ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमु॑ ष्टुहि॒ यो अ॒भिभू॑त्योजा व॒न्वन्नवा॑तः पुरुहू॒त इन्द्रः॑। अषा॑ळ्हमु॒ग्रं सह॑मानमा॒भिर्गी॒र्भिर्व॑र्ध वृष॒भं च॑र्षणी॒नाम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । स्तु॒हि॒ । यः । अ॒भिभू॑तिऽओजाः । व॒न्वन् । अवा॑तः । पु॒रु॒ऽहू॒तः । इन्द्रः॑ । अषा॑ळ्हम् । उ॒ग्रम् । सह॑मानम् । आ॒भिः । गीः॒ऽभिः । व॒र्ध॒ । वृ॒ष॒भम् । च॒र्ष॒णी॒नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु ष्टुहि यो अभिभूत्योजा वन्वन्नवातः पुरुहूत इन्द्रः। अषाळ्हमुग्रं सहमानमाभिर्गीर्भिर्वर्ध वृषभं चर्षणीनाम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठतम्। ऊँ इति। स्तुहि। यः। अभिभूतिऽओजाः। वन्वन्। अवातः। पुरुऽहूतः। इन्द्रः। अषाळ्हम्। उग्रम्। सहमानम्। आभिः। गीःऽभिः। वर्ध। वृषभम्। चर्षणीनाम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! योऽभिभूत्योजा अवातः पुरुहूतो वन्वन्निन्द्रोऽस्ति तमषाळ्हमुग्रं चर्षणीनां वृषभं सहमानमाभिर्गीभिः स्तुह्यु तेन वर्ध ॥१॥
पदार्थः
(तम्) (उ) (स्तुहि) (यः) (अभिभूत्योजाः) अभिभूतये शत्रूणां पराभवायौजः पराक्रमो यस्य सः (वन्वन्) विभजन् (अवातः) अहिंसितः (पुरुहूतः) बहुभिः प्रशंसितः (इन्द्रः) दुःखविदारकः (अषाळ्हम्) असोढव्यम् (उग्रम्) तीव्रस्वभावम् (सहमानम्) शत्रूणां वेगस्य सोढारम् (आभिः) (गीभिः) वाग्भिः (वर्ध) वर्धस्व। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (वृषभम्) अतिश्रेष्ठम् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् ॥१॥
भावार्थः
हे राजंस्त्वं सदा स्तोतव्यं स्तुहि निन्दनीयं निन्द सत्कर्त्तव्यं सत्कुरु दण्डनीयं दण्डय ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पन्द्रह ऋचावाले अठारहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (यः) जो (अभिभूत्योजाः) अभिभव अर्थात् शत्रुओं के पराजय करने के लिये पराक्रम से युक्त (अवातः) नहीं हिंसित (पुरुहूतः) बहुतों से प्रशंसित (वन्वन्) विभाग करता हुआ (इन्द्रः) दुःख को विदीर्ण करनेवाला है (तम्) उस (अषाळ्हम्) नहीं सहने योग्य (उग्रम्) तीव्र स्वभाववाले और (चर्षणीनाम्) मनुष्यों में (वृषभम्) अतिश्रेष्ठ और (सहमानम्) शत्रुओं के वेग को सहनेवाले की (आभिः) इन (गीर्भिः) वाणियों से (स्तुहि) स्तुति करिये (उ) और उससे (वर्ध) वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥१॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप सदा स्तुति करने योग्य की स्तुति करिये, निन्दा करने योग्य की निन्दा करिये तथा सत्कार करने योग्य का सत्कार करिये और दण्ड देने योग्य को दण्ड दीजिये ॥१॥
विषय
स्तुत्य स्वामी, प्रभु ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! ( यः ) जो ( अभिभूत्योजाः ) शत्रुओं का परा-भव करने में समर्थ, पराक्रमशाली हो और जो ( आवातः ) स्वयं न मारा जाकर भी ( पुरु-हूतः ) बहुतों से स्तुति योग्य और पुकारा जाकर (वन्वन् ) शत्रुओं का नाश करता हो (तम् उ ) उस की अवश्य तू (स्तुहि) स्तुति कर । तू उस ही ( चर्षणीनां वृषभम् ) मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ ( अषाढं ) पराजित न होने वाले, ( उग्रं ) बलवान् ( सहमानम् ) शत्रुओं को पराजय करने वाले पुरुष को ( गीर्भि: ) उत्तम २ वाणियों से ( वर्ध ) बढ़ा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥
विषय
'वन्वन् अवातः' इन्द्रः
पदार्थ
[१] (तं उ स्तुहि) = उस प्रभु का ही स्तवन करो (यः) = जो (अभिभूत्योजाः) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाला बलवाला है, (वन्वन्) = शत्रुओं का हिंसन करता हुआ (अवातः) = स्वयं शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होता। (पुरुहूतः) = पालक व पूरक है आह्वान जिसका [पुरु हूतं यस्य] ऐसे वे प्रभु (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवाले हैं। [२] (अषाढम्) = शत्रुओं से अनभिभूत, (उग्रम्) = तेजस्वी, (सहमानम्) = शत्रुओं को कुचलते हुए उस प्रभु को (आभिः गीर्भि:) = इन ज्ञानमयी स्तुति-वाणियों से (वर्ध) = बढ़ाइये। वे प्रभु (चर्षणीनां वृषभम्) = श्रमशील मनुष्यों के लिए सुखों का वर्षण करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन हमें शत्रुओं को कुचलने में समर्थ करता है ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, विद्वान व राजा यांच्या गुणांचे वर्णन केलेले असून या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे राजा ! तू स्तुती करण्यायोग्य असलेल्याचीच स्तुती कर. निंदा करण्यायोग्य असलेल्याची निंदा कर व सत्कारायोग्य असलेल्याचा सत्कार कर आणि दंड देण्यायोग्य असलेल्यास दंड दे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Adore him who tames and controls brute force, loves and shares life with all, unshaken and all admired, that is Indra, potent ruler of the world, intrepidable, blazing refulgent, challenging yet forbearing, most generous and creative of people. With these words of celebration, exalt him, and you too would rise.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! praise him whose might is all-surpassing in defeating the foes, uninjured, much admired, just distributor of all things and the destroyer of miseries. Glorify him who is never-vanquished, the strong one and who can put up with the impetus of the foes. He is the best among men, and the mighty victor, magnify him with these words and grow more and more.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should always admire who is praiseworthy, reproach him, who deserves censure, honor the person, who is venerable and punish him who deserves punishment.
Foot Notes
(अभिभूत्योजा:) अभिभूतये शत्रुणां पराभवाऔजः पराक्रमो यस्य सः । = Whose might is for vanquishing the foes. (अवातः) अहिंसितः । वागति गन्धनयो: (भ्वा०) गन्धनम्-हिंसनम्। = Uninjured. (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् चर्षणायः इति मनुष्यनामसु (NG 2, 3) = Of men.
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