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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒यं सोम॑ इन्द्र॒ तुभ्यं॑ सुन्व॒ आ तु प्र या॑हि हरिव॒स्तदो॑काः। पिबा॒ त्व१॒॑स्य सुषु॑तस्य॒ चारो॒र्ददो॑ म॒घानि॑ मघवन्निया॒नः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । सु॒न्वे॒ । आ । तु । प्र । या॒हि॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । तत्ऽओ॑काः । पिब॑ । तु । अ॒स्य । सुऽसु॑तस्य । चारोः॑ । ददः॑ । म॒घानि॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒या॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं सोम इन्द्र तुभ्यं सुन्व आ तु प्र याहि हरिवस्तदोकाः। पिबा त्व१स्य सुषुतस्य चारोर्ददो मघानि मघवन्नियानः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। सोमः। इन्द्र। तुभ्यम्। सुन्वे। आ। तु। प्र। याहि। हरिऽवः। तत्ऽओकाः। पिब। तु। अस्य। सुऽसुतस्य। चारोः। ददः। मघानि। मघऽवन्। इयानः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कस्मै को निर्मातव्य इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मघवन् हरिव इन्द्र ! योऽयं सोमोऽस्ति यमहं तु तुभ्यं प्रसुन्वे तं त्वं पिब तदोकाः सन्नायाहि अस्य सुषुतस्य चारोस्तु मघानीयानोऽस्मभ्यं ददः ॥१॥

    पदार्थः

    (अयम्) (सोमः) ओषधिरसः (इन्द्र) दारिद्र्यविदारक (तुभ्यम्) (सुन्वे) (आ) (तु) (प्र) (याहि) गच्छ (हरिवः) प्रशस्तैर्मनुष्यैर्युक्त (तदोकाः) तच्छ्रेष्ठमोको गृहं यस्य सः (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (तु) (अस्य) (सुषुतस्य) सुष्ठु निमित्तस्य (चारोः) सुन्दरस्य (ददः) देहि (मघानि) धनानि (मघवन्) बहुधनयुक्त (इयानः) प्राप्नुवन् ॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या वैद्यकशास्त्ररीत्या निष्पादितं सर्वरोगहरं बुद्धिबलप्रदं महौषधिरसं पिबन्ति ते सुखैश्वर्यमाप्नुवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले उनतीसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में किसको कौन बनाना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बहुधन और (हरिवः) प्रशस्त मनुष्ययुक्त (इन्द्र) दारिद्र्य विनाशनेवाले ! जो (अयम्) यह (सोमः) ओषधियों का रस है जिसको मैं (तु) तो (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (प्र, सुन्वे) खींचता हूँ उसको तुम (पिब) पीओ (तदोकाः) वह श्रेष्ठ गृह जिसका है ऐसे होते हुए (आ, याहि) आओ (अस्य) इस (सुषुतस्य) सुन्दर निर्माण किये और (चारोः) सुन्दर जन के (मघानि) धनों को (इयानः) प्राप्त होते हुए हमारे लिये (ददः) देओ ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वैद्यकशास्त्र की रीति से उत्पन्न किये हुए सर्वरोग हरने और बुद्धि बल के देनेवाले, बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस को पीते हैं, वे सुख और ऐश्वर्य पाते हैं ॥१॥

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    विषय

    उत्तम ऐश्वर्य का दाता राजा ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( अयं सोमः ) यह ऐश्वर्य (तुभ्यम् ) तेरे लिये ही ( सुन्वे) उत्पन्न किया जाता है । हे ( हरिवः ) उत्तम मनुष्यों के स्वामिन् ! ( तदोकाः ) तू उस श्रेष्ठ गृह में निवास करता हुआ ( तु ) भी ( आ याहि ) हमें प्राप्त हो और ( प्र याहि ) प्रयाण कर । ( अस्य ) इस ( सु-सुतस्य ) उत्तम रीति से उत्पन्न राष्ट्र के ऐश्वर्य तथा प्रजाजन को ( तु ) भी ( पिब ) उपभोग और पालन कर । हे ( मधवन् ) ऐश्वर्यवन् ! प्राप्त होता हुआ तू हमें ( मघानि ) उत्तम ऐश्वर्य ( ददः ) प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १ स्वरापंक्तिः । ३ पंक्तिः । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूकम् ॥

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    विषय

    राजा उत्तम ऐश्वर्य दाता हो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवन् ! (अयं सोमः) = यह ऐश्वर्य (तुभ्यम्) = तेरे लिये (सुन्वे) = उत्पन्न किया है। हे (हरिवः) = मनुष्यों के स्वामिन् ! (तदोका:) = तू उस गृह में रहता हुआ तु भी (आ याहि) = हमें प्राप्त हो और (प्र याहि) = प्रयाण कर। (अस्य) = इस (सु-सुतस्य) = उत्तम रीति से उत्पन्न प्रजाजन का तु भी (पिब) = पालन कर। हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् ! (इयानः) = प्राप्त होता हुआ तू हमें (मघानि) = ऐश्वर्य (ददः) = दे |

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम राजा अपनी प्रजा को उत्तम बनाकर राष्ट्र को उन्नत करता है। उत्तम राजा अपने राज्य में उत्तम शिक्षा को फैलाकर राज्य की प्रजा को उत्तम ऐश्वर्य प्रदान कर सुखी बनाता है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, सोमपान, अध्यापक, अध्येता, परीक्षक व विद्या देणाऱ्यांच्या गुणकर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जी माणसे वैद्यकशास्त्रानुसार निष्पादित केलेले सर्व रोगहारक, बुद्धिबलप्रद महौषधी रसांचे प्राशन करतात ती सुख व ऐश्वर्य भोगतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I extract and distil this soma juice for you, Indra, lord of honour and power. Commander of the dynamic forces of the world, abiding in that house of majesty, come and drink of this juice distilled and seasoned delightfully, and while coming bring us the wealth, honour and excellence of life.

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