ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राविष्णू
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सं वां॒ कर्म॑णा॒ समि॒षा हि॑नो॒मीन्द्रा॑विष्णू॒ अप॑सस्पा॒रे अ॒स्य। जु॒षेथां॑ य॒ज्ञं द्रवि॑णं च धत्त॒मरि॑ष्टैर्नः प॒थिभिः॑ पा॒रय॑न्ता ॥१॥
स्वर सहित पद पाठसम् । वा॒म् । कर्म॑णा । सम् । इ॒षा । हि॒नो॒मि॒ । इन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । अप॑सः । पा॒रे । अ॒स्य । जु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । द्रवि॑णम् । च॒ । ध॒त्त॒म् । अरि॑ष्टैः । नः॒ । प॒थिऽभिः॑ । पा॒रय॑न्ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं वां कर्मणा समिषा हिनोमीन्द्राविष्णू अपसस्पारे अस्य। जुषेथां यज्ञं द्रविणं च धत्तमरिष्टैर्नः पथिभिः पारयन्ता ॥१॥
स्वर रहित पद पाठसम्। वाम्। कर्मणा। सम्। इषा। हिनोमि। इन्द्राविष्णू इति। अपसः। पारे। अस्य। जुषेथाम्। यज्ञम्। द्रविणम्। च। धत्तम्। अरिष्टैः। नः। पथिऽभिः। पारयन्ता ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजशिल्पिनौ किं कृत्वा किं कुर्यातामित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्राविष्णू इव वर्त्तमानौ महाराजशिल्पिनौ ! यौ वामहं कर्मणा सं हिनोमि। अस्यापसः पार इषा संहिनोमि तावरिष्टैः पथिभिर्नः पारयन्ता युवां यज्ञं द्रविणं च जुषेथां नोऽस्मभ्यं धत्तम् ॥१॥
पदार्थः
(सम्) सम्यक् (वाम्) युवाम् (कर्मणा) ईप्सिततमेन व्यापारेण (सम्) सम्यक् (इषा) अन्नादिना (हिनोमि) वर्धयामि (इन्द्राविष्णू) सूर्यविद्युतौ (अपसः) कर्मणः (पारे) (अस्य) (जुषेथाम्) सेवेथाम् (यज्ञम्) सङ्गतिकरणम् (द्रविणम्) धनं यशो वा (च) (धत्तम्) (अरिष्टैः) अहिंसितैर्हिंसकरहितैः (नः) अस्मानस्मभ्यं वा (पथिभिः) मार्गैः (पारयन्ता) पारं गमयन्तौ ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथा वायुविद्युतौ यानेषु सम्प्रयोजितौ गमनरूपस्य कर्मणो विषयं स्थानात्पारे गमयतस्तथा तयोर्विद्यायां युष्मान् संप्रेर्य यथा वर्द्धयेम तथा वृद्धा भूत्वा निर्विघ्नैर्मार्गैरस्मान् पारं गमयित्वा धनं यशश्च सततं प्रापयतं तौ वयं सततं सेवेमहि ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब आठ ऋचावाले उनहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा और शिल्पी जन क्या करके क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्राविष्णू) सूर्य्य और बिजुली के समान वर्त्तमान महाराज और शिल्पीजनो ! जिन (वाम्) तुम दोनों को मैं (कर्मणा) अतीव चाहे हुए काम से (सम्, हिनोमि) अच्छे प्रकार बढ़ाता हूँ (अस्य) इस (अपसः) काम के (पारे) पार में (इषा) अन्नादि पदार्थों से (सम्) अच्छे प्रकार बढ़ाता हूँ वे (अरिष्टैः) हिंसकरहित (पथिभिः) मार्गों से (नः) हम लोगों को (पारयन्ता) पार करते हुए हम तुम (यज्ञम्) सङ्गतिकरण कार्य (द्रविणम्, च) और धन वा यश को (जुषेथाम्) सेवो और हम लोगों के लिये (धत्तम्) धारण करो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे अध्यापक और उपदेशको ! जैसे वायु और बिजुली विमानादिकों में अच्छे प्रकार जोड़े हुए गतिरूप कर्म के विषय को स्थान से पार पहुँचाते हैं, वैसे उनकी विद्या में तुमको प्रेरणा देकर जिस प्रकार हम लोग बढ़ावें उस प्रकार बढ़कर निर्विघ्न मार्गों से हम लोगों को लेजाके धन और यश की प्राप्ति निरन्तर कराइये, उन आप लोगों की सेवा हम लोग निरन्तर करें ॥१॥
विषय
इन्द्र विष्णु । सूर्य विद्युत्वत् राजा प्रजा वर्गों के परस्पर कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्राविष्णू) इन्द्र ऐश्वर्ययुक्त ! हे ‘विष्णु’ अर्थात् व्यापक रूप से विद्यमान, वा प्रवेश करने योग्य, वा विविध सुखों को देने वाले वा विविध मार्गों से जाने वाले ! आप दोनों सूर्य, विद्युत्वत् राजा और प्रजाजनो ! वा स्त्री पुरुषो ! मैं विद्वान् पुरुष ( अस्य अपसः पारे ) इस कर्म के पार ( वां ) आप दोनों को (कर्मणा ) उत्तम कर्म सामर्थ्य से ( सं हिनोमि ) अच्छी प्रकार पहुंचाता हूं और (इषा सं ) अन्नादि सम्पत्ति, उत्तम अभिलाषा, प्रेरक आज्ञा, तथा सेनादि से भी ( वां सं हिनोमि ) आप दोनों को बढ़ाता हूं । आप दोनों ( नः ) हम सब लोगों को (अरिष्टै:) हिंसादि उपद्रवों से रहित (पथिभिः) मार्गों और गमनशील साधनों से ( अस्य अपसः पारे पारयन्ता ) इस महान् कर्म के पार पहुंचाते हुए ( यज्ञं ) हमारे इस सत्संग, को ( जुषेथाम् ) प्रेम से स्वीकार करो और (नः द्रविणं च धत्तम् ) हमारे धनादि को भी धारण करो, एवं हमें धनादि प्रदान करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राविष्णू देवते ।। छन्दः – १, ३, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ८ त्रिष्टुप् । ५ ब्राह्म्युणिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
