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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ दे॒वो या॑तु सवि॒ता सु॒रत्नो॑ऽन्तरिक्ष॒प्रा वह॑मानो॒ अश्वैः॑। हस्ते॒ दधा॑नो॒ नर्या॑ पु॒रूणि॑ निवे॒शय॑ञ्च प्रसु॒वञ्च॒ भूम॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । दे॒वः । या॒तु॒ । स॒वि॒ता । सु॒ऽरत्नः॑ । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽप्राः । वह॑मानः । अश्वैः॑ । हस्ते॑ । दधा॑नः । नर्या॑ । पु॒रूणि॑ । नि॒ऽवे॒शय॑न् । च॒ । प्र॒ऽसु॒वन् । च॒ । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ देवो यातु सविता सुरत्नोऽन्तरिक्षप्रा वहमानो अश्वैः। हस्ते दधानो नर्या पुरूणि निवेशयञ्च प्रसुवञ्च भूम ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। देवः। यातु। सविता। सुऽरत्नः। अन्तरिक्षऽप्राः। वहमानः। अश्वैः। हस्ते। दधानः। नर्या। पुरूणि। निऽवेशयन्। च। प्रऽसुवन्। च। भूम ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किंवत् किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! सुरत्नस्सविता देवोऽन्तरिक्षप्रा अश्वैर्भूगोलान् वहमानः पुरूणि नर्या दधानो निवेशयन् प्रसुवं याति तथा सर्वमेतत्प्रापयंश्चैश्वर्यं हस्ते दधानो विद्वानायातु तेन सह वयञ्चेदृशा भूम ॥१॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (देवः) दाता दिव्यगुणः (यातु) आगच्छतु (सविता) सकलैश्वर्यप्रदः (सुरत्नः) शोभनं रत्नं रमणीयं धनं यस्मादस्य वा (अन्तरिक्षप्राः) योऽन्तरिक्षं प्राति व्याप्नोति (वहमानः) प्राप्नुवन् प्रापयन् (अश्वैः) किरणैरिव महद्भिरग्निजलादिभिः (हस्ते) करे (दधानः) धरन् (नर्या) नृभ्यो हितानि (पुरूणि) बहूनि (निवेशयन्) प्रवेशयन् (च) (प्रसुवन्) प्रसुवन्ति यस्मिन् तदैश्वर्यम् (च) (भूम) भवेम ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवच्छुभगुणकर्मप्रकाशिता मनुष्यादिहितं कुर्वन्ति ते बह्वैश्वर्यं प्राप्नुवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वान् जन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (सुरत्नः) जिसके वा जिससे सुन्दर रमणीय धन होता (सविता) जो सकलैश्वर्य्य देनेवाला (देवः) दाता दिव्य गुणवान् (अन्तरिक्षप्राः) अन्तरिक्ष को व्याप्त होता (अश्वैः) किरणों के समान महान् अग्नि जल आदिकों से भूगोलों को (वहमानः) पहुँचता वा पहुँचता (पुरूणि) बहुत (नर्या) मनुष्यों के लिये हितों को (दधानः) धारण करता और (निवेशयन्) प्रवेश करता हुआ (प्रसुवम्) जिसमें नाना रूप उत्पन्न होते हैं उस ऐश्वर्य को प्राप्त होता है, वैसे इससे प्राप्त कराता हुआ (च) और ऐश्वर्य को (हस्ते) हाथ में धारण करता हुआ विद्वान् (आ, यातु) आवे, उसके साथ हम लोग (च) भी वैसे ही (भूम) होवें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य सूर्य के तुल्य शुभ गुण और कर्म से प्रकाशित, मनुष्यादि प्राणियों का हित करते हैं, वे बहुत ऐश्वर्य पाते हैं ॥१॥

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    विषय

    सविता, सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष।

    भावार्थ

    ( सविता देवः ) प्रकाशक सूर्य के समान ( सविता ) सब का प्रेरक तेजस्वी पुरुष ( अन्तरिक्ष प्राः ) आकाश को व्यापने वाला, ( सु-रत्नः ) उत्तम रत्नों के समान रमणीय गुणों को धारण करने वाला, अश्वैः वहमानः ) अश्वों के समान विद्वानों की सहायता से कार्य-भार को उठाता हुआ (आ यातु ) आवे । वह (हस्ते) अपने हाथ में ( पुरूणि) बहुत से ( नर्या ) मनुष्यों के हितार्थ नाना पदार्थों को ( दधानाः ) धारण करता हुआ और ( नि-वेशयन् च ) सबको बसाता और (प्र-सुवन् च ) उत्तम रीति से शासन करता हुआ हमें प्राप्त हो । वैसा ही हम भी (भूम) हों । अथवा वह ( भूम प्रसुवन् च ) बहुत से ऐश्वर्यों को उत्पन्न करता हुआ हमें प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ सविता देवता॥ छन्दः – १ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत्त्रिष्टुप्॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    विषय

    बनें सूर्य सम तेजस्वी

    पदार्थ

    पदार्थ- (सविता देवः) = प्रकाशक सूर्य के तुल्य सविता प्रेरक पुरुष (अन्तरिक्ष प्राः) = आकाश को व्यापनेवाला, (सु-रत्न:) = उत्तम रत्नों के तुल्य रमणीय गुणों का धारक, (अश्वैः वहमानः) = अश्वों के तुल्य विद्वानों की सहायता से कार्य - भार उठाता हुआ (आ यातु) = आवे । वह (हस्ते) = हाथ में (पुरूणि) = बहुत से (नर्या) = मनुष्यों के हितार्थ पदार्थों को (दधाना:) = धारण करता, (नि वेशयन् च) = सबको बसाता, (प्र-सुवन् च) = और ऐश्वर्यों को उत्पन्न करता हुआ प्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा सूर्य समान तेजस्वी, सबका प्रेरक तथा विद्वानों की सहायता से समस्त राजकार्य करनेवाला होवे। सबके हित की नीति बनाकर सबको बसने का उत्तम रीति तथा शासनव्यवस्था लागू करे। सबके लिए ऐश्वर्य प्राप्ति के साधन उपलब्ध करावे।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सविताप्रमाणे विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे शुभ गुण, कर्म प्रकट करतात व माणसांचे हित करतात ती अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the self-refulgent Savita, giver of light and life, come and bless, bearing jewels of life, radiating through the sky, carried by light rays, bearing in hands manifold treasures for humanity, suffusing and fertilising the earth with life and vitality. We pray we too may be brilliant and generous like the sun.

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