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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शुनहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    य ओजि॑ष्ठ इन्द्र॒ तं सु नो॑ दा॒ मदो॑ वृषन्त्स्वभि॒ष्टिर्दास्वा॑न्। सौव॑श्व्यं॒ यो व॒नव॒त्स्वश्वो॑ वृ॒त्रा स॒मत्सु॑ सा॒सह॑द॒मित्रा॑न् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ओजि॑ष्ठः । इ॒न्द्र॒ । तम् । सु । नः॒ । दाः॒ । मदः॑ । वृ॒ष॒न् । सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिः । दास्वा॑न् । सौव॑श्व्यम् । यः । व॒नऽव॑त् । सु॒ऽअश्वः॑ । वृ॒त्रा । स॒मत्ऽसु॑ । स॒सह॑त् । अ॒मित्रा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ओजिष्ठ इन्द्र तं सु नो दा मदो वृषन्त्स्वभिष्टिर्दास्वान्। सौवश्व्यं यो वनवत्स्वश्वो वृत्रा समत्सु सासहदमित्रान् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ओजिष्ठः। इन्द्र। तम्। सु। नः। दाः। मदः। वृषन्। सुऽअभिष्टिः। दास्वान्। सौवश्व्यम्। यः। वनऽवत्। सुऽअश्वः। वृत्रा। समत्ऽसु। ससहत्। अमित्रान् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ नृपः किं कृत्वा किं कारयेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वृषन्निन्द्र ! य ओजिष्ठो मदः स्वभिष्टिर्दास्वान् स त्वं नः सौवश्व्यं सु दाः। यः स्वश्वः सन् वृत्रा वनवत् समत्स्वमित्रान्त्सासहत् तं वयं सत्कुर्याम ॥१॥

    पदार्थः

    (यः) (ओजिष्ठः) अतिशयेन बली (इन्द्र) ऐश्वर्यप्रद (तम्) (सु) (नः) (अस्मभ्यम्) (दाः) देहि (मदः) हर्षितः (वृषन्) तेजस्विन् (स्वभिष्टिः) सुष्ठ्वभिनता सङ्गतिर्यस्य सः (दास्वान्) दाता (सौवश्व्यम्) शोभनेष्वश्वेषु महत्सु पदार्थेषु वा भवम् (यः) (वनवत्) याचते (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (वृत्रा) धनानि (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (सासहत्) भृशं सहते (अमित्रान्) शत्रून् ॥१॥

    भावार्थः

    योऽभयदाता सङ्ग्रामेषु विजेता स्वं बलमहर्निशं वर्धयति स एव सर्वान् सुखयितुमर्हति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले तेंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ किया जाता है उसके प्रथम मन्त्र में राजा क्या करके क्या करावे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वृषन्) तेजस्वी (इन्द्र) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (यः) जो (ओजिष्ठः) अतिशय बली (मदः) हर्षित हुए (स्वभिष्टिः) अच्छी सङ्गतिवाले (दास्वान्) दाता वह आप (नः) हम लोगों के लिये (सौवश्व्यम्) सुन्दर घोड़ों और बड़े पदार्थों में हुए को (सु) उत्तम प्रकार (दाः) दीजिये और (यः) जो (स्वश्वः) अच्छे घोड़ोंवाला हुआ (वृत्रा) धनों की (वनवत्) याचना करता है तथा (समत्सु) संग्रामों में (अमित्रान्) शत्रुओं को (सासहत्) अत्यन्त सहता है (तम्) उसका हम लोग सत्कार करें ॥१॥

    भावार्थ

    जो अभय देनेवाला और सङ्ग्रामों में जीतनेवाला तथा दिन-रात अपने बल को बढ़ाता है, वही सब को सुखी करने को योग्य है ॥१॥

