ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
अक्षो॒ न च॒क्र्योः॑ शूर बृ॒हन्प्र ते॑ म॒ह्ना रि॑रिचे॒ रोद॑स्योः। वृ॒क्षस्य॒ नु ते॑ पुरुहूत व॒या व्यू॒३॒॑तयो॑ रुरुहुरिन्द्र पू॒र्वीः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअक्षः॑ । न । च॒क्र्योः॑ । शू॒र॒ । बृ॒हन् । प्र । ते॒ । म॒ह्ना । रि॒रि॒चे॒ । रोद॑स्योः । वृ॒क्षस्य॑ । नु । ते॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । व॒याः । वि । ऊ॒तयः॑ । रु॒रु॒हुः॒ । इ॒न्द्र॒ पू॒र्वीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षो न चक्र्योः शूर बृहन्प्र ते मह्ना रिरिचे रोदस्योः। वृक्षस्य नु ते पुरुहूत वया व्यू३तयो रुरुहुरिन्द्र पूर्वीः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअक्षः। न। चक्र्योः। शूर। बृहन्। प्र। ते। मह्ना। रिरिचे। रोदस्योः। वृक्षस्य। नु। ते। पुरुऽहूत। वयाः। वि। ऊतयः। रुरुहुः। इन्द्र पूर्वीः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सूर्यपृथिव्योः कीदृशं वर्त्तमानमस्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे शूर पुरुहूतेन्द्र ! यथा ते मह्ना रोदस्योर्मध्ये पूर्वीर्व्यूतयश्चक्र्योरक्षो न प्र रुरुहुः। हे बृहन् ! वृक्षस्य नु ते वया रिरिचे तं सर्वे जानन्तु ॥३॥
पदार्थः
(अक्षः) (न) इव (चक्र्योः) (शूर) (बृहन्) महान् (प्र) (ते) तव (मह्ना) महत्त्वेन महिम्ना (रिरिचे) अतिरिणक्ति (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (वृक्षस्य) (नु) (ते) तव (पुरुहूत) बहुभिः पूजित (वयाः) (वि) (ऊतयः) रक्षणाद्याः क्रियाः (रुरुहुः) प्रादुर्भवेयुः (इन्द्र) राजन् (पूर्वीः) प्राचीनाः ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा चक्राणां धर्त्र्यो धुरो वृक्षस्य शाखा इव वर्धन्तेऽन्तरिक्षे तिष्ठन्ति तथा सूर्याभितः सर्वे भूगोला भ्रमन्ति तथैव न्यायस्य मार्गेण प्रजाश्चलन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सूर्य और पृथिवी का कैसा वर्त्ताव है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शूर) वीर पुरुष (पुरुहूत) बहुतों से आदर किये गये (इन्द्र) राजन् ! जैसे (ते) आपके (मह्ना) महत्त्व से (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में (पूर्वीः) प्राचीन (वि, ऊतयः) विविध रक्षण आदि क्रियायें (चक्र्योः) पहियों की (अक्षः) धुरी के (न) समान (प्र, रुरुहुः) अच्छे प्रकार प्रकट होवें और हे (बृहन्) महान् (वृक्षस्य) वृक्ष की बढ़वार (नु) जैसे वैसे (ते) आपकी (वयः) अवस्था (रिरिचे) प्रकट होती है, उसको सब लोग जानें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पहियों की धारण करनेवाली धुरी वृक्ष की शाखाओं के समान बढ़ती है और अन्तरिक्ष में स्थित होती हैं, वैसे सूर्य के चारों ओर सम्पूर्ण भूगोल घूमते हैं और वैसे ही न्याय के मार्ग से प्रजायें चलती हैं ॥३॥
विषय
गौओं और बछड़ों के तुल्य और प्रभु राजा की शक्तियों, सेनाओं और प्रजाओं की स्थिति ।
भावार्थ
( चक्रयोः अक्षः न ) गाड़ी के पहियों में जिस प्रकार धुरा लगा रहता है वह उसके समस्त भार को सहता और चलता है उसी प्रकार हे ( शूर ) शूरवीर ! हे शत्रुओं के नाशक ! राजन् ! प्रभो ! ( ते ) तेरा ( बृहन् ) बड़ा भारी ( अक्षः ) तेज और व्यापक बल, (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी के बीच में सूर्य के प्रकाश वा परमेश्वरी शक्ति के समान स्व और पर राष्ट्रों तथा शासक और शास्य वर्गों में ( ते मह्ना ) तेरे महान् सामर्थ्य से, ( प्र रिरिचे ) बहुत अधिक बड़ा है । