ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
य आन॑यत्परा॒वतः॒ सुनी॑ती तु॒र्वशं॒ यदु॑म्। इन्द्रः॒ स नो॒ युवा॒ सखा॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । आ । अन॑यत् । प॒रा॒ऽवतः॑ । सुऽनी॑ती । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् । इन्द्रः॑ । सः । नः॒ । युवा॑ । सखा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम्। इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। आ। अनयत्। पराऽवतः। सुऽनीती। तुर्वशम्। यदुम्। इन्द्रः। सः। नः। युवा। सखा ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो युवेन्द्रः सुनीती परावतस्तुर्वशं यदुमाऽनयत् स नः सखा भवतु ॥१॥
पदार्थः
(यः) (आ) समन्तात् (अनयत्) (परावतः) दूरदेशादपि (सुनीती) शोभनेन न्यायेन (तुर्वशम्) हिंसकानां वशकरम् (यदुम्) प्रयतमानं नरम् (इन्द्रः) सर्वैश्वर्यप्रदो राजा (सः) (नः) अस्माकम् (युवा) शरीरात्मबलयुक्तः (सखा) मित्रम् ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयं तेन राज्ञा सह मैत्रीं कुरुत यस्सत्यन्यायेन दूरदेशस्थमपि विद्याविनयपरोपकारकुशलमाप्तं नरं श्रुत्वा स्वसमीपमानयति तेन राज्ञा सह सुहृदः सन्तो वर्त्तध्वम् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तेंतीस ऋचावाले पैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (युवा) शरीर और आत्मा के बल से युक्त (इन्द्रः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों का देनेवाला राजा (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः) दूर देश से भी (तुर्वशम्) हिंसकों को वश में करनेवाले (यदुम्) यत्न करते हुए मनुष्य को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) प्राप्त करावे (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम उस राजा के साथ मैत्री करो, जो सत्य न्याय से दूर देश में स्थित भी विद्या, विनय और परोपकार में कुशल, श्रेष्ठ मनुष्य को सुनकर अपने समीप लाता है, उस राजा के साथ मित्र हुए वर्त्ताव करो ॥१॥
विषय
सखा ईश्वर स्वामी ।
भावार्थ
( यः ) जो पुरुष ( परावतः ) दूर देश से भी ( तुर्वशं यदुम् ) हिंसक मनुष्यों को अथवा हिंसक सैन्यगण और यत्नशील प्रजावर्ग दोनों को, अथवा चारों पुरुषार्थों को चाहने वाले यत्नशील प्रजावर्ग को ( सुनीती ) उत्तम नीति, न्याय से ( आ अनयत् ) अच्छी प्रकार सत् मार्ग से ले जाता है, ( सः ) वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता, (युवा) बलवान् पुरुष ( नः सखा ) हमारा मित्र हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'युवा सखा' प्रभु
पदार्थ
[१] (यः) = जो (तुर्वशम् त्वरा) से इन्द्रियों को वश में करनेवाले (यदुम्) = यत्नशील पुरुष को गये [प्रतमानं नरम् द० १।५४।६] (परावतः) = सुदूरदेश से भी, धर्म मार्ग से बहुत दूर भी (सुनीती) = उत्तम नीति से, प्रणयन से (आनयत् पुनः) धर्म मार्ग पर ले आता है। (सः) = वही (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभु है। संसार के विषय अपनी चमक के कारण मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। पर यदि मनुष्य इन से आहत होकर प्रभु की शरण में आता है, तो प्रभु कितने भी भटके हुए उस मनुष्य को फिर धर्म-मार्ग पर ले आते हैं। हृदयस्थ प्रभु प्रेम से, पिता जैसे पुत्र के लिये प्रेरणा देते हैं। और इस पुकारनेवाले को धर्ममार्ग पर ले आते हैं। यह इन्द्रियों को वश में करनेवाला बनता है, सदा धर्ममार्ग पर चलने के लिये यत्नशील होता है । [२] ये प्रभु (नः) = हमारे (युवा) = बुराइयों को करनेवाले तथा अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले (सखा) = मित्र हैं। सच्चे मित्र का यही तो लक्षण होता है कि 'पापात् निवारयति, योजयते हिताय'।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे सच्चे मित्र हैं। वे हमें बुराइयों से दूर करते हैं और अच्छाइयों से हमें मिलाते हैं। उत्तम नीति से हमें वे धर्ममार्ग पर लानेवाले हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजनीती, धन जिंकणारे, मैत्री, वेद जाणणारे, ऐश्वर्याने युक्त, दाता, कारागीर व स्वामी यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! तुम्ही त्या राजाबरोबर मैत्री करा जो सत्य न्यायाने दूर देशात असलेल्या विद्या, विनय व परोपकार करण्यात कुशल असलेल्या श्रेष्ठ माणसाची कीर्ती ऐकून आपल्याजवळ आणतो, त्या राजाबरोबर मित्र बनून वागा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Indra, that eternal lord omnipotent, that youthful ruler, and that forceful leader, be our friend and companion so that he may lead the man of instant decision and action and the hardworking people on way to wisdom and right living even from far off distance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! let that prosperous king by your friend, who is giver of all wealth and endowed with his youthfulness (both physical and spiritual) and good policies or justice, brings a mighty-subduer of the violent men and ever industrious person, from afar.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should befriend only that king, who with his true justice brings highly learned persons from afar, with humility, and sense of welfare for all.
Foot Notes
(तुर्वशम्) हिन्सकानां यशकरम्। तुर्वी-हिन्सायाम् (भ्वा०) अथवा तूरी-गतित्वरणहिंसनयोः (दिवा.) अत्र-हिन्सानर्थकः। = Who can control violent persons. (यदुम् ) प्रवतर्मानं नरम् । यती- प्रयत्ने (भ्वा.) । = Industrious man.
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