ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हु॒वे वः॑ सू॒नुं सह॑सो॒ युवा॑न॒मद्रो॑घवाचं म॒तिभि॒र्यवि॑ष्ठम्। य इन्व॑ति॒ द्रवि॑णानि॒ प्रचे॑ता वि॒श्ववा॑राणि पुरु॒वारो॑ अ॒ध्रुक् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठहु॒वे । वः॒ । सू॒नुम् । सह॑सः । युवा॑नम् । अद्रो॑घऽवाचम् । म॒तिऽभिः॑ । यवि॑ष्ठम् । यः । इन्व॑ति । द्रवि॑णानि । प्रऽचे॑ताः । वि॒श्वऽवा॑राणि । पु॒रु॒ऽवारः॑ । अ॒ध्रुक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हुवे वः सूनुं सहसो युवानमद्रोघवाचं मतिभिर्यविष्ठम्। य इन्वति द्रविणानि प्रचेता विश्ववाराणि पुरुवारो अध्रुक् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठहुवे। वः। सूनुम्। सहसः। युवानम्। अद्रोघऽवाचम्। मतिऽभिः। यविष्ठम्। यः। इन्वति। द्रविणानि। प्रऽचेताः। विश्वऽवाराणि। पुरुऽवारः। अध्रुक् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः किं ग्राह्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः प्रचेताः पुरुवारोऽध्रुग् विश्ववाराणि द्रविणानीन्वति तं मतिभिः सह वर्त्तमानं सहसः सूनुं युवानमद्रोघवाचं यविष्ठं वो हुवे ॥१॥
पदार्थः
(हुवे) आदद्मि (वः) युष्मभ्यम् (सूनुम्) अपत्यम् (सहसः) बलस्य (युवानम्) प्राप्तयौवनम् (अद्रोघवाचम्) अद्रोघा द्रोहरहिता वाग्यस्य तम् (मतिभिः) मनुष्यैः प्रज्ञाभिर्वा (यविष्ठम्) अतिशयेन युवानम् (यः) (इन्वति) व्याप्नोति (द्रविणानि) द्रव्याणि (प्रचेताः) प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य सः (विश्ववाराणि) विश्वैः सर्वैर्वरणीयानि (पुरुवारः) बहुभिर्वृतः स्वीकृतः (अध्रुक्) यो न द्रुह्यति ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! युष्माभिर्ये पक्षपातरहितवादा द्रोहरहिता बुद्धिमतां सङ्गसेविनो बहुभिर्विद्वद्भिः पूजिता ब्रह्मचर्य्येण पूर्णयुवावस्था विद्वांसः स्युस्तेषामेवोपदेशो ग्रहीतव्यः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले पाँचवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (प्रचेताः) उत्तम बुद्धियुक्त (पुरुवारः) बहुतों से स्वीकार किया गया (अध्रुक्) नहीं द्रोह करनेवाला जन (विश्ववाराणि) सम्पूर्ण जनों से स्वीकार करने योग्य (द्रविणानि) द्रव्यों को (इन्वति) व्याप्त होता है उस (मतिभिः) मनुष्यों वा बुद्धियों के सहित वर्त्तमान (सहसः) बल के (सूनुम्) सन्तान (युवानम्) युवावस्था को प्राप्त (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहितवाणी जिसकी ऐसे (यविष्ठम्) अतिशय युवावस्था को प्राप्त हुए को (वः) आप लोगों के लिये मैं (हुवे) ग्रहण करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोगों को चाहिये कि जो पक्षपात से रहित वादयुक्त, द्रोह से रहित और बुद्धिमानों के सङ्ग का सेवन करनेवाले और बहुत विद्वानों से आदर किये गये और और ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण युवावस्थावाले विद्वान् हों, उन्हीं का उपदेश ग्रहण करें ॥१॥
विषय
उत्तम राजा का वर्णन । उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! ( यः ) जो ( प्रचेताः ) उत्तम चित्त और ज्ञान वाला, ( पुरु-वारः ) बहुत से प्रजाजनों वा सदस्यों से वरण करने योग्य, (अध्रुक्) किसी से द्रोह न करने हारा होकर ( विश्व-वाराणि ) समस्त लोकों से स्वीकार करने योग्य ( द्रविणानि ) ऐश्वर्यो और ज्ञानों को ( इन्वति ) प्रदान करता है ऐसे ( अद्रोघवाचम् ) द्रोह रहित, प्रेम युक्त हितकारी वाणी बोलने हारे ( मतिभिः यविष्ठम् ) उत्तम प्रज्ञाओं से युक्त और बुद्धिमान्, बलवान् पुरुष को ( वः ) आप लोगों के लिये, वा आप लोगों में से ही ( सहसः सूनुम् ) बल के सञ्चालक और उत्पादक ( हुवे ) होने की प्रार्थना करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्ति: ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'पुरुवार अधुक्' प्रभु
