ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र नव्य॑सा॒ सह॑सः सू॒नुमच्छा॑ य॒ज्ञेन॑ गा॒तुमव॑ इ॒च्छमा॑नः। वृ॒श्चद्व॑नं कृ॒ष्णया॑मं॒ रुश॑न्तं वी॒ती होता॑रं दि॒व्यं जि॑गाति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नव्य॑सा । सह॑सः । सू॒नुम् । अच्छ॑ । य॒ज्ञेन॑ । गा॒तुम् । अवः॑ । इ॒च्छमा॑नः । वृ॒श्चत्ऽव॑नम् । कृ॒ष्णया॑मम् । रुश॑न्तम् । वी॒ती । होता॑रम् । दि॒व्यम् । जि॒गा॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र नव्यसा सहसः सूनुमच्छा यज्ञेन गातुमव इच्छमानः। वृश्चद्वनं कृष्णयामं रुशन्तं वीती होतारं दिव्यं जिगाति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। नव्यसा। सहसः। सूनुम्। अच्छ। यज्ञेन। गातुम्। अवः। इच्छमानः। वृश्चत्ऽवनम्। कृष्णयामम्। रुशन्तम्। वीती। होतारम्। दिव्यम्। जिगाति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनष्यैस्सन्तानः कथमुत्पादनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यज्ञेन गातुमव इच्छमानो नव्यसा सहसः सूनुं कृष्णयामं रुशन्तं वृश्चद्वनमिव वीती होतारं दिव्यमच्छा प्र जिगाति ॥१॥
पदार्थः
(प्र) (नव्यसा) अतिशयेन नवीनेन (सहसः) बलवतः (सूनुम्) अपत्यम् (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (यज्ञेन) सङ्गतिमयेन (गातुम्) पृथिवीम् (अवः) रक्षणम् (इच्छमानः) अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वृश्चद्वनम्) वृश्चच्छिन्दद् वनं यस्मिन् (कृष्णयामम्) कृष्णा कर्षिता यामा येन तम् (रुशन्तम्) हिंसन्तम् (वीती) वीत्या व्याप्त्या (होतारम्) दातारम् (दिव्यम्) शुद्धेषु व्यवहारेषु भवम् (जिगाति) गच्छति ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यूयं ब्रह्मचर्य्येण बलिष्ठा भूत्वा सन्तानान् जनयत यतोऽरोगाणि बलवन्ति सुशीलान्यपत्यानि भूत्वा युष्मान् सुखयेयुः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले छठे सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को सन्तान किस प्रकार करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यज्ञेन) सङ्गतिरूप यज्ञ से (गातुम्) पृथिवी और (अवः) रक्षण की (इच्छमानः) इच्छा करता हुआ (नव्यसा) अत्यन्त नवीन व्यवहार से (सहसः) बलवान् के (सूनुम्) सन्तान को और (कृष्णयामम्) आकर्षित किया मार्ग जिससे ऐसे (रुशन्तम्) हिंसा करते हुए (वृश्चद्वनम्) काटता है वन जिसमें उसके समान (वीती) व्याप्ति से (होतारम्) देनेवाले (दिव्यम्) शुद्धव्यवहारों में प्रकट हुए को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, जिगाति) प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! आप लोग ब्रह्मचर्य्य से बलिष्ठ होकर सन्तानों को उत्पन्न करो जिससे रोगरहित, बलयुक्त और उत्तम स्वभावयुक्त सन्तान होकर आप लोगों को निरन्तर सुखयुक्त करें ॥१॥
विषय
जिज्ञासु का ज्ञानोपदेष्टा, ज्ञानप्रद गुरु के समीप पहुंचना ।
भावार्थ
( नव्यसा ) अति नवीन, अति स्तुत्य ( यज्ञेन ) परस्पर के सम्बन्ध, या दान प्रतिदान द्वारा ( गातुम् ) सन्मार्ग और उत्तम भूमि और ( अवः ) रक्षा और ज्ञान प्राप्त करना ( इच्छन् ) चाहता हुआ जन ( सहसः सूनुम् ) बल के सम्पादक, वा सञ्चालक ( वृश्चद्-वनम् ) वनों को काट डालने में समर्थ परशु या अग्नि के समान तीक्ष्ण अज्ञान वा शत्रु के नाशक (कृष्ण-यामम् ) आकर्षण करने वाले, यम नियम-व्यवस्था-से सम्पन्न ( रुशन्तं ) अति तेजस्वी, ( होतारं ) ऐश्वर्य वा ज्ञान के दाता, ( दिव्यं ) कामना करने योग्य, पुरुष के पास (वीती ) इच्छापूर्वक ( अच्छ जिगाति ) जावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिटुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु उपासन से दिव्य जीवन की प्राप्ति
