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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    या त॑ ऊ॒तिर॑व॒मा या प॑र॒मा या म॑ध्य॒मेन्द्र॑ शुष्मि॒न्नस्ति॑। ताभि॑रू॒ षु वृ॑त्र॒हत्ये॑ऽवीर्न ए॒भिश्च॒ वाजै॑र्म॒हान्न॑ उग्र ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ते॒ । ऊ॒तिः । अ॒व॒मा । या । प॒र॒मा । या । म॒ध्य॒मा । इ॒न्द्र॒ । शु॒ष्मि॒न् । अस्ति॑ । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । अ॒वीः॒ । नः॒ । ए॒भिः । च॒ । वाजैः॑ । म॒हान् । नः॒ । उ॒ग्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या त ऊतिरवमा या परमा या मध्यमेन्द्र शुष्मिन्नस्ति। ताभिरू षु वृत्रहत्येऽवीर्न एभिश्च वाजैर्महान्न उग्र ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या। ते। ऊतिः। अवमा। या। परमा। या। मध्यमा। इन्द्र। शुष्मिन्। अस्ति। ताभिः। ऊँ इति। सु। वृत्रऽहत्ये। अवीः। नः। एभिः। च। वाजैः। महान्। नः। उग्र ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे शुष्मिन्नुग्रेन्द्र ! ते याऽवमा या मध्यमा या परमोतिरस्ति ताभिर्वृत्रहत्ये नः स्ववीरू एभिर्वाजैश्च महान्त्सन्नोऽवीः ॥१॥

    पदार्थः

    (या) (ते) तव (ऊतिः) रक्षा (अवमा) निकृष्टा (या) (परमा) उत्कृष्टा (या) (मध्यमा) (इन्द्र) न्यायाधीश राजन् (शुष्मिन्) प्रशंसितबलयुक्त (अस्ति) (ताभिः) (ऊ) (सु) (वृत्रहत्ये) मेघस्य हत्येव हननं यस्मिन्त्सङ्ग्रामे (अवीः) रक्षेः (नः) अस्मान् (एभिः) (च) (वाजैः) वेगादिभिः शुभैर्गुणैः (महान्) (नः) अस्मान् (उग्र) तेजस्विन् ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यदि त्वं प्रजाः सर्वथा रक्षेस्तर्हि प्रजा अपि त्वां सर्वतो रक्षिष्यन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब नव ऋचावाले पच्चीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शुष्मिन्) प्रशंसित बल से युक्त (उग्र) तेजस्विन् (इन्द्र) न्यायाधीश राजन् ! (ते) आपकी (या) जो (अवमा) निकृष्ट-खराब और (या) जो (मध्यमा) मध्यम और (या) जो (परमा) उत्तम (ऊतिः) रक्षा (अस्ति) है (ताभिः) उनसे (वृत्रहत्ये) मेघ के नाश के समान नाश जिसमें उस सङ्ग्राम में (नः) हम लोगों की (सु) उत्तम प्रकार (अवीः) रक्षा कीजिये (ऊ) और (एभिः) इन (वाजैः) वेग आदि उत्तम गुणों से (च) भी (महान्) बड़े हुए (नः) हम लोगों की रक्षा कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो आप प्रजाओं की सब प्रकार से रक्षा करें तो प्रजा भी आपकी सब प्रकार से रक्षा करेगी ॥१॥

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    विषय

    रक्षक स्वामी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( शुष्मिन् ) बलशालिन् ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( उग्र ) तेजस्विन् ! ( या ते ) जो तेरी ( ऊतिः अवमा ) रक्षा निकृष्ट, अति तुच्छ, ( परमा ) जो रक्षा सर्वोत्कृष्ट, ( या ) जो रक्षा ( मध्यमा ) मध्यम कोटि की ( अस्ति ) है । (ताभिः ) उन रक्षाओं से ( वृत्रहत्ये ) विघ्नकारी, बढ़ते शत्रुजनों के घात करने योग्य संग्राम में ( एभिः वाजैः महान् ) इन ऐश्वर्यों और बलों से महान् होकर (ताभिः) उन रक्षा साधनों और सेनाओं से (नः सु अवीः उ ) हमारी अवश्य और अच्छी प्रकार रक्षा किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः – १, ५ पंक्तिः । ३ भुर्रिक् पंक्तिः । २, ७, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ६ त्रिष्टुप् ।। नवर्च सूक्तम् ॥

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    विषय

    'अवम परम मध्यम' रक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (शुष्मिन्) = शत्रुशोषक बलवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यवान् प्रभो ! (या) = जो (ते) = आपकी (ऊतिः) = रक्षण व्यवस्था (अवमा) = सब से प्रथम स्थान में है, जिसके द्वारा आप हमारे शरीरों को रोगों से आक्रान्त नहीं होने देते। (या परमा) = जो आपकी रक्षण व्यवस्था संर्वान्तिम है, जिससे आप हमारे मस्तिष्कों को ज्ञानोज्ज्वल बनाते हैं। और (या) = जो (मध्यमा अस्ति) = रक्षण व्यवस्था मध्यम स्थान में है, जिसके द्वारा आप हमारे हृदयों को वासनाओं से मलिन नहीं होने देते। (ताभिः) = उन रक्षण व्यवस्थाओं के द्वारा (उ) = निश्चय से, (सु) = अच्छी प्रकार (नः अवी:) = हमारा रक्षण करिये। [२] हे (उग्र) = तेजस्विन् प्रभो! महान् पूज्य हैं। आप (वृत्रहत्ये) = वृत्र [वासना] के साथ होनेवाले संग्राम में (नः) = हमें (एभिः वाजै): - इन बलों के द्वारा [अबी:-] रक्षित करिये। हम वासनाओं से पराभूत न हो जाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से 'शरीर, मस्तिष्क व हृदय' सम्बन्धी रक्षणों को प्राप्त करके तथा संग्राम विजय के लिये शक्तियों को प्राप्त करके हम वासनाओं से पराभूत न हों। अपितु वासनाओं को पराभूत करनेवाले हों।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, शूरवीर, सेनापती व राजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! तू प्रजेचे सर्व प्रकारे रक्षण केलेस तर प्रजाही सर्व प्रकार तुझे रक्षण करील. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, mighty ruler, dispenser of justice and giver of inspiring vigour and vision, whatever your modes of safety and security at the primary level, whatever at the middle level and whatever of the highest level of the order, with all those protect us in the battle against darkness, want and negation, and bless us with these flights of progress and victory, O lord great and refulgent.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you are administrator of justice and endowed with admirable strength and splendor, with your protections whether they are the least, the midmost or the highest support us well in battles. You being great with speediness and other good qualities, protect us well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! if you protect the subjects, they will also protect or support you from all sides.

    Foot Notes

    (शुष्मिन्) प्रशंसितबलयुक्त । शुष्मम् इति बलनाम (NG 2, 9) = Endowed with admirable strength. (वृत्रहत्ये) वृत्रस्य मेघस्य हृत्येव हननं यस्मिन्त्सङ्ग्रामे । वृत्रतूर्ये इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) = In the battle where enemies are killed like the clouds by the sun.

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