ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उदु॑ श्रि॒य उ॒षसो॒ रोच॑माना॒ अस्थु॑र॒पां नोर्मयो॒ रुश॑न्तः। कृ॒णोति॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑ सु॒गान्यभू॑दु॒ वस्वी॒ दक्षि॑णा म॒घोनी॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । श्रि॒ये । उ॒षसः॑ । रोच॑मानाः । अस्थुः॑ । अ॒पाम् । न । ऊ॒र्मयः॑ । रुश॑न्तः । कृ॒णोति॑ । विश्वा॑ । सु॒ऽपथा॑ । सु॒ऽगानि॑ । अभू॑त् । ऊँ॒ इति॑ । वस्वी॑ । दक्षि॑णा । म॒घोनी॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु श्रिय उषसो रोचमाना अस्थुरपां नोर्मयो रुशन्तः। कृणोति विश्वा सुपथा सुगान्यभूदु वस्वी दक्षिणा मघोनी ॥१॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। श्रिये। उषसः। रोचमानाः। अस्थुः। अपाम्। न। ऊर्मयः। रुशन्तः। कृणोति। विश्वा। सुऽपथा। सुऽगानि। अभूत्। ऊँ इति। वस्वी। दक्षिणा। मघोनी ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्त्रियः कीदृश्यो वरा इत्याह ॥
अन्वयः
हे पुरुषाः ! याः स्त्रियो रोचमाना उषस इवाऽपां रुशन्त ऊर्मयो न श्रिय उदस्थुस्ता उ सुखप्रदाः सन्ति। या वस्वी दक्षिणेव मघोन्यभूत् सोषर्वदु विश्वा सुपथा सुगानि कृणोति ॥१॥
पदार्थः
(उत्) (उ) (श्रिये) शोभायै (उषसः) प्रभातवेला इव (रोचमानाः) रुचिमत्यः (अस्थुः) तिष्ठन्ति (अपाम्) जलानाम् (न) इव (ऊर्मयः) तरङ्गाः (रुशन्तः) हिंसन्तः (कृणोति) (विश्वा) सर्वाणि (सुपथा) शोभनाः पन्था येषु तानि (सुगानि) सुष्ठु गच्छन्ति येषु तानि (अभूत्) भवति (उ) (वस्वी) वसूनामियम् (दक्षिणा) दक्षिणेव (मघोनी) परमधनयुक्ता ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे पुरुषा ! यथोषसो रुचिकरा भवन्ति तथाभूताः स्त्रियो वराः सन्ति यथा जलतरङ्गास्तटाञ्छिन्दन्ति तथैव या दुःखानि कृन्तन्ति याश्च दिनवत्सर्वाणि गृहकृत्यानि प्रकाशयन्ति ता एव सर्वदा मङ्गलकारिण्यो भवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब स्त्रियाँ कैसी श्रेष्ठ होती हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे पुरुषो ! जो स्त्रियाँ (रोचमानाः) दीप्तिमती (उषसः) प्रभातवेलाओं के समान वा (अपाम्) जलों की (रुशन्तः) हिंसती अर्थात् फूलों को विदारती हुई (ऊर्मयः) तरङ्गों के (न) समान (श्रिये) शोभा के लिये (उत्, अस्थुः) उठती हैं, वे (उ) ही सुख देनेवाली हैं जो (वस्वी) वसुओं की यह (दक्षिणा) दक्षिणा के समान (मघोनी) परमधनयुक्त (अभूत्) होती है, वह उषा के समान (उ) ही (विश्वा) समस्त (सुपथा) शुभमार्गवाले (सुगानि) जिनमें सुन्दरता से चलें, उन कामों को (कृणोति) करती है ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे पुरुषो ! जैसे प्रभातवेलाएँ रुचि करनेवाली होती हैं, वैसी हुई स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं वा जैसे जलतरंगें तटों को छिन्नभिन्न करती हैं, वैसे ही जो स्त्रियाँ दुःखों को छिन्न-भिन्न करती हैं और जो दिन के तुल्य समस्त गृहकृत्यों को प्रकाशित करती हैं, वे ही सर्वदा मङ्गलकारिणी होती हैं ॥१॥
विषय
उषा के दृष्टान्त से वरवर्णिनी वधू और विदुषी स्त्री के कर्त्तव्य
भावार्थ