पदार्थ
(गातुम्) = मार्ग को तथा (अवः) = रक्षण को (इच्छमाना) = चाहता हुआ उपासक (नव्यसा यज्ञेन) = अतिशयेन प्रशस्य [नु स्तुतौ] यज्ञ से, श्रेष्ठतम कर्म से (सहसः सूनुं अच्छा) = उस बल के पुञ्ज प्रभु की ओर (प्रजिगाति)= प्रकर्षेण जाता है। प्रभु से ही तो वह उपासक रक्षण को प्राप्त करके मार्ग पर आगे बढ़ जायेगा । [२] उस प्रभु की ओर यह (वीती) = [वी असने] सब वासनाओं को परे फेंकने के हेतु से [प्रजिगाति=] प्रकर्षेण जाता है, जो (वृश्चद्वनम्) = वासना वन को काटनेवाले हैं। (कृष्णयामम्) = अत्यन्त आकर्षक नियमनवाले हैं, अर्थात् अपने उपासक को यम नियमों में चलानेवाले हैं । (रुशन्तम्) = देदीप्यमान हैं। (होतारम्) = सब कुछ देनेवाले हैं तथा (दिव्यम्) = हम अतिशयेन स्तुत्य हैं [दिव् स्तुतौ] अथवा हमारे सब रोग व पापरूप शत्रुओं को नष्ट करके हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ– यज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन करते हुए हम प्रभु के रक्षण में मार्ग पर आगे बढ़ते हैं । वे प्रभु ही हमारे सब शत्रुओं को नष्ट करके हमारे जीवन को दिव्य बनाते हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही ब्रह्मचर्य पाळून बलवान व्हा. त्यानंतर संतानांना जन्म द्या. ज्यामुळे निरोगी, बलवान, सुशील अपत्ये होतील व तुम्ही सुखी व्हाल. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Whoever desires and plans for advancement into new ways of progress, defence and protection, tries and experiments with newest forms of yajna, socio-scientific developments in pursuit of Agni, heat, light and electric energy, source and generator of power, breaker of the clouds, illuminator of pathways into darkness and the unknown, bright catalytic agent, giver of peace and prosperity for well being and divine agent of cosmic evolution.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a man generate noble progeny is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! a man who desires to have good land and protection through the Yajna (in the form of association with the enlightened men) with admirable and new dealing, goes to the son of a mighty person. Such a son guides the people on the path by the observance of 5 Yamas (non-violence, truth etc.) and is destroyer of evils, like an axe to cut the forest trees, liberal donor by his pervasiveness, and endowed with pure dealings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should become powerful by the observance of Brahmacharya and then generate (procreate. Ed.) good children so that they being mighty and endowed with good character and temperament, make you constantly happy.
Foot Notes
(यज्ञेन) सङ्गतिमवेन । यज-देवपूजासङ्गतिकरण-दानेषु (भ्वा० ) अत्र सङ्गतिकरणार्थ:। = Through Yajna in the form of an association with the enlightened men. (रुशन्तम् ) हिंसन्तम् । रुश-हिंसायाम् ( तुदा० ) != Destroying evils. (वीती ) वीत्या व्याप्त्या । वी-गति व्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अदा० ) अत्र-व्याप्त्यर्थः। = By pervasiveness or presence.
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