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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    श्रु॒धी न॑ इन्द्र॒ ह्वया॑मसि त्वा म॒हो वाज॑स्य सा॒तौ वा॑वृषा॒णाः। सं यद्विशोऽय॑न्त॒ शूर॑साता उ॒ग्रं नोऽवः॒ पार्ये॒ अह॑न्दाः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒धि । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । ह्वया॑मसि । त्वा॒ । म॒हः । वाज॑स्य । सा॒तौ । व॒वृ॒षा॒णाः । सम् । यत् । विशः॑ । अय॑न्त । शूर॑ऽसातौ । उ॒ग्रम् । नः॒ । अवः॑ । पार्ये॑ । अह॑न् । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुधी न इन्द्र ह्वयामसि त्वा महो वाजस्य सातौ वावृषाणाः। सं यद्विशोऽयन्त शूरसाता उग्रं नोऽवः पार्ये अहन्दाः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुधि। नः। इन्द्र। ह्वयामसि। त्वा। महः। वाजस्य। सातौ। ववृषाणाः। सम्। यत्। विशः। अयन्त। शूरऽसातौ। उग्रम्। नः। अवः। पार्ये। अहन्। दाः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजा प्रजाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! वावृषाणा विशो वयं महो वाजस्य सातौ यत्त्वा ह्वयामसि तत्त्वं नो वचांसि श्रुधी ये शूरसातौ नः समयन्त तत्र पार्येऽहन्नुग्रमवो दाः ॥१॥

    पदार्थः

    (श्रुधि) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) राजन् (ह्वयामसि) प्रज्ञापयेम (त्वा) (महः) महतः (वाजस्य) वेगादिगुणयुक्तस्य (सातौ) शूराणां सातिर्विभागो यस्मिंस्तस्मिन्त्संग्रामे (वावृषाणाः) वृषं बलं कुर्वाणाः। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः। (सम्) (यत्) यतः (विशः) मनुष्यादिप्रजाः (अयन्त) प्राप्नुवन्ति (शूरसातौ) शूराणां सातिर्विभागो यस्मिंस्तस्मिन्त्संग्रामे (उग्रम्) तेजस्विनम् (नः) अस्मभ्यम् (अवः) रक्षणम् (पार्ये) पालयितव्ये (अहन्) दिने (दाः) देहि ॥१॥

    भावार्थः

    राज्ञामिदमतिसमुचितमस्ति यत्प्रजा ब्रूयात् तद्ध्यानेन शृणुयुः। यतो राजप्रजाजनानां विरोधो न स्यात् प्रत्यहं सुखं वर्धेत ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब आठ ऋचावाले छब्बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा और प्रजाजन परस्पर कैसा बर्ताव करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (वावृषाणाः) बल को करते हुए (विशः) मनुष्य आदि प्रजा हम लोग (महः) बड़े (वाजस्य) वेग आदि गुणों से युक्त के (सातौ) शूरों का विभाग जिसमें उस संग्राम में (यत्) जिससे (त्वा) आपको (ह्वयामसि) जनावें, जिससे आप (नः) हम लोगों के लिये वचनों को (श्रुधी) सुनिये और जो (शूरसातौ) शूरों का विभाग जिसमें उस संग्राम में (नः) हम लोगों को (सम्, अयन्त) प्राप्त होते हैं, उस (पार्ये) पालन करने योग्य (अहन्) दिन में (उग्रम्) तेजस्वी को (अवः) रक्षण (दाः) दीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    राजाओं को यह अतियोग्य है कि जो प्रजा कहे उसको ध्यान से सुनें, जिससे राजा और प्रजाजनों का विरोध न होवे और प्रतिदिन सुख बढ़े ॥१॥

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    विषय

    प्रजा सेवकादिभक्त इन्द्र । उसका दुष्टदमन का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( महः वाजस्य सातौ ) बड़े भारी अन्न, ऐश्वर्य और बल को प्राप्त करने, विभाग करने और प्रयोग करने के निमित्त, ( ववृषाणः ) तेरा बल बढ़ाते और अभिषेक करते हुए ( त्वा ) तुझे ( ह्वयामसि ) बुलाते हैं । ( यत् ) जब ( विशः ) प्रजाएं ( शूर-सातौ ) वीर पुरुषों के विभाग करने योग्य संग्राम के निमित्त संग्राम के उपरान्त या उनको नाना पारितोषिकादि रूप से विशेष द्रव्य विभाग करने के निमित्त ( सम् अयन्त ) एक स्थान पर एकत्र हों तब तू ( पार्ये अहन्) सर्व-पालनीय, अन्तिम या नियत दिन पर ( नः ) हमें ( उग्रं अवः ) उत्तम, तेजयुक्त पालन, योग्य अन्न वेतन आदि, ( दाः ) प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २, ४ भुरिक पंक्तिः। ३ निचृत् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्त्रिष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    उग्रं अवः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (वावृषाणा:) = अपने अन्दर सोम का सेचन करते हुए हम (महः) = महान् (वाजस्य सातौ) = शक्ति की प्राप्ति के निमित्त (त्वा ह्वयामसि) = आपको पुकारते हैं । (नः श्रुधि) = हमारी पुकार को आप सुनिये। [२] (यद्) = जब (विश:) = प्रजाएँ (शूरसाता) = संग्राम में (सं अयन्त) = संगत हों, तो (पार्ये अहन्) = अन्तिम दिन, विजय व पराजय के निर्णय वाले दिन [final] (नः) = हमारे लिये (उग्रम्) = बहुत तीव्र, तेजस्विता सम्पन्न, (अवः) = रक्षण को (दाः) = दीजिये । आप से रक्षित हुए हुए हम अवश्य विजयी हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्वयं सोम का शरीर में सेचन करते हुए हम प्रभु से शक्ति की याचना करें। प्रभु हमें युद्ध के इस विजय पराजय के निर्णय के दिन तीव्र रक्षण प्राप्त करायें।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, परीक्षक, श्रेष्ठ, राजा व प्रजेच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    राजाने प्रजेचे म्हणणे लक्षपूर्वक ऐकावे. त्यामुळे राजा व प्रजा यांचा विरोध न होता प्रत्येक दिवशी सुख वाढते. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler and giver of honour and excellence, listen to us: overwhelming and exuberant we call upon you in the great battle of sustenance and advancement. When the people march on in the battle of the brave, then on the decisive day give us the blazing passion of your force and protection to victory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a king and his subjects deal with one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! showing strength we, your people call on you and tell about our condition in the great battle where heroes are divided. Hear our prayers or requests. Against those who come to us at the time of the battle, in the day which is to be preserved, give us strong protection.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the bounden duty of the kings to listen attentively to what the subjects say, so that there may not be a conflict between the rulers and the people and happiness may grow day by day.

    Foot Notes

    (वावृषाणा:) वृषं बलं कुर्वाणा: अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः । वृष-संभक्तौ (भ्वा) | = Showing strength. (शूरसातौ) शूराणाम् सातिविभागो यस्मिंस्तस्मिन्त्सङ्ग्रामे | = In the battle where the heroes are divided in two opposite camps. (पार्यें) पालयितव्ये । पू-पालन पूरणयोः (जु०) = To be preserved or supported.

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