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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - वैश्वानरः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    पृ॒क्षस्य॒ वृष्णो॑ अरु॒षस्य॒ नू सहः॒ प्र नु वो॑चं वि॒दथा॑ जा॒तवे॑दसः। वै॒श्वा॒न॒राय॑ म॒तिर्नव्य॑सी॒ शुचिः॒ सोम॑इव पवते॒ चारु॑र॒ग्नये॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒क्षस्य॑ । वृष्णः॑ । अ॒रु॒षस्य॑ । नु । सहः॑ । प्र । नु । वो॒च॒म् । वि॒दथा॑ । जा॒तऽवे॑दसः । वै॒श्वा॒न॒राय॑ । म॒तिः । नव्य॑सी । शुचिः॑ । सोमः॑ऽइव । प॒व॒ते॒ । चारुः॑ । अ॒ग्नये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृक्षस्य वृष्णो अरुषस्य नू सहः प्र नु वोचं विदथा जातवेदसः। वैश्वानराय मतिर्नव्यसी शुचिः सोमइव पवते चारुरग्नये ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृक्षस्य। वृष्णः। अरुषस्य। नु। सहः। प्र। नु। वोचम्। विदथा। जातऽवेदसः। वैश्वानराय। मतिः। नव्यसी। शुचिः। सोमःऽइव। पवते। चारुः। अग्नये ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यैः किं विज्ञाय किमुपदेष्टव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्य पृक्षस्यारुषस्य वृष्णो जातवेदसः सहो नू प्र वोचं विदथा नु प्रवोचं यस्य सोमइव नव्यसी शुचिश्चारुर्मतिः पवते तस्मै वैश्वानरायाऽग्नये प्रज्ञां धरेयम् ॥१॥

    पदार्थः

    (पृक्षस्य) सर्वत्र सम्बद्धस्य सम्पृक्तस्य (वृष्णः) सेचकस्य (अरुषस्य) अहिंसकस्य (नूः) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (सहः) बलम् (प्र) (नु) क्षिप्रम् (वोचम्) उपदिशेयम् (विदथा) विज्ञानानि (जातवेदसः) जातेषु विद्यमानस्य (वैश्वानराय) सर्वस्य विश्वस्य प्रकाशकाय (मतिः) प्रज्ञा (नव्यसी) अतिशयेन नवीना (शुचिः) पवित्रा (सोमइव) सोमलतेव (पवते) पवित्रा भवति (चारुः) सुन्दरा (अग्नये) विदुषे ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । येषां मनुष्याणां सोमौषधिवत्पवित्रकरी प्रज्ञाऽतुलं बलमग्निविद्या च भवति त एवाऽऽनन्दन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सात ऋचावाले आठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को क्या जान कर क्या उपदेश करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस (पृक्षस्य) सर्वत्र सम्बद्ध अर्थात् संयुक्त (अरुषस्य) नहीं हिंसा करने और (वृष्णः) सेचन करनेवाले (जातवेदसः) उत्पन्न हुओं में विद्यमान के (सहः) बलका (नु) शीघ्र (प्र, वोचम्) उपदेश देऊँ और (विदथा) विज्ञानों का (नू) शीघ्र उपदेश देऊँ और जिसकी (सोमइव) सोमलता जैसे वैसे (नव्यसी) अत्यन्त नवीन (शुचिः) पवित्र (चारुः) सुन्दर (मतिः) बुद्धि (पवते) पवित्र होती है उस (वैश्वानराय) सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक (अग्नये) विद्वान् जन के लिये बुद्धि को धारण करूँ ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिन मनुष्यों की सोमलतारूप ओषधि के सदृश पवित्र करनेवाली बुद्धि, अतुल बल और अग्निविद्या होती है, वे ही आनन्दित होते हैं ॥१॥

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    विषय

    वैश्वानर ।

    भावार्थ

    ( पृक्षस्य ) स्नेहवान्, विद्यादान आदि सम्बन्धों से सम्पर्क करने वाले, ( वृष्णः ) मेघ के समान ज्ञानोपदेश को देनेवाले, बलवान्, ( अरुषस्य ) तेजस्वी, रोष वा हिंसा से रहित ( जात-वेदसः ) उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता, समस्त धनों के स्वामी पुरुष के ( विदथा ) ज्ञानों और प्राप्ति साधनों और ( सहः ) सहनशीलता और बल की ( नु ) भी अवश्य हम ( प्र वोचम् ) स्तुति करें, और उत्तम गुणों वाले पुरुष को बल वृद्धि और ज्ञानों का उपदेश करें । ( वैश्वानराय अग्नये ) सबके नायक अग्रणी पुरुष की ( नव्यसी मतिः ) अति स्तुत्य बुद्धि और वाणी ( शुचिः ) अति पवित्र शुद्ध रूप से ( चारुः ) अति सुन्दर होकर (सोम इव पवते) ओषधि रस के तुल्य दुःखनाशक होकर प्रकट होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ — छन्दः — १, ४ जगती । ६ विराड् जगती । २, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु-स्तवन व सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    [१] (पृक्षस्य) = सर्वत्र सम्पृक्त, अर्थात् सर्वव्यापक, (वृष्णः) = सब पर सुखों का वर्षण करनेवाले अथवा शक्तिशाली (अरुषस्य) = आरोचमान (जातवेदसः) = उस सर्वज्ञ प्रभु के (सह:) = शत्रु-मर्षक सामर्थ्य को (नु) = अब (विदथा) = इस ज्ञानयज्ञ में (नु) = निश्चय से (प्रवोचम्) = प्रकर्षेण प्रतिपादित करता हूँ । इस प्रभु का बल ही तो मेरे भी काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला है। [२] उस (वैश्वानराय) = सब नरों का हित करनेवाले (अग्नये) = अग्रेणी प्रभु के लिये, (सोमः इव) = सोम की तरह (चारुः) = सुन्दर (शुचिः) = पवित्र (नव्यसी) = अतिशयेन (प्रशस्य मतिः) = मननपूर्वक की गई स्तुति (पवते) = प्राप्त होती है। मैं उस प्रभु का स्तवन करता हूँ। यह स्तवन मेरे जीवन को सुन्दर पवित्र व प्रशस्त बनाता है। इस स्तवन से मेरे में सोम का भी रक्षण होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ— मैं सर्वव्यापक शक्तिशाली आरोचमान सर्वज्ञ प्रभु का स्तवन करता हूँ। इस स्तवन से मेरे बनता जीवन में सोम [वीर्य] का रक्षण होता है और मेरा जीवन सुन्दर, पवित्र व प्रशस्त बनता है ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्या व विनयाने प्रकाशित विद्वान, सूर्य व राजा इत्यादींच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या माणसांजवळ सोमलतारूपी औषधीप्रमाणे पवित्र करणारी बुद्धी, अत्यंत बल व अग्निविद्या असते, ती आनंदी असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Spontaneously I sing and celebrate the knowledge and omnipotence of Jataveda, omniscient lord creator, omnipresent, generous, refulgent and merciful. The holy thoughts and words of the song flow ever fresh, pure, soothing and sanctifying like the streams of soma in honour of the universal lord and leading light of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men know and what should they preach are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! I will tell aloud (proclaim. Ed.) the might of the fire which is connected with all, is sprinkler of happiness, non-violent (useful) and present (existent. Ed.) in all things. Let me also proclaim its science. Let me uphold the intellect of that great illuminator of the whole world, whose most modern intellect is pure like the Soma (moon-creeper) and beautiful.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only enjoy bliss whose intellect is purifying like the Soma (moon creeper), unparalleled strength and the science of Agni (fire and electricity).

    Foot Notes

    (पुक्षस्य ) सर्वत्र सम्बद्धस्य, सम्पूक्तस्य । पूची-सम्पर्चने (अदा० )। = Connected with all. (अरुषस्य) अहिंसकस्य । रुष-हिन्सायाम् (दिवा०)। = Non-violent, not harmful. (विदथा) विज्ञानानि। = Knowledge, sciences.

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