पदार्थ
[१] मैं (सहसः सूनुम्) = बल के पुञ्ज प्रभु को (हुवे) = पुकारता हूँ। उन प्रभु को पुकारता हूँ जो कि (युवानम्) = मेरे साथ अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाले व सब बुराइयों का अमिश्रण करनेवाले हैं। (अद्रोघवाचम्) = जिनकी वाणी द्रोहशून्य है। (मतिभिः यविष्ठम्) = बुद्धियों के द्वारा बुराइयों को अधिक से अधिक दूर करनेवाले हैं। [२] (यः) = जो प्रभु (प्रचेता) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं और (विश्ववाराणि) = सब से वरने के योग्य (द्रविणानि) = धनों को (वः) = तुम्हारे लिये (इन्वति) = प्रेरित करते हैं, अर्थात् यज्ञशील पुरुषों को इन वरणीय धनों को प्रभु ही प्राप्त कराते हैं। (पुरुवारः) = [पुरुश्च, वारश्च] वे प्रभु पालन व पूरण करनेवाले हैं और हमारे सब पापों व कष्टों का वारण करनेवाले हैं। (अधुक्) = वे प्रभु द्रोहशून्य हैं। सब का भला चाहनेवाले प्रभु ही सम्भजनीय हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही ज्ञान द्वारा हमारी सब मलिनताओं को धो देनेवाले व वरणीय धनों को प्राप्त करानेवाले हैं ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे भेदभावरहित, द्रोहरहित, बुद्धिमानाच्या संगतीचा स्वीकार करणारे, पुष्कळ विद्वानांकडून सन्मान केलेले, ब्रह्मचर्यपूर्वक युवावस्था प्राप्त केलेले विद्वान असतील तर त्यांचा उपदेश स्वीकारा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For you all, I invoke and invite Agni, giver of strength and forbearance, young, sweet and loving of speech free from malice, most youthful, wise and all aware, cherished friend of all without jealousy, who creates, inspires, invigorates and brings us gifts of universal value and drives away the evils.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men take or accept is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! I invoke for your guidance. You are a man who is endowed with exalted knowledge or wisdom, accepted by many, devoid of malice youthful, most energetic, son of a mighty person and whose speech is free from all kinds of animosity; and who obtains all objects desired by all. You are surrounded by wise men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should take sermons from only such persons who are impartial, devoid of malice, associating themselves with wise men, adored by many highly learned persons and youthful (energetic) by the observance of Brahmacharya (continence).
Foot Notes
(इन्वति) व्याप्नोति । इति व्याप्तौ (भ्वा०) । = Pervades, obtains. (अघ्रुक्) यो न द्रुह्यति । अ + द्रह - जिघांसायाम् (दिवा० ) । = Free from malice. (मतिभि:) मनुष्यैः प्रज्ञाभिर्वा । मतय इति मेधाविनाम (NG 3, 15) = With wise men or intellects.
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