ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
य एक॒ इद्धव्य॑श्चर्षणी॒नामिन्द्रं॒ तं गी॒र्भिर॒भ्य॑र्च आ॒भिः। यः पत्य॑ते वृष॒भो वृष्ण्या॑वान्त्स॒त्यः सत्वा॑ पुरुमा॒यः सह॑स्वान् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । एकः॑ । इत् । हव्यः॑ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । इन्द्र॑म् । तम् । गीः॒ऽभिः । अ॒भि । अ॒र्चे॒ । आ॒भिः । यः । पत्य॑ते । वृ॒ष॒भः । वृष्ण्य॑ऽवान् । स॒त्यः । सत्वा॑ । पु॒रु॒ऽमा॒यः । सह॑स्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
य एक इद्धव्यश्चर्षणीनामिन्द्रं तं गीर्भिरभ्यर्च आभिः। यः पत्यते वृषभो वृष्ण्यावान्त्सत्यः सत्वा पुरुमायः सहस्वान् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। एकः। इत्। हव्यः। चर्षणीनाम्। इन्द्रम्। तम्। गीःऽभिः। अभि। अर्चे। आभिः। यः। पत्यते। वृषभः। वृष्ण्यऽवान्। सत्यः। सत्वा। पुरुऽमायः। सहस्वान् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः क उपासनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यश्चर्षणीनामेक इद्धव्योऽस्ति तमिन्द्रमाभिर्गीर्भिरहमभ्यर्चे। यो वृषभो वृष्ण्यावान् सत्यः सत्वा पुरुमायः सहस्वान् पत्यते तमभ्यर्चे तं परमेश्वरं यूयमभ्यर्चत ॥१॥
पदार्थः
(यः) (एकः) (इत्) एव (हव्यः) स्तोतुमादातुमर्हः (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यप्रदम् (तम्) (गीर्भिः) (अभि) (अर्चे) सत्करोमि (आभिः) (यः) (पत्यते) पतिरिवाचरति (वृषभः) श्रेष्ठः (वृष्ण्यावान्) बलादिबहुप्रिययुक्तः (सत्यः) त्रैकाल्याबाध्यः (सत्वा) सर्वत्र स्थितः (पुरुमायः) बहूनां निर्माता (सहस्वान्) अत्यन्तबलयुक्त ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! योऽद्वितीयः सर्वोत्कृष्टः सच्चिदानन्दस्वरूपो न्यायकारी सर्वस्वामी वर्तते तं विहायाऽन्यस्योपासनं कदापि मा कुरुत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ग्यारह ऋचावाले बाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के मध्य में (एकः) अकेला (इत्) ही (हव्यः) स्तुति करने और ग्रहण करने योग्य है (तम्) उस (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को देनेवाले का (आभिः) इन (गीर्भिः) वाणियों से मैं (अभि, अर्चे) सब प्रकार से सत्कार करता हूँ और (यः) जो (वृषभः) श्रेष्ठ (वृष्ण्यावान्) बल आदि बहुत प्रियगुणों से युक्त (सत्यः) तीनों कालों में अबाध्य (सत्वा) सर्वत्र स्थित (पुरुमायः) बहुतों को रचनेवाला (सहस्वान्) अत्यन्त बल से युक्त हुआ (पत्यते) स्वामी के सदृश आचरण करता है, उसका सत्कार करता हूँ, उस परमेश्वर का आप लोग सत्कार करिये ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो अद्वितीय, सब से उत्तम, सच्चिदानन्दस्वरूप, न्यायकारी और सब का स्वामी है, उसका त्याग करके अन्य की उपासना कभी न करो ॥१॥
विषय
इन्द्र की अर्चना ।
भावार्थ
( यः ) जो ( एक इत् ) एक अद्वितीय ही ( चर्षणीनाम् हव्यः ) मनुष्यों के बीच में सबके पुकारने योग्य है ( तं इन्द्रं ) उस ऐश्वर्यवान् की ( आभिः ) इन ( गीर्भिः ) वेद वाणियों वा उत्तम वचनों से ( अभि अर्चे ) प्रतिक्षण साक्षात् अर्चना करूं । ( यः ) जो (वृषभः) सर्वश्रेष्ठ, समस्त सुखों का देने वाला (वृष्ण्य-वान् ) बलवान् पुरुषों के उचित बलों का स्वामी, है वह स्वयं भी ( सत्यः ) सत्य व्यवहार वाला, न्यायशील, ( सत्वा ) बलवान्, ( पुरु-मायः ) बहुत सी प्रज्ञाओं वा वाणियों का ज्ञाता, और ( सहस्वान् ) बलवान् है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३ स्वराट् पंक्तिः । १० पंक्तिः । २, ४, ५ त्रिष्टुप् । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।
विषय
एक मात्र पूज्य प्रभु
पदार्थ
[१] (यः) = जो (एकः इत्) = एक ही (चर्षणीनाम्) = सब मनुष्यों का (हव्यः) = आह्वातव्य होता है, (तं इन्द्रम्) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु को (आभिः गीभिः) = इन ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुति-वाणियों से (अभ्यर्च) = पूजनेवाला हो । स्तुत हुए हुए प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर तू शत्रुओं का पराभव कर सकेगा। [२] (यः) = जो प्रभु (पत्यते) = सब ऐश्वर्यों के मालिक हैं, (वृषभ:) = [कामानां वर्षिता] सब इष्ट पदार्थों का वर्षण करनेवाले, (वृष्ण्यावान्) = बलवान् हैं (सः) = वे (सत्वा) = शत्रुओं के विनाशक [सद्] व सब धनों के प्रापक [सज्], (पुरुमायः) = अनन्त प्रज्ञानवाले व (सहस्वान्) = शत्रुमर्षक शक्तिवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य को चाहिए कि एक मात्र प्रभु का ही पूजन करे। ये प्रभु शक्ति देंगे, प्रज्ञान को प्राप्त करायेंगे और इस प्रकार सब कामनाओं को पूर्ण करेंगे ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, विद्वान, ईश्वर, राजा व प्रजा यांच्या धर्माचे वर्णन केलेले आहे. या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो अद्वितीय, सर्वोत्कृष्ट, सच्चिदानंदस्वरूप, न्यायकारी व सर्वांचा स्वामी आहे, त्याचा त्याग करून इतरांची कधी उपासना करू नका. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The one sole lord of humanity worthy of yajnic homage is Indra, whom I adore with these words of praise. He it is, lord generous, giver of showers of strength and bliss, eternal, imperishable, omnificent, omnipotent and forbearing who protects and sustains life as supreme father and guardian.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who is to be adored by God ? - is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! I worship with my speeches that Giver of great Wealth, who-one alone is worthy of adoration by all men. He is the Lord of the world. He is the 'Best', Almighty, Absolutely True at all times, Immutable, Omni-present, creator of many objects, and endowed with infinite strength. You should alĮ worship that One God alone.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! never worship except that One God, Who is without a second (has no comparable) the Best or the Most Exalted, Absolute Existent, Absolute by conscious and Absolute Bliss, Dispenser of justice and Lord of all. Never worship any one else except Him.
Foot Notes
(हृभ्यः) स्तोतुमादातुतुमर्हः । - हु दानाचावनयो: दानावे च (जु०) अत्र आदानार्थग्रहणम् । माझ्- मानेशब्दे च । मन निर्माणार्थ प्रयोगः (जु०) । = Worthy of glorification or acceptance. (सत्वा) सर्वच स्थितः । = Omni-present. ( पुरुमाय:) बहूनां निर्माता |= Creator of many things.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal