ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वपु॒र्नु तच्चि॑कि॒तुषे॑ चिदस्तु समा॒नं नाम॑ धे॒नु पत्य॑मानम्। मर्ते॑ष्व॒न्यद्दो॒हसे॑ पी॒पाय॑ स॒कृच्छु॒क्रं दु॑दुहे॒ पृश्नि॒रूधः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठवपुः॑ । नु । तत् । चि॒कि॒तुषे॑ । चि॒त् । अ॒स्तु॒ । स॒मा॒नम् । नाम॑ । धे॒नु । पत्य॑मानम् । मर्ते॑षु । अ॒न्यत् । दो॒हसे॑ । पी॒पाय॑ । स॒कृत् । शु॒क्रम् । दु॒दु॒हे॒ । पृश्निः॑ । ऊधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वपुर्नु तच्चिकितुषे चिदस्तु समानं नाम धेनु पत्यमानम्। मर्तेष्वन्यद्दोहसे पीपाय सकृच्छुक्रं दुदुहे पृश्निरूधः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठवपुः। नु। तत्। चिकितुषे। चित्। अस्तु। समानम्। नाम। धेनु। पत्यमानम्। मर्तेषु। अन्यत्। दोहसे। पीपाय। सकृत्। शुक्रम्। दुदुहे। पृश्निः। ऊधः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा किंवत्किं करोतीत्याह ॥
अन्वयः
हे पत्नि ! यथोधः पृश्निश्च सकृञ्छुक्रं दुदुहे तथा धेन्विव त्वं मर्त्तेषु पत्यमानं पतिमन्यद्दोहसे पीपायैवं भूतायास्तव यच्चित्समानं वपुर्नाम च तच्चिकितुषे पत्ये न्वस्तु ॥१॥
पदार्थः
(वपुः) सुरूपं शरीरम् (नु) सद्यः (तत्) (चिकितुषे) विज्ञानवते (चित्) अपि (अस्तु) (समानम्) (नाम) सञ्ज्ञा (धेनु) वाक्। अत्र विभक्तिलोपः। (पत्यमानम्) गम्यमानम् (मर्तेषु) मनुष्येषु (अन्यत्) (दोहसे) दोग्धुम् (पीपाय) आप्यायय (सकृत्) एकवारम् (शुक्रम्) आशुवीर्यकरम् (दुदुहे) पूरयति (पृश्निः) अन्तरिक्षम् (ऊधः) रात्रिः। ऊध इति रात्रिनाम। (निघं०१.७) ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे पुरुष ! यथा रात्रिरारान्मायाऽन्तरिक्षं वर्षाभ्योऽस्ति तथैव समानगुणकर्मस्वभावा पत्नी पत्युः सुखाय कल्पते यथा धेनुर्वत्सान् पालयति तथा विदुषी माता सन्तानान्यथावद्रक्षितुं शक्नोति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ग्यारह ऋचावाले छियासठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर वह किसके तुल्य क्या करती है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे पत्नि ! जैसे (ऊधः) रात्रि और (पृश्निः) अन्तरिक्ष (सकृत्) एक वार (शुक्रम्) शीघ्र वीर्य करनेवाले को (दुदुहे) परिपूर्ण करता है, वैसे (धेनु) वाणी के समान तू (मर्त्तेषु) मनुष्यों में (पत्यमानम्) जाते हुए पति को (अन्यत्) और को जैसे वैसे (दोहसे) पूर्ण करने को (पीपाय) बढ़ाओ ऐसी हुई जो तू उसका जो (चित्) निश्चित (समानम्) समान (वपुः) सुन्दररूप और (नाम) नाम है (तत्) वह (चिकितुषे) विज्ञानवान् पति के लिये (नु, अस्तु) शीघ्र हो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे पुरुष ! जैसे रात्रि और समीप में मायारूपी अन्तरिक्ष वर्षा से होता अर्थात् मेघ से ढपा हुआ अन्तरिक्ष अन्धकारयुक्त होता है, वैसे ही समान गुणकर्मस्वभावयुक्त स्त्री पति के सुख के लिये समर्थ होती है, जैसे गौ बछड़ों को पालती है, वैसे विदुषी माता सन्तानों की यथावत् रक्षा कर सकती है ॥१॥
विषय
देह का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार वायुओं का ( वपुः समानं, धेनु, पत्यमानम् ) रूप, एक समान, सबको प्राण से तृप्त करने वाला और सदा गति युक्त होता है वह ( चिकितुषे ) विद्वान् पुरुष के लिये ( नाम) कार्यसाधक होता है, उनका एक स्वरूप ( मर्त्येषु) मरणधर्मा प्राणियों में ( दोहसे ) जीवन प्रदान करने के लिये ( पीपाय ) उनको प्राण से तृप्त करता है और दूसरा रूप यह कि ( ऊधः पृश्निः ) रात्रि काल में अन्तरिक्ष, एक वार ही ( शुक्रं दुदुहे ) जल को प्रदान करता है। अर्थात् दूसरा गुण वायु का यह है कि वह अपने में जल को भी धारण करता है । वह स्थूल पदार्थों का वाष्प रूप है। इसी प्रकार समस्त ( वपुः नु ) शरीर (चिकितुषे ) रोग दूर करने वाले वैद्य की दृष्टि में, ( समानं चित् अस्ति ) एक समान ही है । सब शरीर के घटक तत्व एक समान हैं, उनके रोगोत्पत्ति और स्वस्थता के कारण सर्वत्र एक समान हैं। उन सबका ( नाम समानं ) नाम भी एक समान हो । ( पृश्नि:) सूर्य के समान तेजस्वी, विज्ञान के प्रश्नों को सरल करने वाला विद्वान् पुरुष ( धेनु ) वत्स को तृप्त करने वाले ( ऊधः ) गाय के थन के समान (धेनु ) सबके तृप्त करने वाले वाङ्मय रूप ( पत्यमानम् ऊधः ) प्राप्त होते हुए उत्तम ज्ञान को धारण कराने वाले, ( शुक्रं ) शुद्ध कान्तियुक्त शास्त्र वेद को ( सकृत् दुदुहे ) एक ही वार ब्रह्मचर्य काल में दोहन करे, प्राप्त करे । वह उसको ( अन्यत् ) नाना रूप में ( मर्त्तेषु ) मनुष्यों के बीच ( दोहसे ) उसका ज्ञान प्रदान करने के लिये ( पीपाय ) उसी को बढ़ावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
११ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। मरुतो देवताः ।। छन्दः – १,९ ,११ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् पंक्तिः ।। ६, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
मरुतों के तीन रूप [प्राण, सैनिक, वृष्टि की वायुवें]
पदार्थ
[१] शरीर में 'मरुत्' 'प्राण' हैं। आधिदैविक जगत् में ये 'वर्षा को लानेवाली वायुवें' हैं । आधिभौतिक जगत् में ये 'राष्ट्र के रक्षक सैनिक' हैं । हे प्राणो! (नु) = अब (चिकितुषे) = ज्ञानी पुरुष के लिये आपका (तत्) = वह (वपुः) = रूप (चित् अस्तु) = निश्चय से हो । जो (समानम्) = [सं आनयति] जीवन में प्राणशक्ति का संचार करनेवाला है, (नाम) = शत्रुओं को नमानेवाला है, (धेनु) = शत्रु विनाश के द्वारा प्रीणित करनेवाला है (पत्यमानम्) = निरन्तर गतिवाला है। इन प्राणों के द्वारा हम क्रियाशील बने रह पाते हैं। [२] आधिभौतिक क्षेत्र में (मर्तेषु रणांगण) = में शरीरों का त्याग करनेवाले पुरुषों में (दोहसे) = इष्ट शक्तियों के पूरण के लिये (अन्यत्) = मरुतों का विलक्षण बल (पीपाय) = वृद्धि को प्राप्त होता है। [३] आधिदैविक क्षेत्र में मरुतों [वर्षा की वायुवों] की कृपा से ही (पृश्नि:) = अन्तरिक्ष (सकृत्) = वर्ष में एक बार, अर्थात् वर्षा ऋतु में (शुक्रं ऊधः) = शुक्लवर्ण जल को (दुदुहे) = पृथ्वी पर क्षरित करता है।
भावार्थ
भावार्थ– प्राण हमें सबल बनाते हैं। राष्ट्र में मरुत् [सैनिक] विलक्षण बल को प्रकट करते हैं। आधिदैविक जगत् में वृष्टि की वायुवें शुक्लवर्ण जल का दोहन करती हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायूच्या गुणाप्रमाणे विद्वान व वीरांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे पुरुषा ! जसे मेघांनी आच्छादित असलेले अंतरिक्ष अंधकारयुक्त असते, तसे समान गुणकर्म स्वभावयुक्त स्त्री पतीला सुख देण्यास समर्थ असते. जशी गाय वासरांचे पालन करते तशी विदुषी माता संतानांचे यथावत रक्षण करू शकते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For the man of vision and wisdom, the motherly form of nature is equal and similar by one name, Dhenu, mother cow. One on earth abounds with milk among the mortals to nurse her children, the other is Prshni, the middle region, mother of Maruts, winds or pranic energies, which simultaneously feeds the cloud with the purest soma of life energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does a good woman do like whom-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wife ! as night and firmament fill the virile once, in the same manner, you being like the cow make your active husband grow more and more in order to take the essence of all things and fill it well. When you behave like this, let your good name and lovely body be for your husband.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the night and firmament are for the rain, in the same manner, a wife who is suitable in virtues, action and temperament is the cause of happiness to her husband. As the cow nourishes her calves, in the same manner, an enlightened mother can nourish and protect her children well.
Foot Notes
(वपु:) सुरूपं शरीरम् । वपुरिति रूपनाम (NG 3, 7) अत्र रूपवच्छरीरगृहते । = Beautiful body. (पीपाय) । आप्यायय (ओ) प्यायीवृद्धौ (भ्वा.) Develop, cause to grow. (पृश्नि:) अन्तरिक्षम् = Firmament, (ऊधः) रात्रिः । ऊध इति रात्रिनाम (NG 1, 7)। = Night.
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