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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नरः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒त्रा मदा॑स॒स्तव॑ वि॒श्वज॑न्याः स॒त्रा रायोऽध॒ ये पार्थि॑वासः। स॒त्रा वाजा॑नामभवो विभ॒क्ता यद्दे॒वेषु॑ धा॒रय॑था असु॒र्य॑म् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्रा । मदा॑सः । तव॑ । वि॒श्वऽज॑न्याः । स॒त्रा । रायः॑ । अध॑ । ये । पार्थि॑वासः । स॒त्रा । वाजा॑नाम् । अ॒भ॒वः॒ । वि॒ऽभ॒क्ता । यत् । दे॒वेषु॑ । धा॒रय॑थाः । असु॒र्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्रा मदासस्तव विश्वजन्याः सत्रा रायोऽध ये पार्थिवासः। सत्रा वाजानामभवो विभक्ता यद्देवेषु धारयथा असुर्यम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्रा। मदासः। तव। विश्वऽजन्याः। सत्रा। रायः। अध। ये। पार्थिवासः। सत्रा। वाजानाम्। अभवः। विऽभक्ता। यत्। देवेषु। धारयथाः। असुर्यम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजा कीदृशो भूत्वा किं धरेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! तव ये विश्वजन्याः सत्रा मदासस्सत्रा रायस्सत्रा पार्थिवासो वाजानां सत्रा विभक्ता सन्ति तेषां त्वं धारकोऽभवोऽध यद्देवेष्वसुर्यमस्ति तद्धारयथाः ॥१॥

    पदार्थः

    (सत्रा) सत्याः (मदासः) आनन्दकाः (तव) (विश्वजन्या) विश्वानि जन्यानि सुखानि येषु ते (सत्रा) सत्यानि (रायः) धनानि (अध) अथ (ये) (पार्थिवासः) पृथिव्यां विदिताः (सत्रा) सत्याः (वाजानाम्) अन्नादीनाम् (अभवः) भव (विभक्ता) विभागं प्राप्ताः (यत्) (देवेषु) विद्वत्सु (धारयथाः) (असुर्यम्) असुरेष्वविद्वत्सु भवम् ॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येऽत्र बुद्ध्यानन्दवर्धका विद्याधनादियोगाः विद्वत्सङ्गाः सन्ति तान् धृत्वा सत्याऽसत्योर्विभाजका भवन्तु ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले छत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा कैसा होकर क्या धारण करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (तव) आपके (ये) जो (विश्वजन्याः) सम्पूर्ण जन्य सुख जिनमें वे (सत्रा) सत्य (मदासः) आनन्द देनेवाले और (सत्रा) सत्य (रायः) धन (सत्रा) सत्य (पार्थिवासः) पृथिवी में विदित और (वाजानाम्) अन्न आदिकों के सत्य (विभक्ता) विभागों को प्राप्त हुए हैं उनके आप धारण करनेवाले (अभवः) हूजिये (अध) इसके अनन्तर (यत्) जो (देवेषु) विद्वानों में (असुर्यम्) अविद्वानों में हुआ है, उसको (धारयथाः) धारण कराइये ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो इस संसार में बुद्धि और आनन्द के बढ़ानेवाले, विद्या और धनादि से युक्त और विद्वानों के साथ सत्सङ्ग करनेवाले हैं, उनको धारण करके सत्य और असत्य के विभाग करनेवाले हूजिये ॥१॥

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    विषय

    ऐश्वर्यों के न्यायानुसार विभक्त करने वाले अधिकार और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो तू ( देवेषु ) समस्त तेजस्वी पुरुषों के बीच में किरणों के बीच सूर्य के समान (असुर्यम्) सबके प्राणों के हितकारी बल, अन्नादि को (धारयथाः) धारण करता है, अतः तू (वाजानाम्) ऐश्वर्यो, अन्नों का ( सत्रा विभक्ता अभवः ) सत्यपूर्वक विभाग करने वाला हो । ( तव मदासः = दमासः ) तेरे समस्त हर्ष करने वाले कार्य और राष्ट्र दमनकारी उपाय ( सत्रा ) सदा वा सचमुच ( विश्व-जन्याः ) समस्त जनों के हितकारी हों। (अध ये) और जो ( पार्थिवासः रायः ) पृथिवी के ऊपर प्राप्त होने योग्य धनैश्वर्य हों वे भी ( सत्रा) सदा, सचमुच ( विश्वजन्याः ) सर्वजन हितकारी हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नर ऋषिः । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५ भुरिक् पंक्तिः । स्वराट् पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'आनन्द - धन-बल- तेज'

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (तव) = आपके (मदासः) = सोम-रक्षण द्वारा प्राप्त कराये गये आनन्द (सत्रा) = सचमुच (विश्वजन्याः) = सब मनुष्यों के लिये हितकर होते हैं। (अध) = अब (ये) = जो आप से दिये (पार्थिवासः रायः) = पार्थिव धन है वे भी सब मनुष्यों के लिये हितकर होते हैं । [२] (सत्रा) = सचमुच (वाजानाम्) = शक्तियों के (विभक्ता) = हमारे लिये देनेवाले होते हैं । (यद्) = जो (देवेषु) = देवों में (असुर्यम्) = बल है, उसे (धारयथा:) = आप ही धारण करते हैं। सूर्यादि में आपका ही हैं, तेजस्वी पुरुषों में भी आपका ही तेज है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही 'आनन्दों- धनों-शक्तियों व तेजों' को प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, विद्वान, राजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! या जगात जे बुद्धी व आनंदवर्धक, विद्या व धन इत्यादींनी युक्त व विद्वानांबरोबरच सत्संग करणारे असतात त्यांच्या साह्याने सत्य व असत्याचा भेद जाणा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Truly all your joys and inspirations, Indra, are universal, meant for the world. Truly all your earthly wealth, power and honour is for all children of the earth. Truly you are the wielder and distributor of all forms of food and energy which you bear and bring forth in the divinities of nature and humanity as the very breath of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a king be and what should he uphold—is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! you are the upholder of all those true real things which, are beneficial to all and givers of happiness. You are upholder of true wealth of all kinds and all men on earth who are truthful. You are true or proper distributor of all food-grains and other articles. You uphold all strength of the enlightened persons which sustains vitality.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let men upholding those who are increasers of intellect and bliss, the combination of knowledge and wealth etc., and associations of the good persons, and be distinguishers between truth and falsehood.

    Foot Notes

    (विश्वाजन्या:) विश्वानि जन्यानि सुखानि येषु ते। = Beneficial to all men, givers of happiness to all. (सत्रा) सत्या: । सभा इति सत्यनाम (NG 3,10)। = True.

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