( उषसः ) प्रभात वेलाएं जिस प्रकार ( रोचमानाः ) प्रकाशमान होकर ( श्रिये उत् अस्थुः ) शोभा वृद्धि के लिये ऊपर उठती हैं और जिस प्रकार ( रुशन्तः अपां ऊर्मयः न ) स्वच्छ वर्ण की जलों की तरंगे उठा करती हैं उसी प्रकार ( उषसः ) कमनीय, कान्तिवाली, विदुषी ( रोचमानाः ) रुचिर दीप्ति वाली, सुस्वभाव स्त्रियें स्वच्छ विमल आचार वाली, शुक्ल कर्मा, होकर ( श्रिये ) घर की शोभा के लिये ( उत् अस्थुः ) उन्नति को प्राप्त करें, उत्तम स्थिति को प्राप्त करें, मान पावें । ( मघोनी ) उत्तम ऐश्वर्यवती ( दक्षिणा ) कर्मकुशल स्त्री, ( वस्वी अभूतू उ ) गृह में बसने वाली माता बनने योग्य हो । वह ही ( विश्वा सुपथा ) समस्त उत्तम धर्म मार्गों को भी ( सुगा कृणोति ) सुगम कर देती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'रोचमाना-वस्वी - दक्षिणा' उषा
पदार्थ
[१] (रोचमानाः) = दीप्त होती हुई, (रुशन्तः) = शुक्लवर्णा (उषसः) = उषाएँ (श्रिये) = संसार की शोभा के लिये (उ) = निश्चय से इस प्रकार (उद् अस्थुः) = उत्थित होती हैं, (न) = जैसे कि (अपां ऊर्मयः) = जलों की तरंगें उठा करती हैं। उषा आती है, सारा संसार दीप्त हो उठता है। [२] यह उषा (विश्वा) = सब स्थानों को, (सुपथा) = उत्तम मार्गों को (सुगानि) = सुखेन [आराम से] गमनीय (कृणोति) = करती है। उषा के प्रकाश में सर्वत्र आना-जाना आसान हो जाता है। (उ) = और यह (मघोनी) = प्रकाश के ऐश्वर्यवाली (उषा वस्वी) = प्रशस्त निवास को देनेवाली व (दक्षिणा) = वृद्धि की कारण (अभूत्) = होती है। इस काल में वायुमण्डल में ओजोन गैस की अधिकता स्वास्थ्य के लिए अतिशयेन हितकर होती है। =
भावार्थ
भावार्थ- उषा आती है और सारा संसार शोभायमान हो उठता है। सब मार्ग सुगम्य हो जाते हैं। यह उषा उत्तम निवास को देनेवाली व स्वास्थ्य को बढ़ानेवाली होती है।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात उषा व सूर्याप्रमाणे स्त्रियांच्या गुणांचे वर्णन या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे श्रेष्ठ माणसांनो ! जशी प्रभातवेळ रुची उत्पन्न करते तशा स्त्रिया श्रेष्ठ असतात. जसे जलतरंग किनाऱ्यांना छिन्नभिन्न करतात, तसेच ज्या स्त्रिया दुःख नष्ट करतात व दिवसाप्रमाणे संपूर्ण गृहकृत्ये करतात त्या सदैव कल्याणकारी असतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Bright and blazing, the lights of the dawn arise like waves of the sea for the beauty and glory of the earth. It brightens all noble paths of the world and makes them easy for us to follow. Bearing treasures of wealth and energy, let it be generous for the people of the world, we pray.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kinds of women are good— is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! those women, who stand up for glory like the resplendent Usha (dawn) and who are in their white splendor like the waves of water; cutting off the banks are bestowers of happiness. She who being endowed with wealth is like the Dakshina or guerdon. She makes all paths easy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those women are like the resplendent dawn. As the waves of water cut through banks of water, in the same way women are good who mitigate the sufferings of others and who illuminate all household duties as the day illumines the dawn. They are always auspicious.
Foot Notes
(रुशन्तः) हिंसन्त:। रूश-हिंसायाम् = Cutting.. (ऊर्मयः) तरङ्गाः । (ऊर्मि:) अर्तेस्च्च (उणा 4,44) नियो मि: ( Unk; 4.43 ) इति सूत्राति प्रत्ययस्यानुवृत्तिः । ऋ-गतिप्रापणयो अष्यसि गच्छति इति ऊर्भिः जलतरङ्ग । = Waves.
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