the Sanskrit commentary. It is derived from तृदिर-हिंसा मादरयो: (रुधा०) अत्निति स्यर्थः ।
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