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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उदु॒ त्यच्चक्षु॒र्महि॑ मि॒त्रयो॒राँ एति॑ प्रि॒यं वरु॑णयो॒रद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॒ शुचि॑ दर्श॒तमनी॑कं रु॒क्मो न दि॒व उदि॑ता॒ व्य॑द्यौत् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । त्यत् । चक्षुः॑ । महि॑ । मि॒त्रयोः॑ । आ । एति॑ । प्रि॒यम् । वरु॑णयोः । अद॑ब्धम् । ऋ॒तस्य॑ । शुचि॑ । द॒र्श॒तम् । अनी॑कम् । रु॒क्मः । न । दि॒वः । उत्ऽइ॑ता॑ । वि । अ॒द्यौ॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्यच्चक्षुर्महि मित्रयोराँ एति प्रियं वरुणयोरदब्धम्। ऋतस्य शुचि दर्शतमनीकं रुक्मो न दिव उदिता व्यद्यौत् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ऊँ इति। त्यत्। चक्षुः। महि। मित्रयोः। आ। एति। प्रियम्। वरुणयोः। अदब्धम्। ऋतस्य। शुचि। दर्शतम्। अनीकम्। रुक्मः। न। दिवः। उत्ऽइता। वि। अद्यौत् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशका ! यदि युष्मांस्त्यन्महि वरुणयोः प्रियं मित्रयोरदब्धमृतस्य शुचि दर्शतं दिव उदिता रुक्मो नाऽनीकं महि चक्षुर्व्यद्यौदा उदेति तर्हि भवन्ति उ विद्वांसो भवेयुः ॥१॥

    पदार्थः

    (उत्) (उ) (त्यत्) तत् (चक्षुः) चष्टेऽनेन तत् (महि) महत् (मित्रयोः) सुहृदोरध्यापकाऽध्येत्रोर्बाह्याभ्यन्तरस्थयोः प्राणयोर्वा (आ) (एति) (प्रियम्) यत्प्रीणाति तत् (वरुणयोः) उदान इव वर्त्तमानयोः (अदब्धम्) अहिंसितम् (ऋतस्य) सत्यस्य (शुचि) पवित्रम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (अनीकम्) सैन्यमिव कार्यसिद्धिप्रापकम् (रुक्मः) रोचमानस्सूर्यः (न) इव (दिवः) विद्युतः सकाशात् (उदिता) सूर्य्योदये (वि) (अद्यौत्) प्रकाशयति ॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः धर्मेण यानं प्राप्तुमिच्छन्ति ते सूर्यप्रकाशवत्प्राप्तविज्ञाना जायन्ते ये सत्यस्य पदार्थस्य विद्यामुन्नयन्ति ते सर्वत्र सत्कृता भवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सोलह ऋचावाले इक्यावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या चाहने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशको ! जो तुम लोगों को (त्यत्) वह उत्तम (महि) बड़ा वस्तु वा (वरुणयोः) उदान के समान वर्त्तमान दो सज्जनों का (प्रियम्) प्रिय पदार्थ वा (मित्रयोः) दो मित्रों का अध्यापक और अध्येताओं का वा शरीर के बाहर और भीतर रहनेवाला प्राण वायुओं का (अदब्धम्) अविनष्ट व्यवहार वा (ऋतस्य) सत्य का (शुचि) पवित्र (दर्शतम्) देखने योग्य (दिवः) बिजुली की उत्तेजना से (उदिता) सूर्योदयकाल में (रुक्मः) प्रकाशमान सूर्य के (न) समान (अनीकम्) सेना समूह के समान कार्यसिद्धि का पहुँचानेवाला (चक्षुः) जिससे देखते हैं वह (वि, अद्यौत्) विशेषता से प्रकाशित होता है (आ, उत्, एति) उत्कृष्टता से प्राप्त होता है तो आप लोग (उ) तर्क-वितर्क से विद्वान् होओ ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य धर्म से यान पाने की इच्छा करते हैं, वे सूर्य के प्रकाश के तुल्य विज्ञान को प्राप्त होते हैं, जो सत्य पदार्थ की विद्या की उन्नति करते हैं, वे सर्वत्र सत्कृत होते हैं ॥१॥

