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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - सविता छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता हि॑र॒ण्यया॑ बा॒हू अ॑यंस्त॒ सव॑नाय सु॒क्रतुः॑। घृ॒तेन॑ पा॒णी अ॒भि प्रु॑ष्णुते म॒खो युवा॑ सु॒दक्षो॒ रज॑सो॒ विध॑र्मणि ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । दे॒वः । स॒वि॒ता । हि॒र॒ण्यया॑ । बा॒हू इति॑ । अ॒यं॒स्त॒ । सव॑नाय । सु॒ऽक्रतुः॑ । घृ॒तेन॑ । पा॒णी इति॑ । अ॒भि । प्रु॒ष्णु॒ते॒ । म॒खः । युवा॑ । सु॒ऽदक्षः॑ । रज॑सः । विऽध॑र्मणि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु ष्य देवः सविता हिरण्यया बाहू अयंस्त सवनाय सुक्रतुः। घृतेन पाणी अभि प्रुष्णुते मखो युवा सुदक्षो रजसो विधर्मणि ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ऊँ इति। स्यः। देवः। सविता। हिरण्यया। बाहू इति। अयंस्त। सवनाय। सुऽक्रतुः। घृतेन। पाणी इति। अभि। प्रुष्णुते। मखः। युवा। सुऽदक्षः। रजसः। विऽधर्मणि ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    यो मख इव सुखकरो विधर्मणि सुदक्षो युवा सुक्रतुः सविता देवः सवनाय घृतेन युक्तौ पाणी हिरण्यया बाहू उदयंस्त स्य उ रजसो विरोधिनोऽभि प्रुष्णुते ॥१॥

    पदार्थः

    (उत्) (उ) (स्यः) सः (देवः) (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सत्कर्मसु प्रेरको राजा (हिरण्यया) हिरण्याद्याभूषणयुक्तौ (बाहू) भुजौ (अयंस्त) यच्छति (सवनाय) ऐश्वर्य्याय (सुक्रतुः) उत्तमप्रज्ञः (घृतेन) उदकेनाज्येन वा (पाणी) प्रशंसनीयौ (अभि) (प्रुष्णुते) अभिदहति (मखः) यज्ञ इव सुखकर्त्ता (युवा) प्राप्तयौवनः (सुदक्षः) शोभनं दक्षं बलं यस्य सः (रजसः) लोकस्य (विधर्मणि) विशिष्टे धर्मे ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्वानतिबलयुक्तभुजो महाप्रज्ञो विशेषेण धार्मिकः सन्नैश्वर्यप्राप्तये सततमुद्यमं करोति स ऐश्वर्यं प्राप्य पुनः सर्वस्याः प्रजाया धर्मे निवेशनं कृत्वा यज्ञ इव सर्वदा सुखयेत् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले एकसत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर राजा कैसा हो, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (मखः) यज्ञ के समान सुख करनेवाला (विधर्मणि) विशेष धर्म में (सुदक्षः) सुन्दर बल जिसका वह (युवा) जवान (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धियुक्त (सविता) ऐश्वर्य्यवान् (देवः) विद्वान् (सवनाय) ऐश्वर्य के लिये (घृतेन) जल वा घी से युक्त (पाणी) प्रशंसा करने योग्य (हिरण्यया) सुवर्ण आदि आभूषण युक्त (बाहू) भुजाओं को (उत्, अयंस्त) उठाता है (स्यः, उ) वही (रजसः) लोक के विरोधियों को (अभि, प्रुष्णुते) सब ओर से भस्म करता है ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् अति बल से युक्त भुजाओंवाला, अत्यन्त बुद्धिमान्, विशेषता से धर्मात्मा होकर ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये निरन्तर उद्यम करता है, वह ऐश्वर्य को प्राप्त होकर फिर से सब प्रजा के धर्म में प्रवेश कर जैसे यज्ञ सुख देता है, वैसे सुखी करता है ॥१॥

