ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒न्द्रस्य॑ क॒वेर्दि॒व्यस्य॒ वह्ने॒र्विप्र॑मन्मनो वच॒नस्य॒ मध्वः॑। अपा॑ न॒स्तस्य॑ सच॒नस्य॑ दे॒वेषो॑ युवस्व गृण॒ते गोअ॑ग्राः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्द्रस्य॑ । क॒वेः । दि॒व्यस्य॑ । वह्नेः॑ । विप्र॑ऽमन्मनः । व॒च॒नस्य॑ । मध्वः॑ । अपाः॑ । नः॒ । तस्य॑ । स॒च॒नस्य॑ । दे॒व॒ । इषः॑ । यु॒व॒स्व॒ । गृ॒ण॒ते । गोऽअ॑ग्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्द्रस्य कवेर्दिव्यस्य वह्नेर्विप्रमन्मनो वचनस्य मध्वः। अपा नस्तस्य सचनस्य देवेषो युवस्व गृणते गोअग्राः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमन्द्रस्य। कवेः। दिव्यस्य। वह्नेः। विप्रऽमन्मनः। वचनस्य। मध्वः। अपाः। नः। तस्य। सचनस्य। देव। इषः। युवस्व। गृणते। गोऽअग्राः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विदुषा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे देव ! त्वं वह्नेः कवेर्दिव्यस्य मन्द्रस्य विप्रमन्मनो मध्वो वचनस्य व्यवहारमपास्तस्य सचनस्य गृणते गोअग्रा इषश्च नो युवस्व ॥१॥
पदार्थः
(मन्द्रस्य) आनन्दत आनन्दयतः (कवेः) विदुषः (दिव्यस्य) कमनीयास्विच्छासु साधोः (वह्नेः) सकलविद्यानां वोढुरग्नेरिव (विप्रमन्मनः) विप्रस्य मन्म विज्ञानं यस्मिँस्तस्य (वचनस्य) (मध्वः) माधुर्य्यादिगुणोपेतस्य (अपाः) पाहि (नः) अस्मभ्यम् (तस्य) (सचनस्य) समवेतस्य (देव) परमविद्वन् (इषः) अन्नादीनिच्छा वा (युवस्व) संयोजय (गृणते) स्तुवते (गोअग्राः) गौर्वागग्रा उत्तमा यासु ताः ॥१॥
भावार्थः
हे विद्वँस्त्वमेव प्रयत्नं विधेहि यतोऽस्मान् दिव्यं सुखं दिव्यविद्या दिव्यमैश्वर्यं चाप्नुयात् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले उनचालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (देव) अत्यन्त विद्वन् ! आप (वह्नेः) सम्पूर्ण विद्याओं के धारण करनेवाले अग्नि के सदृश (कवेः) विद्वान् और (दिव्यस्य) सुन्दर इच्छाओं में श्रेष्ठ (मन्द्रस्य) आनन्दित होते और आनन्दित करते हुए (विप्रमन्मनः) विद्वान् का विज्ञान जिसमें उस (मध्वः) माधुर्य आदि गुण से युक्त (वचनस्य) वचन के व्यवहार का (अपाः) पालन करिये और (तस्य) उस (सचनस्य) सम्बद्ध हुए की (गृणते) स्तुति करते हुए के लिये (गोअग्राः) वाणी उत्तम जिनमें उन (इषः) अन्न आदि वा इच्छाओं को (नः) हम लोगों के लिये (युवस्व) संयुक्त कीजिये ॥१॥
भावार्थ
हे विद्वन् ! आप ऐसा प्रयत्न करिये, जिससे हम लोगों को दिव्य सुख, दिव्य विद्या और दिव्य ऐश्वर्य्य प्राप्त होवे ॥१॥
विषय
ज्ञानप्राप्ति का उपदेश ।
भावार्थ
गुरु शिष्य प्रकरण । हे (देव) विद्या की अभिलाषा करने हारे विद्यार्थिन् ! तू ( गृणते ) उपदेश करने वाले गुरु के ( गो-अग्राः इषः ) उत्तम वाणियों से युक्त प्रेरणाओं अर्थात् उपदेशों को ( युवस्व ) प्राप्त कर और उस ( मन्द्रस्य ) स्तुति योग्य, ( कवेः ) क्रान्तदर्शी, ( दिव्यस्य ) ज्ञान प्रकाश में निष्ठ, ( वह्ने: ) विद्या को धारण करने वाले, ( विप्रमन्मनः) विद्वान् मेधावी पुरुष के मनन योग्य ज्ञान को धारण करने वाले, ( सचनस्य ) सत्संग योग्य ( मध्वः वचनस्य ) मधुर वचन का सार ( नः अपाः ) हमें भी पान करा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ३ विराट् त्रिष्टुप् । । २ त्रिष्टुप् । ४, ५ भुरिक् पंक्तिः ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सोमरक्षण-ज्ञान व अन्तः प्रेरणा श्रवण
