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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हु॒वे वो॑ दे॒वीमदि॑तिं॒ नमो॑भिर्मृळी॒काय॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निम्। अ॒भि॒क्ष॒दाम॑र्य॒मणं॑ सु॒शेवं॑ त्रा॒तॄन्दे॒वान्त्स॑वि॒तारं॒ भगं॑ च ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हु॒वे । वः॒ । दे॒वीम् । अदि॑तिम् । नमः॑ऽभिः । मृ॒ळी॒काय॑ । वरु॑णम् । मि॒त्रम् । अ॒ग्निम् । अ॒भि॒ऽक्ष॒दाम् । अ॒र्य॒मण॑म् । सु॒ऽशेव॑म् । त्रा॒तॄन् । दे॒वान् । स॒वि॒तार॑म् । भग॑म् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हुवे वो देवीमदितिं नमोभिर्मृळीकाय वरुणं मित्रमग्निम्। अभिक्षदामर्यमणं सुशेवं त्रातॄन्देवान्त्सवितारं भगं च ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हुवे। वः। देवीम्। अदितिम्। नमःऽभिः। मृळीकाय। वरुणम्। मित्रम्। अग्निम्। अभिऽक्षदाम्। अर्यमणम्। सुऽशेवम्। त्रातॄन्। देवान्। सवितारम्। भगम्। च ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वांसः किमर्थं किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथाऽहं नमोभिर्वोऽभिक्षदां मृळीकायाऽदितिं देवीं वरुणं मित्रमग्निमर्यमणं सुशेवं त्रातॄन् देवान् सवितारं भगं च हुवे तथैतानस्मदर्थं यूयमाह्वयत ॥१॥

    पदार्थः

    (हुवे) आह्वयाम्याददे वा (वः) युष्माकम् (देवीम्) देदीप्यमानां विदुषीम् (अदितिम्) अमातरम् (नमोभिः) सत्कारान्नादिभिः (मृळीकाय) सुखाय (वरुणम्) उदानमिवोत्कृष्टम् (मित्रम्) प्राण इव प्रियम् (अग्निम्) पावकम् (अभिक्षदाम्) ये भिक्षां न ददति तेषाम् (अर्यमणम्) न्यायकारिणम् (सुशेवम्) सुष्ठुसुखम् (त्रातॄन्) रक्षकान् (देवान्) विदुषः (सवितारम्) सत्कर्मसु प्रेरकं राजानम् (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (च) ॥१॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसः सुपात्रेभ्यो भिक्षां प्रददति सर्वान् पुरुषार्थिनः कृत्वैतदर्थं विदुषीं मातरं वरुणादींश्चाददति ते जगद्धितैषिणः सन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पन्द्रह ऋचावाले पचासवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन किसलिये क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं (नमोभिः) सत्कार और अन्नादिकों के साथ (वः) तुम लोगों के (अभिक्षदाम्) जो भिक्षा नहीं देते उनके (मृळीकाय) सुख के लिये (अदितिम्) जो माता नहीं उस (देवीम्) देदीप्यमान विदुषी वा (वरुणम्) उदान के समान सर्वोत्कृष्ट वा (मित्रम्) प्राण के समान प्यारे वा (अग्निम्) अग्नि तथा (अर्यमणम्) न्यायकारी और (सुशेवम्) सुन्दर सुखवाले जन को वा (त्रातॄन्) रक्षा करनेवाले व (देवान्) विद्वानों व (सवितारम्) सत्कर्मों में प्रेरणा देनेवाले राजा (भगम्, च) और ऐश्वर्य्य को (हुवे) बुलाता वा देता हूँ, वैसे इनको हमारे लिये तुम बुलाओ वा देओ ॥१॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जन सुपात्रों के लिये भिक्षा देते और सब को पुरुषार्थी कर उनके लिये विदुषी माता वा वरुण आदि को लेते हैं, वे जगत् के हितैषी हैं ॥१॥

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    विषय

    देवी अदिति ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो मैं (वः ) आप लोगों के ( मृडीकाय ) सुख के लिये ( अदितिम्) अदीन, अपराधीन, स्वतन्त्र, अखण्डित चरित्र चाली ब्रह्मचारिणी (देवीम् ) तेजस्विनी स्त्री को ( नमोभिः ) आदर सत्कारों सहित ( हुवे ) अपने यहां बुलाऊं, निमन्त्रित करूं । इसी प्रकार (वरुणं) दुःखों, कष्टों को वारण करने वाले ( मित्रम् ) स्नेहवान्, सुहृद् (अग्निम्) अग्रणी, तेजस्वी, ज्ञानी, (अभिक्ष-दाम्, अभि-क्षदाम् = अभिक्षदाम्) कुपात्र में भिक्षा न देने वाले वा शत्रुओं को उनके मुकाबले पर मारने चाले, ( अर्यमणं ) शत्रुओं को नियम में बांधने वाले, न्यायकारी, ( सुशेवं) उत्तम सुखदाता, ( सवितार ) सूर्यवत् तेजस्वी और उत्पादक पिता, माता, गुरु, और ( भगं ) सेवने योग्य ऐश्वर्यवान् पुरुष और ( त्रातृन् देवान ) पालक वीरजन और व्यवहार कुशल पुरुष को भी मैं ( नमोभिः हुवे ) आदर युक्त वचनों और सत्कारों से बुलाऊं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    वमाता व देवों का आह्वान