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    विषय

    मित्र रूप स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मित्रयोः वरुणयोः महि चक्षुः ऋतस्य दर्शतम्, अनीकं, दिवः रुक्मन्, उदिता वि अद्यौत्) मित्र, दिन, वरुण रात्रि इन दोनों में वह बड़ा, नेत्रवत् सूर्य प्रकाश दिखाने वाले मुख के समान और आकाश के स्वर्ण के समान, उदय काल में विशेष रूप से चमकता है उसी प्रकार ( मित्रयोः ) एक दूसरे को सदा प्रेम करने वाले ( वरुणयोः ) एक दूसरे का परस्पर वरण करने वाले, उत्तम वर वधू, दोनों की ( त्यत् ) वह ( महि ) बड़ी, ( प्रियं चक्षुः ) प्रिय, एक दूसरे को तृप्त और प्रसन्न करने वाली आंख ( अदब्धम् ) एक दूसरे से अहिंसित, अर्थात् अपीड़ित होकर विना बाधा के ( एति ) एक दूसरे को प्राप्त हो । वे दोनों सदा परस्पर प्रेम, आदर, उत्सुकता और निःसंकोच भाव से देखा करें । वह ( दर्शतम् ) देखने योग्य वा (ऋतस्य दर्शतम् ) सत्य ज्ञान को दिखाने वाली, ( शुचि ) पवित्र, निर्मल, निष्पाप, ( अनीकम् ) मुखवत् दर्शनीय, सैन्यवत् एक दूसरे का विजय करने वाली, चक्षु भी, ( दिवः रुक्मः न ) मानो कामनायुक्त कामिनी का स्वर्णमय आभूषण हो, ऐसे ( दिवः ) कामना करने वाली स्त्री के ( उदिता ) उद्गमन काल में ( रुक्मः ) रुचि अर्थात् अभिलाषाओं का ज्ञापक होकर ( वि अद्यौत् ) विविध भावों, विशेष सौहार्दों को प्रकट करे । अथवा – वह चक्षु, दर्शनीय शुद्ध पवित्र, मुख को आभूषणवत् प्रकाशित करे, इसी प्रकार परस्पर मित्र, और परस्पर के वरण करने वाले, अध्यापक शिष्य और राजा और प्रजावर्गों के आंखों में स्नेह आदि सदा विद्यमान हो, वह विवेकपूर्ण, सत्यज्ञान और न्याय के पवित्र सुन्दर मुख को उज्ज्वल करे । इसी प्रकार सत्यासत्य को दिखाने वाले नेत्र के तुल्य वेदज्ञ पुरुष भी सब स्त्री पुरुषों को प्रिय, अहिंसित, पवित्र, भूमि का भूषणवत्, सूर्यवत् तेजस्वी हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'द्युलोक का भूषण' सूर्य

    पदार्थ

    [१] सूर्य के प्रसंग में 'मित्र व वरुण' का भाव दिन व रात्रि से होता है। (त्यत्) = वह प्रसिद्ध (चक्षुः) = प्रकाशक (महि) = महान्, विस्तृत (मित्रयोः वरुणयोः) = दिन-रात्रि के लिये (प्रियम्) = प्रीतिकर (अदब्धम्) = अहिंसित शुचि शुद्ध (दर्शतम्) = दर्शनीय (ऋतस्य अनीकम्) = [ऋ गतौ] आदित्य का तेज (आ उदेति) = सब के अभिमुख उदित होता है, सूर्य के इस तेज के कारण ही दिन व रात्रि का होना होता है। यह सूर्य का तेज रोगकृमियों का संहार करता हुआ हमें हिंसित नहीं होने देता, सो 'अदब्ध' है। नीरोगता को उत्पन्न करनेवाला यह तेज 'शुचि' है । [२] (उदिता) = उदय होने पर (दिवः रुक्मः न) = द्युलोक के स्वर्ण भूषण के समान यह (व्यद्यौत्) = चमकता है। सूर्य द्युलोक का भूषण ही प्रतीत होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य का तेज अत्यन्त प्रीतिकर व हमें न हिंसित होने देनेवाला है। यह उदय हुआहुआ सूर्य द्युलोक का भूषण ही प्रतीत होता है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विश्वेदेवाच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जी माणसे धर्माने (चांगल्या नीतीने) यान प्राप्त करण्याची इच्छा करतात ती सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विज्ञान प्राप्त करतात व जी खऱ्या पदार्थाच्या विद्येची वृद्धी करतात त्यांचा सर्वत्र सत्कार होतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lo! the sun, that glorious eye of the universe, darling of the day and night, rises up undaunted, and like the pure, resplendent, golden face of heaven unveiled shines from the regions of eternal light.$(The sunrise is a metaphor which may be applied to the rise of any great light - giving power, say a great leader, giver of enlightenment, a teacher, a reformer, or a great movement.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men desire-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! if you obtain that eye of knowledge, which is dear to your friends-teachers and preachers, who are like Udāna (a vital energy) or two Pranas, one internal and the other external-uninjured or inviolable, and worth seeing vision of truth, like the resplendent sun at sun rise, born from electricity, accomplisher of many works like army- then you can become really enlightened.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men, who desire to have some vehicle with righteousness, become endowed with the light of knowledge like the sun. Those who propagate the science of true objects are honored everywhere.

    Foot Notes

    (मित्रयोः सुहृदोरध्यापकाऽध्येस्रोर्बाह्याभ्यन्तरस्थयोः प्राणयोर्वा । प्राणो वे मित्र: ( S. B. 8, 4, 2, 6) प्राणोदानौ मित्रा वरुणौ (S. B. 1, 8, 3, 12) तस्मात् उदानोवरुण । = Of two friends-teachers and preachers or internal and external Pranas (vital energies). (वरुणयोः) उदान इव वर्तमानयोः । = Those who are like Udāna. (अनीकम्) संन्यमिव कार्यसिद्धि प्रापकम् । = Accomplisher of works like army. (दिवः) विद्युतः सकाशात् । (दिवः) दिवुधातोद्धुंत्यर्थमादाय विद्युत् । = From electricity.

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