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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निं नरो॒ दीधि॑तिभिर॒रण्यो॒र्हस्त॑च्युती जनयन्त प्रश॒स्तम्। दू॒रे॒दृशं॑ गृ॒हप॑तिमथ॒र्युम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । नरः॑ । दीधि॑तिऽभिः । अ॒रण्योः॑ । हस्त॑ऽच्युती । ज॒न॒य॒न्त॒ । प्र॒ऽश॒स्तम् । दू॒रे॒ऽदृश॑म् । गृ॒हऽप॑तिम् । अ॒थ॒र्युम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं नरो दीधितिभिररण्योर्हस्तच्युती जनयन्त प्रशस्तम्। दूरेदृशं गृहपतिमथर्युम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। नरः। दीधितिऽभिः। अरण्योः। हस्तऽच्युती। जनयन्त। प्रऽशस्तम्। दूरेऽदृशम्। गृहऽपतिम्। अथर्युम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ नरैः कथं विद्युदुत्पादनीयेत्याह ॥

    अन्वयः

    हे नरो विद्वांसो ! यथा भवन्तो दीधितिभिर्हस्तच्युती अरण्योर्दूरे दृशमग्निं जनयन्त तथाऽथर्युं गृहपतिं प्रशस्तं कुर्वन्तु ॥१॥

    पदार्थः

    (अग्निम्) पावकम् (नरः) (दीधितिभिः) प्रदीपिकाभिः क्रियाभिः (अरण्योः) यथा काष्ठविशेषयोः (हस्तच्युती) हस्तयोः प्रच्युत्या भ्रामणक्रियया (जनयन्त) (प्रशस्तम्) उत्तमम् (दूरदेशम्) दूरे द्रष्टुं योग्यम् (गृहपतिम्) स्वामिनम् (अथर्युम्) अहिंसां कामयमानम् ॥१॥

    भावार्थः

    हे विद्वज्जना ! यथा घर्षिताभ्यामरणिभ्यामग्निरुत्पद्यते तथा सर्वैः पार्थिवैर्वायव्यैर्वा द्रव्यैर्द्रव्याणां घर्षणेन या विद्युत्सर्वव्याप्ता सत्युत्पद्यते सा दूरदेशस्थसमाचारादिव्यवहारान् साद्धुं शक्नोत्येतद्विद्यया गृहस्थानां महानुपकारो भवतीति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सातवें मण्डल के प्रथम सूक्त का आरम्भ है, इसके पहिले मन्त्र में मनुष्यों को विद्युत् अग्नि कैसे उत्पन्न करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नरः) विद्वान् मनुष्यो ! जैसे आप (दीधितिभिः) उत्तेजक क्रियाओं से (हस्तच्युती) हाथों से प्रकट होनेवाली घुमानारूप क्रिया से (अरण्योः) अरणी नामक ऊपर नीचे के दो काष्ठों में (दूरेदृशम्) दूर में देखने योग्य (अग्निम्) अग्नि को (जनयन्त) प्रकट करें, वैसे (अथर्युम्) अहिंसाधर्म को चाहते हुए (गृहपतिम्) घर के स्वामी को (प्रशस्तम्) प्रशंसायुक्त करो ॥१॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् जनो ! जैसे घिसी हुई अरणियों से अग्नि उत्पन्न होता है, वैसे सब पार्थिव द्रव्य वा वायुसम्बन्धी द्रव्यों के घिसने से जो सर्वत्र व्याप्त हुई विद्युत् उत्पन्न होती है, वह दूर देशों में समाचारादि पहुँचने रूप व्यवहारों को सिद्ध कर सकती है। इस विद्युत् विद्या से गृहस्थों का बड़ा उपकार होता है ॥१॥

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    विषय

    मंथन द्वारा प्रकट होने वाले अग्निवत् परस्पर विचार विवाद द्वारा दूरदर्शी प्रधान नायक का निर्णय।

    भावार्थ

    ( नरः ) मनुष्य ( दीधितिभिः) अंगुलियों से और (हस्तच्युती ) हाथों से घुमा २ कर ( अरण्योः ) दो अरणि काष्ठों में ऐसे ( अग्नि जनयन्त ) अग्नि को उत्पन्न करें जो ( प्रशस्तम् ) सब से उत्तम ( दूरे-दृशं ) दूरसे दीखने योग्य और ( अथर्युम् ) जो पीड़ा कष्ट भी न दे । उसी प्रकार ( नरः ) नायक लोग ( हस्त-च्युती ) हनन साधन, शस्त्रास्त्रों के सञ्चालन द्वारा शत्रुओं का नाश करके ( अरण्योः) उत्तरारणि, और अधरा-रणिवत् पूर्वपक्षी उत्तर पक्ष के दोनों दलों में से (दीधितिभिः) कर्मों को धारण करने में समर्थ सहायसहित वा उसके गुणों, प्रकाशक स्तुतियों से ( प्रशस्तम् ) गृह के स्वामीवत् राष्ट्र पालक ( अग्निं ) अग्रणी नायक और तेजस्वी पुरुष को ( जनयन्त ) प्रकट करें । अर्थात् गार्हपत्याग्नि को अरणियों से मथकर जिस प्रकार स्थापन करे उसी प्रकार राज्यशासनार्थं परस्पर वादविवाद के अनन्तर गुणवान् तेजस्वी पुरुष को नायक पद पर स्थापित करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    यज्ञाग्नि का प्रादुर्भाव

    पदार्थ

    [१] (नरः) = उन्नति पथ पर अपने को ले चलनेवाले मनुष्य (हस्तच्युती) = [हस्तप्रच्युत्याहस्तगत्या] हाथों की गति से (दीधितिभि:) = [धीयन्ते कर्मसु] अंगुलियों के द्वारा (अरण्योः) = दो अरणियों में-काष्ठविशेषों में (अग्निम्) = यज्ञाग्नि को (जनयन्त) = प्रादुर्भूत करते हैं। [२] उस अग्नि को प्रादुर्भूत करते हैं जो (प्रशस्तम्) = प्रशस्त है । सब रोगकृमियों के संहार का साधन होने से तथा वर्षा आदि का हेतु बनने से प्रशंसनीय है। (दूरेदृशम्) = दूर से दिखता है, ऊँची-ऊँची ज्वालाओं वाला होने के कारण दूर से दिखाई देता है। (गृहपतिम्) = घर का रक्षक है, नीरोगता का कारण बनकर घर को सुरक्षित करता है। (अथर्युम्) = [अतनयन्तम् ] निरन्तर गतिवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रतिदिन दो अरणियों की रगड़ से यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करें। यह यज्ञाग्नि प्रशस्त है, यह घर का रक्षण करती है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, विद्वान, श्रोता, उपदेशक, ईश्वर राजा, प्रजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! जसे अरणीच्या घर्षणाने अग्नी उत्पन्न होतो तसे पार्थिव व वायू द्रव्याच्या घर्षणाने विद्युत उत्पन्न होते. ती दूरवर वार्ता पोचविण्याचे कार्य करते. या विद्युतमुळे माणसांवर खूप उपकार होतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O leading lights of yajna, let the people produce fire by the heated friction of arani woods done with the manual motion of hands. Fire is an admirable power seen from afar and shining far and wide, sustaining home life like a guardian but otherwise silent, implicit in nature and non-violent. Further create this domestic energy by your acts of research and intelligence.

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