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    विषय

    उत्तम उदार, बलवान् राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! ( यः ) जो तू (ओजिष्ठ: ) सब से अधिक पराक्रमी, (मदः) अतिहर्ष युक्त, ( सु-अभिष्टिः ) उत्तम आदरणीय रूप से प्राप्त, ( दास्वान् ) उत्तम दानों का दाता है, और (यः) जो तू ( सु-अश्वः ) उत्तम अश्व सैन्यों का स्वामी है, हे ( वृषन् ) बलवन् ! हे उत्तम प्रबन्धकर्त्तः ! वह तू ( नः ) हमें ( तम् ) उस नाना ऐश्वर्य हर्ष आदि को प्रदान कर । वह तू ( सौवश्व्यं ) उत्तम अश्व सैन्य के कारण प्राप्त होने योग्य यश को ( वनवत् ) प्राप्त कर, तू (समत्सु ) संग्रामों में ( वनवत् ) विघ्नों का नाश करे, और धनों को प्राप्त करे, और (अमित्रान् ससहत् ) शत्रुओं का पराजय करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनहोत्र ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः - १, २, ३ निचृत्पंक्ति: । ४ भुरिक्पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'ओजिष्ठ-मद-स्वभिष्टि-दास्वान्' सन्तान

    पदार्थ

    [१] हे (वृषन्) = सब कामनाओं का वर्षण करनेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यः) = जो सन्तान (ओजिष्ठ:) = खूब ओजस्विता व बलवत्तम है, (मदः) = मादयिता-आनन्दित करनेवाला है, (स्वभिष्टिः) = शोभनाभ्येषण है- अच्छी प्रकार शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला है तथा (दास्वान्) = हवियों को देनेवाला है, (तम्) = उस पुत्र को (तः) = हमारे लिये (सु) = [सुष्टु] अच्छी प्रकार (दाः) = दीजिये । [२] उस पुत्र को दीजिये जो (स्वश्वः) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला होता हुआ (सौवश्व्यम्) = उत्तम इन्द्रियाश्व समूह को (वनवत्) = जीतता है [वन् = win] तथा (समत्सु) = संग्रामों में (अमित्रान्) = शत्रुभूत (वृत्रा) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (सासहत्) = अतिशयेन अभिभूत करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे सन्तान बलवान्, अपनी क्रियाओं से आनन्दित करनेवाले, शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले व दानशील हों। ये वासनाओं को विनष्ट करनेवाले हों ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, राजा व प्रजेचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जो अभयदाता असून युद्धात विजेता असतो व अहर्निश आपले बल वाढवितो तोच सर्वांना सुखी करतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of honour and excellence, ruler most illustrious, generous, victorious and beneficent, inspired with ardent passion, give us that stormy force of dynamic action for achievement which, equipped with instant and unfailing capability, may fight out the unfriendly powers of darkness in the contests of life and win the wealths of high value in the world for our cherished goal.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do and urge others to do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O giver of prosperity ! you who are the mighty, delighted and splendid, worthy of association and liberal donor, give us the joy of horses or great articles. We honor you, who are possessor of good horses trying to acquire wealth of all kinds and subdues his foes in battles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He alone can make all happy, who is giver of fearlessness, conqueror in battles and who increases his strength every day.

    Foot Notes

    (स्वभिष्टिः) सुष्ठु वभिनता सङ्गतिर्यस्य सः । सु + अभि + इष्टि: इष्टि । यज-देवपूजा संगति करण दानेषु (भ्वा.) अत्र संगतिकरणार्थं |= Whose association is good. ( वृषन् ) तेजस्विन् । वृष-शक्तिबन्धने (चुरा.) = Full of splendor. (सोवश्व्यम्) शोभनेष्वश्वेषु महत्सु पदार्थेषु वा भवम् । अश्व इति महन्नाम (महर्षि दयानन्देय ॠ 4,79) भाष्ये अन्यत्र चनिघण्टोर संगत: पाठ 3,6 । = Related to good horses or great articles. (समत्सु) सङ्ग्रामेषु । समस्तु इति संग्राम नाम (NG 2, 17 ) = In battles. (वृत्ना) धनानि । वृतम् इति धननाम (NG 2, 10 ) = Wealth is desired from.

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