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    विषय

    सविता । सूर्यवत् उत्तम निपुण राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( देवः सविता ) प्रकाशमान सूर्य (हिरण्यया बाहू ) सबके हित और रमणीय ‘बाहू’ अर्थात् अन्धकार को बांधने वाले किरणों को ( इत् अयंस्त ) ऊपर थामता है और ( सु-दक्षः ) खूब दाहकारी होकर ( विधर्मणि ) अन्तरिक्ष में विद्यमान (रजसः अभि घृतेन प्रुष्णुने ) समस्त भुवनों को तेज से संतप्त करता वा जल से सेचन भी करता है उसी प्रकार ( स्यः देवः ) वह दानशील व्यवहारज्ञ, युद्धनिपुण राजा ( सविता ) शासक, ( सुक्रतुः ) उत्तम कर्म और बुद्धि से सम्पन्न होकर ( सवनाय) ऐश्वर्य की वृद्धि और शासन कार्य के सम्पादन के लिये ( हिरण्यया बाहू ) हित और सबको अच्छे लगने वाले, सुवर्ण से अलंकृत बाहुओं को तथा हिरण्य अर्थात् लोहे के बने, वा कान्तिमान् तेजस्वी शस्त्रास्त्रों से युक्त, बाहुवत् शत्रु के पीड़क बलवान् सैन्यों को भी ( उत् अयंस्त ) उत्तम रीति से उठाता, उनको नियन्त्रण में रखने में समर्थ होता है, वही ( मखः ) यज्ञ के समान पूज्य, उपकारक ( युवा ) बलवान्, ( सु-दक्षः ) उत्तम कार्यकुशल, होकर (विधर्मणि) विविध प्रजाओं के धारण करने के कार्य में ( रजसः अभि ) लोक समूह के प्रति (घृतेन ) तेज से ( पाणी ) अपने हाथों को ( प्रुष्णुते ) प्रतप्त करता है, जिनसे वह दुष्टों का दमन कर प्रजा का शासन करने में समर्थ हो ।

    टिप्पणी

    ( प्रुष्णुते ) प्रुष प्लष दाहे । भ्वा० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्दः – १ जगती । २, ३ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    सूर्य की हितरमणीय भुजाएँ

    पदार्थ

    [१] (स्यः) = वह (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = सर्वत्र प्राणशक्ति को जन्म देनेवाला सूर्य (उ) = निश्चय से (हिरण्यया बाहू) = अपनी हित रमणीय भुजाओं को (उद् अयंस्त) = ऊपर थामता है, उदित करता है । यह (सुक्रतुः) = उत्तम शक्तिवाला सूर्य (सवनाय) = यज्ञों के लिये हमें प्रेरित करता है । [२] यह सूर्य (पाणी) = अपने किरणरूप हाथों को (घृतेन) = उदक से (अभि प्रुष्णुते) = सिक्त करता है। जल को किरणों के द्वारा वाष्परूप में ऊपर सूर्य ही तो ले जाता है और फिर यह सूर्य ही इन जलों को बरसाता है। (मखः) = यह यज्ञशील है, सूर्योदय के होने पर ही सब यज्ञों का उपक्रम होता है। (युवा) = नित्यतरुण है, यह सूर्य अपनी किरणों से मलों का दहन करता हुआ हमारे अन्दर शक्ति का संचार करता है 'यु मिश्रणामिश्रणयोः' (सुदक्षः) = उत्तम बुद्धि का यह कारण है। (राजसः विधर्मणि) = यह सूर्य उदक के धारण में स्थित है। हमारे शरीरों के अन्दर रेतः कण रूप जलों की ऊर्ध्वगति का ये प्रातः सूर्य की किरणें कारण बनती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य उदय होता है, यज्ञों की प्रेरणा देता है, हमारी वृद्धि का कारण बनता है, शरीर में रेत:कणरूप जलों की ऊर्ध्वगति व धारण का हेतु बनता है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सविता, राजा, प्रजा यांच्या कर्मांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो (राजा) विद्वान अति बलवान भुजा असलेला, अत्यंत बुद्धिमान, विशेषकरून धर्मात्मा बनून ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी सदैव उद्योग करतो तो ऐश्वर्य प्राप्त करून सर्व प्रजाधर्माचे पालन करतो व जसा यज्ञ सुख देतो तसा सुखी करतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That refulgent and generous Savita, creator, generator and inspirer, ruler of the world, lord of holy action may, we pray, raise his golden hands and bless us with will and wisdom to perform creative and productive actions for common good. With showers of waters and grace, the lord of generous and adorable hands blesses the world regions and their people, as he is holy, creative, youthful, generous and perfect in various specific fields of action.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a king be-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A king, who is bestower of happiness like the Yajna (non-violent sacrifice), very mighty in the discharge of his special duties, youthful, endowed with good intellect, enlightened and truthful, wealthy and impeller of good deeds, engages his admirable arms, decked with gold or with water or butter for bringing about prosperity. He burns from all sides those wicked persons who are opposed to the welfare of the world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That highly learned person, who has very strong and powerful arms, being very wise and righteous, constantly endeavors for the acquisition of wealth and prosperity. Having amassed wealth, he should make all subjects happy by establishing them in Dharma or righteousness.

    Foot Notes

    (सवनाय) ऐश्वर्य्याय । षु-प्रसवेश्वर्ययो: (भ्वा०) अत्रोभयार्थं ग्रहणम् । प्रसव: - प्र ेरणा। = For wealth or prosperity. (सविता) ऐश्वर्यवान् सत्कर्मसु प्र ेरको राजा = A king who is wealthy and impeller of good deeds. (पाणी) प्रशंसनीयो । पण-व्यवहारे स्तुतौ च (भ्वा.) अत्र स्तुत्यर्थ: । = Praiseworthy, (प्रष्णुते) अभिदहति । प्रषु-दाहे (भ्वा.) = Burns.

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