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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आपः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आपो॒ यं वः॑ प्रथ॒मं दे॑व॒यन्त॑ इन्द्र॒पान॑मू॒र्मिमकृ॑ण्वते॒ळः। तं वो॑ व॒यं शुचि॑मरि॒प्रम॒द्य घृ॑त॒प्रुषं॒ मधु॑मन्तं वनेम ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑ । यम् । वः॒ । प्र॒थ॒मम् । द॒व॒ऽयन्तः॑ । इ॒न्द्र॒ऽपान॑म् । ऊ॒र्मिम् । अकृ॑ण्वत । इ॒ळः । तम् । वः॒ । व॒यम् । शुचि॑म् । अ॒रि॒प्रम् । अ॒द्य । घृ॒त॒ऽप्रुष॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । व॒ने॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रपानमूर्मिमकृण्वतेळः। तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतप्रुषं मधुमन्तं वनेम ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आपः। यम्। वः। प्रथमम्। देवऽयन्तः। इन्द्रऽपानम्। ऊर्मिम्। अकृण्वत। इळः। तम्। वः। वयम्। शुचिम्। अरिप्रम्। अद्य। घृतऽप्रुषम्। मधुऽमन्तम्। वनेम ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः प्रथमे वयसि विद्यां गृह्णीयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! देवयन्तो व इळः प्रथममिन्द्रपानमापऊर्मिमिव च यमकृण्वत तं शुचिमरिप्रं घृतप्रुषं मधुमन्तं वो वयमद्य वनेम ॥१॥

    पदार्थः

    (आपः) जलानीव विद्वांसः (यम्) (वः) युष्माकम् (प्रथमम्) (देवयन्तः) कामयमानाः (इन्द्रपानम्) इन्द्रस्य जीवस्य पातुमर्हम् (ऊर्मिम्) तरङ्गमिवोच्छतम् (अकृण्वत) कुर्वन्तु (इळः) वाचः। इळेति वाङ्नाम। (निघं०१.११)(तम्) (वः) युष्मभ्यम् (वयम्) (शुचिम्) पवित्रम् (अरिप्रम्) निष्पापं निर्दोषम् (अद्य) इदानीम् (घृतप्रुषम्) घृतेनोदकेनाज्येन वा सिक्तम् (मधुमन्तम्) बहुमधुरादिगुणयुक्तम् (वनेम) विभजेम ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः प्रथमे वयसि विद्यां गृह्णन्ति युक्ताहारविहारेण शरीरमरोगं कुर्वन्ति तानेव सर्वे सेवन्ताम् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सैंतालीसवाँ सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्य प्रथम अवस्था में विद्या ग्रहण करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (देवयन्तः) कामना करते हुए जन (वः) तुम्हारी (इळः) वाणी को (प्रथमम्) और प्रथम भाग जो कि (इन्द्रपानम्) जीव को प्राप्त होने योग्य उसको (आपः) तथा बहुत जलों के समान वा (ऊर्मिम्) तरंग के समान (यम्) जिसको (अकृण्वत) सिद्ध करें (तम्) उस (शुचिम्) पवित्र (अरिप्रम्) निष्पाप निर्दोष (घृतप्रुषम्) उदक वा घी से सिंचे (मधुमन्तम्) बहुत मधुरादिगुणयुक्त पदार्थ को (वः) तुम्हारे लिए (वयम्) हम लोग (अद्य) आज (वनेम) विशेषता से भजें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो विद्वान् जन पहिली अवस्था में विद्या ग्रहण करते और युक्त आहार-विहार से शरीर को नीरोग करते हैं, उन्हीं की सब सेवा करें ॥१॥

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    विषय

    आपः।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( देवयन्तः ) सूर्यवत् रश्मियें ( इडः ) अन या भूमि के ( ऊर्मिम् ) ऊपर उठने वाले जलों के अंश को ( इन्द्रपानम् अकुर्वत ) सूर्य द्वारा पान करने योग्य करते हैं उसी प्रकार हे ( आपः ) विद्वान् प्रजाओ ! ( देवयन्तः ) देव अर्थात् राजा के समान आचरण करते हुए राजपुरुष ( वः ) आप लोगों में से ( यं ) जिस ( प्रथमं ) अग्रगण्य ( ऊर्मिम् ) तरंग के समान उन्नत पुरुष को ( इडः ) भूमि और वाणी के ऊपर ( इन्द्र-पानं ) राजावत् पालक रूप से ( अकुर्वत ) नियत करते हैं ( वयं ) हम लोग ( तं ) उस ( शुचिम्) शुद्ध, धार्मिक ( अरि-प्रम् ) निष्पाप (घृत प्रुषं ) जल से अभिषिक्त ( मधुमन्तं ) मधुर स्वभाव वाले पुरुष को ( अद्य ) आज हम ( वनेम ) सेवन करें, प्राप्त हों, उसी से प्रार्थना करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ आपो देवताः॥ छन्दः—१,३ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् पंक्तिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    विषय

    आप्तजनों के कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ- जैसे (देवयन्तः) = सूर्यवत् रश्मियें (इड:) = अन्न या भूमि के (उर्मिम्) = ऊपर उठनेवाले जलों के अंश को (इन्द्रपानम् अकृण्वत) = सूर्य द्वारा पान करने योग्य करते हैं वैसे ही हे (आपः) = विद्वान् प्रजाओ! (देवयन्तः) = राजा के तुल्य आचरण करते हुए राजपुरुष (वः) = आप में से (यं) = जिस (प्रथमं अग्रगण्य ऊर्मिम्) = तरंग-तुल्य उन्नत पुरुष को (इड:) = भूमि और वाणी के ऊपर (इन्द्र-पानं) = राजावत् पालक रूप से (अकृण्वत) नियत करते हैं (वयं) = हम लोग (तं) = उस (शुचिम्) = शुद्ध, (अरि-प्रम्) = निष्पाप (घृत प्रुषं) = जल से अभिषिक्त (मधुमन्तं) = मधुरवाणीवाले पुरुष को (अद्य) = आज (वनेम) = प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र की प्रजा विद्वान् होवे। विद्वान् आप्तजन, दिव्य आचरणवाले, प्रजा पालक वृत्तिवाले, धार्मिक, निष्पाप, मधुर स्वभाववाले, उन्नत पुरुष को राजा के पद पर अभिषिक्त करें।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान स्त्री - पुरुषांच्या गुणांचे असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान प्रथमावस्थेत विद्या ग्रहण करतात व युक्त आहार-विहाराने शरीर निरोगी करतात त्यांचीच सेवा सर्वांनी करावी. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O cosmic waters, seers and sages in pursuit of divinity, we love and yearn for that pure, divine, delicious and honey sweet primordial thrill of the ecstasy drink of yours which you distilled from the Cosmic Word, original nature and the earth for the taste of Indra, the human soul, at the dawn of creation.

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