शक्ति व उदारता
पदार्थ
[१] हे (इन्द्राविष्णू) = इन्द्र और विष्णु, जितेन्द्रियता द्वारा शक्ति की प्राप्ति की भावना तथा उदारता द्वारा सब के धारण की भावना ! (वाम्) = आप दोनों को मैं कर्मणा-कर्म के हेतु से (संहिनोमि) = अपने अन्दर सम्यक् रूप से प्रेरित करता हूँ । (इषा) = प्रभु प्रेरणा की प्राप्ति के हेतु से (सं) [हिनोमि] = अपने अन्दर प्रेरित करता हूँ । इन्द्रत्व व विष्णुत्व को धारण करनेवाला अवश्य हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनता है। आप दोनों हमें (अस्य अपसः) = इस हमारे कर्त्तव्यभूत कर्म के (पारे) = पार प्राप्त कराओ। आपके द्वारा हम कर्त्तव्य कर्म को निर्विघ्नता से पूर्ण कर पायें। [२] हे इन्द्र और विष्णु ! आप (यज्ञं जुषेथाम्) = यज्ञात्मक कर्मों का प्रीतिपूर्वक सेचन करिये। च और (द्रविणं धत्तम्) = ऐश्वर्य का हमारे लिये धारण करिये तथा (नः) = हमें (अरिष्टैः) = अहिंसित (पथिभिः) = मार्गों से ले चलते हुए (पारयन्ता) = जीवनयात्रा के पार ले चलनेवाले होइये। आपके अनुग्रह से हमारी जीवनयात्रा निर्विघ्न पूर्ण हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम शक्ति व उदारता को धारण करते हुए उत्तम कर्मों में लगे रहें, को सुन पायें तथा शुभ मार्गों से चलते हुए जीवनयात्रा को सफलता से पूर्ण करें ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र व विष्णूप्रमाणे सभा व सेनाधीशाच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे अध्यापक व उपदेशकांनो! जसे वायू व विद्युत यांना यानामध्ये वापरून गमन करता येते तसे त्या विद्येच्या प्रेरणेने ज्या प्रकारे आम्ही तुम्हाला वर्धित करतो तशा प्रकारे वृद्धी करून आम्हाला निर्विघ्न मार्गाने न्यावे व धन आणि यशाची प्राप्ती करवावी. आम्हीही तुमची निरंतर सेवा करावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord commander of energy and power, Vishnu, lord provider of sustenance, whole heartedly I call upon you with food and energy and with action to take us successfully to the end of this programme of work and development. Join and enjoy the yajnic programme, create and bring wealth and honour. Indeed, you are pilots of the nation to lead us on by paths of freedom without fear and danger.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the king and artists do after doing what-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great king and artists ! you who are like the sun and electricity, I increase your power by the most desirable action. I increase your power to take you to the end of this good act by providing food and other means. Take us across inviolable paths on which there are no violent wicked persons to obstruct. Lovingly undertake the Yajna in the form of the association of good men and uphold wealth or good reputation for us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! as air and electricity, when used methodically in various vehicles, takes us to the distant destinations, in the same manner, when urging upon you to give us the knowledge of those things, we increase your power, being old, taking us across by unimpeded safe paths, help us in the acquisition of wealth and attainment of good reputation. Let us serve you both constantly.
Foot Notes
(इन्द्राविष्णू) सूर्यविद्युतौ । (आदित्य:) स यः स विष्णुः यज्ञ: स: । स यः सयज्ञो सो स आदित्यः (S. Br. 14, 1, 1, 6,) । = The sun and electricity. (इन्द्राविष्णू) वायुविद्युतौ । अयं वा इन्द्रोयोऽयं वातो: पवते (S. Br. 14, 1, 1, 6) = The air and electricity. (हिनोमि) वर्धयामि । हि-गतौ वृद्धो च (स्वा.)। = Increase. (अरिष्टै:) अहिंसितैहिसकरहितैः । रिष-हिंसायाम् (दिवा.) | = Inviolable and safe, free form the violent persons.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal