ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
पिबा॒ सोम॑मिन्द्र॒ मन्द॑तु त्वा॒ यं ते॑ सु॒षाव॑ हर्य॒श्वाद्रिः॑। सो॒तुर्बा॒हुभ्यां॒ सुय॑तो॒ नार्वा॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । मन्द॑तु । त्वा॒ । यम् । ते॒ । सु॒साव॑ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । अद्रिः॑ । सो॒तुः । बा॒हुऽभ्या॑म् । सुऽय॑तः । न । अर्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबा सोममिन्द्र मन्दतु त्वा यं ते सुषाव हर्यश्वाद्रिः। सोतुर्बाहुभ्यां सुयतो नार्वा ॥१॥
स्वर रहित पद पाठपिब। सोमम्। इन्द्र। मन्दतु। त्वा। यम्। ते। सुसाव। हरिऽअश्व। अद्रिः। सोतुः। बाहुऽभ्याम्। सुऽयतः। न। अर्वा ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यः किं कृत्वा कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे हर्यश्वेन्द्र ! त्वमर्वा न सोमं पिब यमद्रिः सुषाव यः सोतुः सुयतस्ते बाहुभ्यां सुषाव स त्वा मन्दतु ॥१॥
पदार्थः
(पिबा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोमम्) महौषधिरसम् (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य (मन्दतु) आनन्दयतु (त्वा) त्वाम् (यम्) (ते) तव (सुषाव) (हर्यश्व) कमनीयाश्व (अद्रिः) मेघः (सोतुः) अभिषवकर्त्तुः (बाहुभ्याम्) (सुयतः) सुन्वतो निष्पादयतः (न) (अर्वा) वाजी ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे भिषजो ! यूयं यथा वाजिनो तृणान्नजलादिकं संसेव्य पुष्टा भवन्ति तथैव सोमं पीत्वा बलवन्तो भवत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब नव ऋचावाले बाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य क्या करके कैसा हो, इस विषय को उपदेश करते हैं ॥
पदार्थ
हे (हर्यश्च) मनोहर घोड़ेवाले (इन्द्र) रोग नष्टकर्त्ता वैद्यजन ! आप (अर्वा) घोड़े के (न) समान (सोमम्) बड़ी ओषधियों के रस को (पिब) पीओ (यम्) जिसको (अद्रिः) मेघ (सुषाव) उत्पन्न करता है और जो (सोतुः) सार निकालने वा (सुयतः) सार निकालने की और सिद्धि करनेवाले (ते) आपकी (बाहुभ्याम्) बाहुओं से कार्य सिद्धि करता है वह (त्वा) आपको (मन्दतु) आनन्दित करे ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे वैद्यो ! तुम जैसे घोड़े तृण, अन्न और जलादिकों का अच्छे प्रकार सेवन कर पुष्ट होते हैं, वैसे ही बड़ी ओषधियों के रसों को पीकर बलवान् होओ ॥१॥
विषय
सूर्य मेघवत् शासकों के कर्तव्य । राजा का सोमपान, राष्ट्रपालन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (अद्रिः ) मेघ, जिस अन्न को उत्पन्न करता है उसको सूर्य अपनी किरणों से पान करता है उसी प्रकार (अद्रिः ) मेघवत् शस्त्रवर्षी और शत्रु द्वारा दीर्ण, खण्डित, या छिन्न भिन्न न होने वाले, दृढ़, हे ( हर्यश्व ) उत्तम सैन्य के स्वामिन् वा उत्तम मनुष्यों को अश्वों के समान अपने राष्ट्र-रथ में लगाने हारे सुव्यवस्थित सैन्य बल ! ( यं ) जिस ( सोमम् ) अन्नवत् उपभोग्य ऐश्वर्य को ( ते ) तेरे लिये ( अद्रिः ) मेघ व मेघवत् उदार शस्त्र बल ( सुषाव ) उत्पन्न करता है तू उसको (सोमम् ) अन्न रस और ओषधि रस के समान (पिब) उपभोग कर । वह तुझे बल दे और तेरे लिये शक्तिकारक हो। वह (त्वा मन्दतु) तुझे हर्षित करे । और ( सोतुः बाहुभ्यां सुयतः ) सञ्चालक सारथि के बाहुओं से उत्तम प्रकार से नियन्त्रित (अर्वा न ) अश्व के समान तू भी (सोतुः) उत्तम मार्ग में सञ्चालन करने वाले पुरुष के ( बाहुभ्यां ) कुमार्ग से रोकने वाले ज्ञान और कर्मरूप बाहुओं से ( सु-यतः ) उत्तम रूप से नियन्त्रित होकर तू ( सोमम् पिब ) इस राष्ट्ररूप ऐश्वर्य का पुत्र वा शिष्यवत् पालन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – भुरिगुष्णिक् । २, ७ निचृद्नुष्टुप् । ६ भुरिगनुष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । ६, ८ विराडनुष्टुप् । ४ आर्ची पंक्तिः । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। नवर्चं सूक्तम्
विषय
इन्द्र का सोमपान और राष्ट्र पालन
पदार्थ
पदार्थ - हे (हर्यश्व) = उत्तम सैन्य के स्वामिन् ! (यं) = जिस (सोमम्) = अन्नवत् ऐश्वर्य को (ते) = तेरे लिये (अद्रिः) = मेघवत् शस्त्र बल (सुषाव) = उत्पन्न करता है तू उसको (सोमम्) = ओषधि-रस के समान (पिब) = उपभोग कर। वह (त्वा मन्दन्तु) = तुझे हर्षित करे और (सोतुः बाहुभ्यां सुयतः) = सञ्चालक सारथि के बाहुओं से नियन्त्रित (अर्वा न) = अश्व के समान, तू भी (सोतुः) = मार्ग में सञ्चालन करनेवाले पुरुष के (बाहुभ्यां) = कुमार्ग से रोकनेवाले ज्ञान और कर्मरूप बाहुओं से (सुयतः) = उत्तम रूप से नियन्त्रित होकर सोमम् पिब इस राष्ट्ररूप ऐश्वर्य की रक्षा कर ।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके जो ब्रह्मचारी रहता है वही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, राजा, शूर सेनापती, अध्यापक, अध्येता, परीक्षा देणारे व उपदेश करणाऱ्यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे वैद्यांनो ! जसे घोडे तृण, अन्न व जल इत्यादी खाऊन पिऊन पुष्ट होतात तसे महौषधींचे रस प्राशन करून बलवान व्हा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord ruler and controller of the dynamic forces of the world, drink this soma of ecstasy which, I am sure, would exhilarate you. The cloud, generative power of nature, has distilled it and showered on you. And just as a horse well controlled by the hands and reins of the driver moves to the right destination, so is this soma generated by the hands of the creator meant to exhort you to take the dominion to its destination.
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