पदार्थ
[१] हे (देव) = हमारे सब शत्रुओं को जीतने की कामना [विजिगीषा] वाले प्रभो ! आप (नः) = हमारे (तस्य) = उस (मध्वः) = सब भोजनों के सारभूत मधु, अर्थात् सोम [वीर्य शक्ति] का (अपः) = रक्षण करिये। जो (मन्द्रस्य) = मद व उल्लास का जनक है, (कवेः) = क्रान्तदर्शित्व को प्राप्त करानेवाला है, (दिव्यस्य) = दिव्यता को उत्पन्न करनेवाले है तथा (वह्नेः) = हमें लक्ष्य - स्थान पर पहुँचानेवाला है। [२] हमारे उस सोम को आप रक्षित करिये, जो (विप्रमन्मनः) = [विप्राः मन्मनः स्तोतारो यस्य] ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित होता (वचनस्य) = स्तुति के योग्य है और (सचनस्य) = सेव्य है। इस सोमरक्षण के साथ (गृणते) = स्तुति करनेवाले मेरे लिये (गो अग्रा:) = [गावो अग्रे यासां] ज्ञान की वाणियाँ जिनके अग्रभाग में हैं उन (इष:) = प्रेरणा को (युवस्व) = प्राप्त कराइये [संयोजय] । आपके अनुग्रह से मैं ज्ञान को प्राप्त करूँ और हृदयस्थ की प्रेरणाओं को सुनूँ । भावार्थ - प्रभु के अनुग्रह से [क] मैं सोम का रक्षण कर पाऊँ, [ख] ज्ञान-वाणियों को अपनानेवाला बनूँ तथा [ग] अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुनूँ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, विद्वान, सूर्य व राजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे विद्वाना ! तू असा प्रयत्न कर ज्यामुळे आम्हाला दिव्य सुख, दिव्य विद्या व दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Taste the honey sweet of the Word of this happy and blissful divine poet, celebrant of light, inspirer of passion and vision of wisdom, and friend of Divinity. O refulgent lord of generosity, protect and promote the brilliant and revealing Word of the poet, bless the servant of divinity with energy and sustenance and reveal the words of divinity for the celebrant.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should an enlightened person do- is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great scholar! you protect the dealing of the sweet words of the highly learned person, who is the conveyor of all sciences, purifier like the fire, good in noble desires, endowed with the knowledge of a genius and gladdening all. Give us (literally unite us with) for the admirer of that person, who is lovingly united with all, for the accomplishment of noble desires― good foodstuff and sweet speech.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person! you should endeavor in such a manner that we may attain divine happiness, divine knowledge and divine wealth.
Foot Notes
(वहनेः) सकल विद्यानां वोढरेग्नेरिव । वह-प्रापणे (भ्वा० ) । = Of the conveyor of all sciences, purifier like the fire. (विप्रमन्मनः) विप्रस्य मन्म विज्ञानं यस्मिस्तस्य । विप्र इति मेधाविनाम (NG 3,15) मत्र- ज्ञाने। = Of the person who is endowed with knowledge of a genius. (इषः) अन्नादीनिच्छा वा । इषम् इति अन्ननाम (NG 2,7 ) इषु-इच्छायाम (तुदा०)। = Food materials or noble desires.
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