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! स्वामिन् ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों से प्रशंसित ! ( वयाः) ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियां और व्यापक सामर्थ्य और शाखा संस्थाएं, तेजस्वी पुरुष गण ( वृक्षस्य वयाः नु ) वृक्ष की शाखाओं के समान (वि रुरुहुः) विविध दिशाओं में विविध प्रकारों से उत्पन्न हों, बढ़े और फलें फूलें । ( २ ) राष्ट्र में राजा का शासन, निरीक्षण आदि चक्रों में अक्ष के समान लगकर उसे धारण करता है और सब शासक जन उसकी शाखावत् हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, २ भुरिक् पंक्तिः । ३,५,९ पंक्ति: । ४, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ६ ब्राह्मी बृहती ॥ दशर्चं सूकम् ॥
विषय
'अपरिच्छिन्न महिम' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (ते बृहन् मह्ना) = तेरी (महान्) = महिमा (रोदस्योः) = द्यावापृथिवी से इस प्रकार बढ़ी हुई है, (न) = जैसे कि (चक्र्योः) = [चक्र्योः] चक्रों में (अक्षः) = अक्ष [axle] बढ़ा हुआ होता है। अक्ष चक्रों से बाहिर निकला हुआ होता है, इसी प्रकार तेरी महिमा द्यावापृथिवी को लांघकर विद्यमान होती है, द्यावापृथिवी तेरी महिमा को सीमित नहीं कर पाते। [२] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ऊतयः) = आपके रक्षण (विरुरुहुः) = [रुह प्रादुर्भावे] विशिष्टरूप से प्रादुर्भूत होते हैं। ये रक्षण (पूर्वी:) = हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। ये रक्षण इस प्रकार प्रादुर्भूत होते हैं (नु) = जैसे कि (वृक्षस्य वयाः) = वृक्ष की शाखाएँ। वृक्ष से शाखाओं के प्रादुर्भाव की तरह आप से विविध रक्षणों का प्रादुर्भाव होता है, सब रक्षणों का मूल आप ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की महिमा द्यावापृथिवी से सीमित नहीं होती। सब रक्षणों के मूल प्रभु ही हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा चाकांना धारण करणारा अक्ष असतो व वृक्षाच्या फांद्या पसरलेल्या असतात तसे सर्व भूगोल अंतरिक्षात सूर्याभोवती फिरतात. तसेच न्यायाच्या मार्गाने प्रजा चालते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like the axis of two moving bodies such as two wheels or stars and planets or sun and earth, O mighty lord of majesty, Indra, universally invoked and adored, the eternal processes of your creation, protection and promotion of the expansive universe grow and extend like the branches of a tree by virtue of your infinite power and excell the light of the sun and generosity of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the relation between the sun and the earth-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great hero! the lofty axle of your wheels is not surpassed by any thing between heaven and earth in greatness, and your ancient protections grow on like the branches of a tree. O revered by many ! Let all men know this.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the axles of wheel are supporters of the wheels, extend like the branches of the trees, which stand in the firmament (above earth), in the same manner, all worlds (planets) revolve around the sun and all good people tread upon the path of justice.
Foot Notes
(रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः । रोदसीति द्यावापृथिवीनाम (NG 3, 30) = Between the heaven and earth. (रिरिचे) अतिरिणक्ति । रिचिर्-विरेचने (रुघा०) = Surpasses. (वया:) शाखा: । (भावार्थे व्याख्यातः ) = Branches.
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