ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
अपू॑र्व्या पुरु॒तमा॑न्यस्मै म॒हे वी॒राय॑ त॒वसे॑ तु॒राय॑। वि॒र॒प्शिने॑ व॒ज्रिणे॒ शंत॑मानि॒ वचां॑स्या॒सा स्थवि॑राय तक्षम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअपू॑र्व्या । पु॒रु॒ऽतमा॑नि । अ॒स्मै॒ । म॒हे । वी॒राय॑ । त॒वसे॑ । तु॒राय॑ । वि॒र॒प्शिने॑ । व॒ज्रिणे॑ । शम्ऽत॑मानि । वचां॑सि । आ॒सा । स्थवि॑राय । त॒क्ष॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपूर्व्या पुरुतमान्यस्मै महे वीराय तवसे तुराय। विरप्शिने वज्रिणे शंतमानि वचांस्यासा स्थविराय तक्षम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअपूर्व्या। पुरुऽतमानि। अस्मै। महे। वीराय। तवसे। तुराय। विरप्शिने। वज्रिणे। शम्ऽतमानि। वचांसि। आसा। स्थविराय। तक्षम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽहमासाऽस्मै महे वीराय तवसे तुराय विरप्शिने वज्रिणे स्थविरायाऽपूर्व्या पुरुतमानि शन्तमानि वचांसि तक्षं तथा यूयमप्यन्यानुपदिशत ॥१॥
पदार्थः
(अपूर्व्या) न विद्यते पूर्वो यस्मात् सोऽपूर्वस्तत्र भवानि (पुरुतमानि) अतिशयेन बहूनि (अस्मै) (महे) महते (वीराय) बलपराक्रमविद्यायुक्ताय (तवसे) बलाय (तुराय) क्षिप्रं कारिणे (विरप्शिने) प्रशंसिताय (वज्रिणे) प्रशस्तशस्त्रास्त्रयुक्ताय (शन्तमानि) अतिशयेन कल्याणकराणि (वचांसि) वचनानि (आसा) मुखेन (स्थविराय) वृद्धाय (तक्षम्) उपदिशेयम् ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । विद्वद्भिः सदैव सर्वेभ्यः सत्योपदेशः कर्त्तव्यः येनातुलं सुखं जायेत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले बत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे मैं (आसा) मुख से (अस्मै) इस (महे) बड़े (वीराय) बल पराक्रम तथा विद्यायुक्त के लिये और (तवसे) बल के लिये (तुराय) शीघ्र कार्य करनेवाले तथा (विरप्शिने) प्रशंसित (वज्रिणे) प्रशंसित शस्त्र और अस्त्रों से युक्त (स्थविराय) वृद्धजन के लिये (अपूर्व्या) नहीं विद्यमान हैं पूर्व जिससे उसमें हुए (पुरुतमानि) अतिशय बहुत (शन्तमानि) अतीव कल्याण करनेवाले (वचांसि) वचनों का (तक्षम्) उपदेश करूँ, वैसे आप लोग भी अन्यों को उपदेश दीजिये ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि सदा ही सब के लिये सत्य उपदेश करना चाहिये, जिससे अतुल सुख होवे ॥१॥
विषय
स्तुत्य, महान् इन्द्र का उपस्तवन ।
भावार्थ
मैं (अस्मै ) इस ( महे ) महान् ( तवसे ) बलवान् ( तुराय ) वेग से कार्य करने वाले, अप्रमादी, ( वीराय ) विविध ज्ञानों के उपदेष्टा, विविध शत्रुओं को कम्पित करने वाले, ( विरप्शिने) अति प्रशस्त, विशेष रूप से, और विविध प्रकारों से स्तुति के योग्य, ( वज्रिणे ) शक्तिशाली, ( स्थविराय ) स्थिर, वृद्ध, कूटस्थ प्रभु के ( अपूर्व्या ) अपूर्व, सबसे आदि, परम पुरुष के योग्य ( पुरुतमानि ) अति श्रेष्ठ, बहुत से ( शं-तमानि ) अति शान्तिदायक, (वचांसि ) वचनों को मैं ( आसा ) मुख से (तक्षम् ) उच्चारण किया करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ भुरिक पंक्ति: । २ स्वराट् पंक्ति:। ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पुरुतमानि शन्तमानि [वचांसि]
पदार्थ
[१] (अस्मै) = इस प्रभु के स्तवन के लिये (आसा) = मुख से (वचांसि) = स्तुति-वचनों को (तक्षम्) = करता हूँ। जो स्तुति-वचन (अपूर्व्या) अद्भुत हैं, सृष्टि के प्रारम्भ में प्राप्त कराये गये हैं। (पुरुतमानि) = जीवन का आदर्श दिखलाने के द्वारा जो हमारा अधिक से अधिक पालन व पूरण करनेवाले हैं। (शन्तमानि) = मन में शान्ति को उत्पन्न करनेवाले हैं। [२] उस प्रभु के लिये हम इन स्तुति वचनों का उच्चारण करते हैं जो (महे) = महान् हैं, (वीराय) = हमारे शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले हैं। तवसे बलवान् हैं। तुराय हमारे अन्दर आ जानेवाली सब बुराइयों का संहार करनेवाले हैं। (विरप्शिने) = महान् हैं अथवा विशिष्ट ज्ञान को हृदयस्थरूपेण उच्चारित करनेवाले हैं। (वज्रिणे) = वज्रहस्त हैं तथा (स्थविराय) = अत्यन्त पुराण सनातन पुरुष हैं इनके लिये स्तुतिवचनों का उच्चारण करता हुआ मैं उन बातों को अपने जीवन में लाने के लिये यत्नशील होता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ— मैं प्रभु के नामों का उच्चारण करता हूँ और अपना पालन व पूरण करता हुआ शान्ति का अनुभव करता हूँ ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, विद्वान व राजाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांनी सदैव सर्वांसाठी सत्याचा उपदेश करावा व अतुल सुख प्राप्त करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let me compose an original and comprehensive song of praise in my own, words in a state of peace overflowing with reverence in honour of this great hero, Indra, mighty performer of action, admirable wielder of the thunderbolt of justice and punishment, unshakable embodiment of tranquillity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened persons do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as I utter with my lips unprecedented, most plentiful and auspicious words for this mighty, prompt admirable, great, strong energetic and old wielder of the thunderbolt like powerful weapon, so you should preach to others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons should always preach truth to all, so that there may grow unparalleled happiness.
Foot Notes
(विरप्शिने) प्रशंसिताय । विरप् व्यग्करया वात्ति (भ्वा.) यस्थविषये विविष्टा व्यक्ता वाक् प्रशंसात्यि कासः प्रशांसर्तोविरप्शी । तस्माद् विरप्शीति महन्नाम (NG 3, 3)। = Admired by all. (तवसे) बलाय । तव इति बलनाम (NG 2,9)। = Mighty.
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