ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रासोमौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑सोमा॒ महि॒ तद्वां॑ महि॒त्वं यु॒वं म॒हानि॑ प्रथ॒मानि॑ चक्रथुः। यु॒वं सूर्यं॑ विवि॒दथु॑र्यु॒वं स्व१॒॑र्विश्वा॒ तमां॑स्यहतं नि॒दश्च॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑सोमा । महि॑ । तत् । वा॒म् । म॒हि॒ऽत्वम् । यु॒वम् । म॒हानि॑ । प्र॒थ॒मानि॑ । च॒क्र॒थुः॒ । यु॒वम् । सूर्य॑म् । वि॒वि॒दथुः॑ । यु॒वम् । स्वः॑ । विश्वा॑ । तमां॑सि । अ॒ह॒त॒म् । नि॒दः । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रासोमा महि तद्वां महित्वं युवं महानि प्रथमानि चक्रथुः। युवं सूर्यं विविदथुर्युवं स्व१र्विश्वा तमांस्यहतं निदश्च ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रासोमा। महि। तत्। वाम्। महिऽत्वम्। युवम्। महानि। प्रथमानि। चक्रथुः। युवम्। सूर्यम्। विविदथुः। युवम्। स्वः। विश्वा। तमांसि। अहतम्। निदः। च ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकोपदेशकौ किंवत् किं कुर्यातामित्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथेन्द्रासोमा सूर्यं विविदथुस्तथा युवं न्यायार्कं प्राप्नुतं यथैतौ महान्ति कर्माणि कुरुतस्तथा वां तन्महि महित्वमस्ति तथा युवं महानि प्रथमानि चक्रथुः युवं यथैतौ विश्वा तमांसि हतस्तथाऽविद्याऽन्यायजनितानि पापान्यहतं स्वः प्राप्नुतं प्रापयेतं वा निदश्च सततं हन्यातम् ॥१॥
पदार्थः
(इन्द्रासोमा) विद्युच्चन्द्रमसौ (महि) महत् (तत्) (वाम्) युवयोः (महित्वम्) (युवम्) युवाम् (महानि) पूजनीयानि (प्रथमानि) ब्रह्मचर्यविद्याग्रहणदानादीनि (चक्रथुः) कुर्य्यातम् (युवम्) युवाम् (सूर्यम्) (विविदथुः) विन्दतः। अत्र व्यत्ययः। (युवम्) युवाम् (स्वः) सुखम् (विश्वा) सर्वाणि (तमांसि) रात्रिरिवाऽविद्यादीनि (अहतम्) हन्यातम् (निदः) निन्दकान् (च) पाखण्डिनः ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे प्रजाजना यथा सूर्यं प्राप्य चन्द्रादयो लोकाः प्रकाशिता भवन्ति तथैवाध्यापकोपदेशकौ सङ्गत्य सर्वे प्रकाशमात्मानो भवन्तु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! जैसे (इन्द्रासोमा) बिजुली और चन्द्रमा (सूर्यम्) सूर्य्य को (विविदथुः) प्राप्त होते हैं, वैसे (युवम्) तुम न्यायरूपी सूर्य्य को प्राप्त होओ, जैसे ये बड़े कामों को करते हैं, वैसे (वाम्) तुम्हारा (तत्) वह (महि) महान् (महित्वम्) बड़प्पन है और वैसे (युवम्) तुम (महानि) प्रशंसा योग्य (प्रथमानि) ब्रह्मचर्य्य और विद्या ग्रहण और दान आदि कामों को (चक्रथुः) करो (युवम्) तुम जैसे यह दोनों (विश्वा) समस्त (तमांसि) रात्रि के समान अविद्या आदि अन्धकारों को नष्ट करते हैं, वैसे अविद्या और अन्याय से उत्पन्न हुए पापों को (अहतम्) नष्ट करो (स्वः) सुख की प्राप्ति करो वा कराओ (निदः, च) और निन्दक तथा पाखण्डियों को निरन्तर नष्ट करो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे प्रजाजनो ! जैसे सूर्य को प्राप्त होकर चन्द्र आदि लोक प्रकाशित होते हैं, वैसे ही अध्यापक और उपदेशकों का सङ्ग कर सब प्रकाशित आत्मावाले हों ॥१॥
विषय
इन्द्र सोम । सूर्य चन्द्रवत् स्त्री पुरुषों, गुरु शिष्यों के कर्त्तव्य, वे प्रभु को जानें । अज्ञान को दूर करें, निन्दय व्यवहारों का नाश करें ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रासोमा) सूर्य और चन्द्र के समान ऐश्वर्य और वीर्य से युक्त और प्रजाओं को उत्पन्न करने में समर्थ उत्तम स्त्री पुरुषो ! वा उत्तम आचार्य वा शिष्य जनो ! ( वां तत् महित्वं ) तुम दोनों का वह बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है कि ( युवं ) तुम दोनों ( महानि ) पूज्य, आदर योग्य ( प्रथमानि) श्रेष्ठ २ कार्य ( चक्रथुः ) किया करो । ( युवं ) तुम दोनों ( सूर्य ) सर्व प्रकाशक सूर्य को, सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष को तथा सर्वोत्पादक सर्व प्रकाशक प्रभु परमेश्वर को, ( विविदथु: ) अपना आदर्श रूप से जानो, और उसीको सदा प्राप्त करो। ( युवं ) तुम दोनों सदा सुखप्रद, प्रकाशस्वरूप प्रभु को प्राप्त करो । ( विश्वा तमांसि अहतम्) सब प्रकार के अविद्याजनित मोह, शोकादि अन्धकारों को नाश करो और ( निदः च अहतम् ) निन्दकों और निन्दनीय व्यवहारों को भी नाश करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः - १ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सूर्योदय तथा प्रकाश व सुख की प्राप्ति
पदार्थ
[१] 'इन्द्र' बल का प्रतीक है और 'सोम' सौम्यता का। हम बलवान् बनकर सौम्य बने रहें । हे (इन्द्रासोमा) = बल व सौम्यता के दिव्य भावो! (वाम्) = आपका (तत्) = वह (महि महित्वम्) = महान् महत्त्व है कि (युवम्) = आप मनुष्यों को (महानि) = महान् व प्रथमानि मुख्य स्थान में स्थित (चक्रथुः) = करते हो। [२] (युवम्) = आप दोनों (सूर्यं विविदथुः) = ज्ञान सूर्य को प्राप्त कराते हो । (युवम्) = आप (स्वः) = सुख को प्राप्त कराते हो। इस प्रकार ज्ञान के द्वारा जीवन को सुखी बनाते हुए आप (विश्वा) = सब (तमांसि) = अन्धकारों को (निदः च) = और निन्दित पापों को (अहतम्) = विनष्ट करते हो। हमें ये बल व सौम्यता, पाप व अन्धकार से दूर करके ही तो सुखी करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सबल बनें, साथ ही सौम्य [विनीत] बनें। इस प्रकार हमारे जीवन में ज्ञान सूर्य का उदय होकर सुख व प्रकाश होगा। हम पापों व अन्धकारों से दूर होकर सुखमय जीवन बितायेंगे।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, सोम, अध्यापक व उपदेशक यांच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमलंकार आहे. हे प्रजाजनांनो ! जसे सूर्यामुळे चंद्र इत्यादी प्रकाशित होतात तसेच अध्यापक व उपदेशकांचा संग करून सर्वांचे आत्मे प्रकाशित व्हावेत. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of cosmic energy, and Soma, spirit of cosmic vitality, the greatness of your lustrous grandeur is this that you have done the first elemental grand acts of creation: you fashion forth the sun, you create the regions of light and the peace and paradisal bliss of existence, you dispel the darkness and ignorance of life, and you ward off the malice and negativities of the earthly community.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should teachers and preachers do and like whom is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! as electricity and moon reach the sun, in the same manner, you attain the sun of justice. As they have many great actions, so with the greatness that is yours, you perform many adorable great actions like the observance of Brahmacharya (abstinence), acquisition and dissemination of knowledge etc. As they (electricity and moon) dispel darkness, so you destroy all sins born of ignorance and attain happiness and help others to attain it, also drive away all unjust revilers and hypocrites.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O people! as the moon etc. are illuminated by the sun, so by association of good teachers and preachers you be of illumined mind.
Foot Notes
(इन्द्रासोमा) विद्यञ्चन्द्रमसौ । यदशनिरिन्द्रस्तेन (कौषीतकी ब्राह्मण 6, 9 ) चन्द्रमा वा सोम: (कौषीतको ब्राह्मणे 16,5 ) = Electricity and moon. (प्रथमानि) ब्रह्मचर्यं विद्याग्रहणदानादीनि |= Brahmacharya (abstinence), acquisition and dissemination of knowledge.
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