    पदार्थ

    [१] (वः) = तुम्हारे जीवन को (देवीम्) = प्रकाशमय बनानेवाली (अदितिम्) = अदीना देवमाता को (हुवे) = पुकारता हूँ। वस्तुत: ('अ-दितिम्') = अखण्डन स्वास्थ्य का अभंग ही सब दिव्य गुणों के विकास का आधार बनता है। इसी अदिति को मैं पुकारता हूँ, प्राप्त करने के लिये यत्नशील होता हूँ । (मृडीकाय) = सुख की प्राप्ति के लिये (वरुणम्) = द्वेष निवारण की देवता को (मित्रम्) = स्नेह की देवता को तथा (अग्निम्) = प्रगति की देवता को पुकारता हूँ। निर्देष व प्रेमय बनकर मैं निरन्तर आगे बढ़ता हूँ। यही तो सुख प्राप्ति का मार्ग है । [२] मैं सुख प्राप्ति के लिये (अभिक्षदाम्) = शत्रुओं के हिंसक (सुशेवम्) = उत्तम कल्याण को करनेवाले (अर्यमणम्) = [अरीन् यच्छति] काम-क्रोध आदि के नियन्ता देव को पुकारता हूँ। अन्य सब (त्रातॄन्) = रक्षा करनेवाले (देवान्) = देवों को, दिव्यभावों को (च) = तथा (सवितारं भगम्) = प्रेरक उपासनीय [भज सेवायाम्] प्रभु को पुकारता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं स्वस्थ बनूँ । निर्देषता, स्नेह व प्रगतिशीलतावाला मेरा जीवन हो । शत्रुहिंसक सुखकारी नियमन के भाव को प्रेरणा देनेवाले को, सब दिव्यगुणों को प्राप्त करने के लिये यत्नशील बनूँ । प्रेरक प्रभु की उपासना करूँ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विश्वदेवाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची यापूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे विद्वान सुपात्रांना भिक्षा (दान) देतात व सर्वांना पुरुषार्थी करून त्यांच्यासाठी विदुषी माता व वरुणला (सर्वश्रेष्ठ असणाऱ्याला) आमंत्रित करतात ते जगाचे हितकर्ते असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For your happiness and felicity I invoke, invite and honour with reverence and hospitality the Vishvedevas, powers and people of generous and divine nature : the brilliant mother scholar, the lady of exalted nature and character, and indestructible Aditi, Mother Nature, Varuna, udana energy of vitality and the man of elevating wisdom, Mitra, pranic energy and the friend dear as breath of life, Agni, fire and the man of passion and purity of action, Abhikshada, the generous person who is a spontaneous giver and fighter against adversity, Aryaman, the person who guides with judgement and discrimination between good and evil, the person committed to selfless service of the community, all noble and brilliant powers and people who help as saviours and path finders, Savita, giver of light and inspiration as the sun, Bhaga, lord of universal wealth and power, and the man who counts for the honour and excellence of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the learned persons do for whom―is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as I invite and accept for your welfare, with honor and food, a brilliant highly learned lady, mother of pure character, an exalted man like the Udana, friend who is dear like Prana (breath), Purifier like the fire, dispenser of justice, one who does not give alms to undeserving hypocrites, giver of good happiness. A king, who urges his subjects to do noble deeds, enlightened protector and prosperity, so you should also invite them for our welfare.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those enlightened persons, who give alms to deserving persons, having made all industrious, accept for that purpose highly learned women and mothers and scholars of the exalted type, are the well-wishers of the world.

    Foot Notes

    (अदितिम्) मातरम् । अदितिः -अदीना देवमाता (NKT 4, 4, 22) अदितिर्माता ( ऋ० 1, 89, 10 )। = Mother. (सवितारम्) सत्कर्मसु प्रेरकं राजानम् ।= King who urges all to do noble deeds. (नमोभिः) सत्कारान्नादिभिः । नम-प्रहृत्वे । नम इत्यन्नाम (NG 2, 7) । = With honor and food etc. Here अमातरम् appears to be a mistake. (Ed.)

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