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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वामिद्धि हवा॑महे सा॒ता वाज॑स्य का॒रवः॑। त्वां वृ॒त्रेष्वि॑न्द्र॒ सत्प॑तिं॒ नर॒स्त्वां काष्ठा॒स्वर्व॑तः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । हि । हवा॑महे । सा॒ता । वाज॑स्य । का॒रवः॑ । त्वाम् । वृ॒त्रेषु॑ । इ॒न्द्र॒ । सत्ऽप॑तिम् । नरः॑ । त्वाम् । काष्ठा॑सु । अर्व॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामिद्धि हवामहे साता वाजस्य कारवः। त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्वां काष्ठास्वर्वतः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। इत्। हि। हवामहे। साता। वाजस्य। कारवः। त्वाम्। वृत्रेषु। इन्द्र। सत्ऽपतिम्। नरः। त्वाम्। काष्ठासु। अर्वतः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः शिल्पविद्यामाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! कारवो नरो वयं त्वां हि वाजस्य साता हवामहे वृत्रेषु सत्पतिं त्वां हवामहेऽर्वतः सारथिरिव त्वां काष्ठास्विद्धवामहे ॥१॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) (इत्) एव (हि) (हवामहे) (साता) विभागे (वाजस्य) विज्ञानस्य (कारवः) कारकराः (त्वाम्) (वृत्रेषु) धनेषु (इन्द्र) (सत्पतिम्) सतां पालकम् (नरः) (त्वाम्) (काष्ठासु) दिक्षु (अर्वतः) अश्वानिव ॥१॥

    भावार्थः

    हे धनाढ्य ! यदि त्वमस्माकं सहायो भवेस्तर्हि त्वद्धनेन वयं शिल्पविद्ययाऽनेकान् पदार्थान् रचयित्वा त्वामधिकं धनाढ्यं कुर्याम ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब चौदह ऋचावाले छयालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर शिल्पविद्या को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त जन ! (कारवः) कारीगर (नरः) जन हम लोग (त्वाम्) आपको (हि) ही (वाजस्य) विज्ञान के (साता) विभाग में (हवामहे) ग्रहण करें और (वृत्रेषु) धनों में (सत्पतिम्) श्रेष्ठों के पालनेवाले (त्वाम्) आपको पुकारें तथा (अर्वतः) घोड़ों को जैसे सारथी, वैसे (त्वाम्) आपको (काष्ठासु) दिशाओं में (इत्) ही पुकारें ॥१॥

    भावार्थ

    हे धन से युक्त ! जो आप हम लोगों के सहायक होवें तो आपके धन से हम लोग शिल्पविद्या से अनेक पदार्थों को रचकर आपको बड़ा धनी करें ॥१॥

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    विषय

    प्रभु सत्पति का अह्वान ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! (कारव:) विद्वान् और शिल्पीजन, ( वाजस्य साता ) धन और बल के प्राप्त करने के लिये ( त्वाम् इत् हि हवामहे ) तुझ को ही आदर से पुकारते एवं तेरा आश्रय ग्रहण करते हैं । ( वृत्रेषु ) विघ्नकारी शत्रुओं के बीच में भी ( सत्पतिं त्वाम् ) सत्पुरुषों के पालक तुझको ही पुकारते हैं । और ( नरः ) नायक पुरुष भी ( अर्वतः काष्ठासु ) अश्वों को दूर दिशाओं के देशों तक पहुंचाने के लिये सारथि के समान अध्यक्ष तुझको ही प्राप्त करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रः प्रगाथं वा देवता । छन्दः - १ निचृदनुष्टुप् । ५,७ स्वराडनुष्टुप् । २ स्वराड् बृहती । ३,४ भुरिग् बृहती । ८, ९ विराड् बृहती । ११ निचृद् बृहती । १३ बृहती । ६ ब्राह्मी गायत्री । १० पंक्ति: । १२,१४ विराट् पंक्ति: ।। चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु के आराधन के लाभ

    पदार्थ

    [१] (कारवः) = कुशलता से कार्यों को करनेवाले स्तोता लोग (वाजस्य सातौ) = शक्ति की प्राप्ति के निमित्त (त्वां इत् हि) = आपको ही (हवामहे) = पुकारते हैं। आप ही सब शक्तियों के देनेवाले हैं। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (वृत्रेषु) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं के विनाश के निमित्त (सत्पतिम्) = सज्जनों के रक्षक (त्वाम्) = आपको पुकारते हैं तथा (अर्वतः) = अश्व सम्बन्धिनी (काष्ठासु) = [ race ground] पलायन भूमियों में, (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्य (त्वाम्) = आपको पुकारते हैं । इन्द्रियाँ जब अपने मार्गों पर गति करती हैं तो नर प्रभु का ही स्मरण करते हैं, जिससे वे इन्द्रियाँ मार्गभ्रष्ट न हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का आराधन [१] हमें शक्ति देता है, [२] वासनाओं का विनाश करता है तथा [३] इन्द्रियों को मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा, वीर, युद्ध, गृह, शूरवीर व यान यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    हे धनवान लोकांनो ! जर तुम्ही आमचे सहायक व्हाल तर तुमच्या धनाने आम्ही शिल्पविद्येद्वारे अनेक पदार्थ निर्माण करून तुम्हाला अधिक धनवान करू. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and advancement, you alone we invoke and call upon for acquisition of food, energy, honour, excellence and progress. All of us, leading people, makers, poets, artists, artisans and architects of the nation, fast advancing in all directions, invoke and exhort you, protector and promoter of universal truth and values in human struggles for light, goodness and generosity, and the wealth of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    "Something about technology-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wealthy person ! we artists and artisans call you on the occasion of the division (proper utilization or application) of the scientific knowledge. We call on you, who are a good master on earning wealth. Like a charioteer for his horses, we call on you in all directions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O wealth person ! if you are our helper or patron, with the help of the wealth given by you, we may make you richer by manufacturing many articles with technology.

    Foot Notes

    (वाजस्य) विज्ञानस्य । वज-गतौ अत्रगतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थं ग्रहणम्। = Of the scientific knowledge. (काष्ठासु) दिक्षु । काष्ठा: इति दिङ्नाम (NG 1, 6)। = In all directions. (वृत्रेषु) धनेषु । वृत्रम् इति धननाम ( NG 2, 10 ) । = In many kinds of wealth.

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