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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    एहि॒ वां वि॑मुचो नपा॒दाघृ॑णे॒ सं स॑चावहै। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ नो भव ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒हि॒ । वाम् । वि॒ऽमु॒चः॒ । न॒पा॒त् । आघृ॑णे । सम् । स॒चा॒व॒है॒ । र॒थीः । ऋ॒तस्य॑ । नः॒ । भ॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एहि वां विमुचो नपादाघृणे सं सचावहै। रथीर्ऋतस्य नो भव ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। इहि। वाम्। विऽमुचः। नपात्। आघृणे। सम्। सचावहै। रथीः। ऋतस्य। नः। भव ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कः सङ्गन्तव्य इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे आघृणे नपात् ! त्वं न ऋतस्य रथीर्भव न आ इहि, हे अध्यापकोपदेशकौ ! वामुक्तविद्वंस्त्वं विमुचस्त्वमहञ्च सं सचावहै ॥१॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (इहि) प्राप्नुहि (वाम्) युवाम् (विमुचः) मोचय (नपात्) यो न पतति सः (आघृणे) समन्ताद्देदीप्यमान (सम्) (सचावहै) सम्बध्नीयाव (रथीः) बहुरथवान् (ऋतस्य) सत्यस्य (नः) अस्मभ्यम् (भव) ॥१॥

    भावार्थः

    यो विद्वान् सत्यपालकः सत्योपदेष्टा भवेत्स श्रोता च सखायौ त्वा सत्यविद्यां प्राप्तौ भूत्वाऽन्यानपि प्रापयेताम् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले पचपनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में किसका संग करना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (आघृणे) सब ओर से देदीप्यमान (नपात्) जो नहीं गिरते वह आप (नः) हमारे लिये (ऋतस्य) सत्य के सम्बन्धी (रथीः) बहुत रथोंवाले (भव) हो तथा आप हम लोगों को (आ, इहि) प्राप्त होओ। हे अध्यापक और उपदेशको ! (वाम्) तुम दोनों को हे उक्त विद्वन् ! आप (विमुचः) छोड़ो तथा आप और मैं (सम्, सचावहै) सम्बन्ध करें ॥१॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् सत्य की पालना करनेवाला, सत्य का उपदेशक हो वह और सुननेवाला, मित्र होकर तथा सत्यविद्या को प्राप्त होकर औरों को भी विद्या को प्राप्त करावें ॥१॥

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    विषय

    पूषा राजा ।

    भावार्थ

    हे ( आ घृणे ) तेजस्विन् ! तू ( आ इहि ) हमें प्राप्त हो । हे ( नपात् ) कभी कुमार्ग में न जाने वाले ! तू ( वाम् ) हम दोनों को ( विमुचः ) विशेष रूप से दुःखों से मुक्त कर । हम ( सं सचावहै ) दोनों राजा प्रजा और स्त्री पुरुष परस्पर अच्छी प्रकार सम्बद्ध होकर रहें । तू ( नः ) हमारे (ऋतस्य ) सत्य व्यवहार, धन, यज्ञादि का ( रथी: ) रथवान् के समान सञ्चालक ( भव ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ५, ६ गायत्री । ३, ४ विराड् गायत्री ॥ षड्ज: स्वरः ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु स्मरण व यज्ञशीलता

    पदार्थ

    [१] हे (आधृणे) = सर्वतो दीप्त, (विमुचः नपात्) = अपने को विषयों से छुड़ानेवाले को न गिरने देनेवाले, विषय-व्यावृत्ति प्रवण पुरुष को बचानेवाले प्रभो ! मुझ (वाम्) = गतिशील को एहि प्राप्त होइये। (सं सचावहै) = आप और मैं संसक्त हो जायें, मिल जायें, कभी अलग न हों। मैं आपको कभी भूल न जाऊँ। [२] हे प्रभो ! (न) = हमारे (ऋतस्य) = यज्ञात्मक कर्मों के (रथी:) = नेता (भव) = होइये । आपके अनुग्रह से हमारे यज्ञात्मक कर्म सदा प्रवृत्त रहें। हम इन यज्ञों से आपका पूजन करते रहें।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं कभी प्रभु को भूल न जाऊँ । प्रभु के अनुग्रह से सदा यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहूँ ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जो विद्वान सत्यपालन करणारा, सत्याचा उपदेशक, श्रोता व मित्र आहे, त्याने सत्य विद्या प्राप्त करून इतरांनाही ती विद्या द्यावी. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Come resplendent spirit of freedom indestructible, be our guide and saviour as master and pilot of the chariot on the path of eternity and divine truth and we shall be ever together.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should be associated with-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O shining from all sides on account of good virtues, learned person! you who never fall down, come to us and be the driver of (the chariot of) truth. O scholar ! leave these teachers and preachers (to go to other places on their noble mission). Let me and yourself be united with love.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The scholar, who is observer of the vow of truth and preacher of truth and the hearer; should become friends and having acquired true knowledge, they should convey that to others also.

    Foot Notes

    (नपात्) यो ना पतति सः। = He who never falls down from the high standard of truth and justice. (आधृणे) समन्ताद्देदीप्यमान | आ-धू-क्षरणदीप्त्योः (जुहो.) अत्र दीप्त्यर्थः । = Shining from all sides, (on account of good virtues). (सचावहै) सम्बध्नीयाव । षच-समवाये (भ्वा.)। = Be united.

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