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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
आ॒दि॒त्यासो॒ अदि॑तयः स्याम॒ पूर्दे॑व॒त्रा व॑सवो मर्त्य॒त्रा। सने॑म मित्रावरुणा॒ सन॑न्तो॒ भवे॑म द्यावापृथिवी॒ भव॑न्तः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ॒दि॒त्यासः॑ । अदि॑तयः । स्या॒म॒ । पूः । दे॒व॒ऽत्रा । व॒स॒वः॒ । म॒र्त्य॒ऽत्रा । सने॑म । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । सन॑न्तः । भवे॑म । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ । भव॑न्तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्यासो अदितयः स्याम पूर्देवत्रा वसवो मर्त्यत्रा। सनेम मित्रावरुणा सनन्तो भवेम द्यावापृथिवी भवन्तः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआदित्यासः। अदितयः। स्याम। पूः। देवऽत्रा। वसवः। मर्त्यऽत्रा। सनेम। मित्रावरुणा। सनन्तः। भवेम। द्यावापृथिवी। भवन्तः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा वयं देवत्राऽऽदित्यासोऽदितयः स्याम यथा मर्त्यत्रा वसवस्सन्तस्सनेम पूरिव मित्रावरुणा सनन्तो द्यावापृथिवी इव भवन्तो भवेम तथा यूयमपि भवत ॥१॥
पदार्थः
(आदित्यासः) मासा इव (अदितयः) अखण्डिताः (स्याम) भवेम (पूः) नगरीव (देवत्रा) देवेषु वर्तमानाः (वसवः) निवसन्तः (मर्त्यत्रा) मर्त्येषूपदेशकाः (सनेम) विभजेम (मित्रावरुणा) प्राणोदानौ (सनन्तः) सेवमानाः (भवेम) (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी इव (भवन्तः) ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं आप्तविद्वद्वद्वर्तित्वा धार्मिकेषु विद्वत्सु न्युष्य सत्यासत्ये विभज्य सूर्यभूमीवत् परोपकारं कृत्वा विश्वसुखाय प्राणोदानवत् सर्वेषामुन्नतये भवतः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (देवत्रा) देवों में वर्त्तमान (आदित्यासः) महीने के समान (अदितयः) अखण्डित (स्याम) हों जैसे (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में उपदेशक (वसवः) निवास करते हुए (सनेम) विभाग करें (पूः) नगरी के समान (मित्रावरुणा) प्राण और उदान दोनों (सनन्तः) सेवन करते हुए (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि के समान (भवन्तः) आप (भवेम) हों, वैसे आप भी हों ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! तुम आप्त विद्वान् के समान वर्त कर धार्मिक विद्वानों में निरन्तर बस कर सत्य और असत्य का विभाग कर सूर्य और भूमि के समान परोपकार कर विश्व के सुख के लिये प्राण और उदान के सदृश सब की उन्नति के लिये होओ ॥१॥
विषय
ब्रह्मचर्यनिष्ठ विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( आदित्यासः ) आदित्य के समान तेजस्वी, ब्रह्मचारी निष्ठ पुरुषो ! हम लोग भी ( अदितयः ) अखण्ड बलशाली (स्याम) हों । हे ( वसवः ) गुरु के अधीन रहकर ब्रह्मचर्य पालन करने हारे विद्वान् पुरुषो आप लोग, ( देवत्रा ) विद्वानों और ( मर्त्यत्रा ) मनुष्यों के बीच ( पू: ) नगरी के समान सब के रक्षक होओ। हे ( मित्रावरुणा ) प्राण उदान के समान प्रिय और श्रेष्ठ जनो ! हम लोग ( सनन्तः ) ऐश्वर्य को प्राप्ति वा भोग करते हुए भी (सनेम) दान किया करें । हे ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य पृथिवीवत् माता पिता जनो ! हम ( भवन्तः ) उत्तम सामर्थ्यवान् होकर ( भवेम् ) सदा रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ आदित्या देवताः॥ छन्दः – १, ३ स्वरापंक्तिः। २ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम॥
विषय
प्राणसाधना
पदार्थ
पदार्थ- हे (आदित्यासः) = आदित्य तुल्य तेजस्वी पुरुषो! हम लोग (अदितयः) = अखण्ड बलशाली (स्याम) = हों। हे (वसवः) = गुरु के अधीन बसने हारे विद्वान् पुरुषो! आप, (देवत्रा) = विद्वानों और (मर्त्यत्रा) = मनुष्यों में (पू:) = नगरी तुल्य सबके रक्षक होओ। हे (मित्रावरुणा) = प्राण उदान तुल्य प्रिय और श्रेष्ठ जनो! हम लोग (सनन्तः) = ऐश्वर्य प्राप्त करते हुए (सनेम) = दान किया करें । हे (द्यावापृथिवी) = सूर्य-पृथिवीवत् माता-पिता जनो! हम (भवन्तः) = सामर्थ्यवान् होकर (भवेम) = रहें ।
भावार्थ
भावार्थ- आदित्य ब्रह्मचारी ब्रह्मनिष्ठ विद्वान् लोगों को प्राण साधना की श्रेष्ठ रीति सिखावें ऐश्वर्य तथा भौतिक जिससे सब लोग इस शरीर में दिव्य शक्तियो का जागरण कर आध्यात्मिक सफलताओं को प्राप्त करने में समर्थ होवें। और सूर्य समान तेजस्वी व पृथिवी समान धैर्यशाली बन सकें।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विश्वेदेवाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो, तुम्ही विद्वानाप्रमाणे वागून धार्मिक विद्वानांमध्ये सतत वास करून सत्य-असत्याचा भेद करा. सूर्य व भूमीप्रमाणे परोपकार करून विश्वाच्या सुखासाठी प्राण, अपानाप्रमाणे सर्वांची उन्नती करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Adityas, dynamic unassailable lights of the world, may we too be brilliant and unassailable. O Vasus, shelter homes of life, let us be servants of divinity and servants of humanity, shelter and comfort for all, holy as the city. O Mitra and Varuna, sun and ocean, joining and serving you, let us acquire depth and brilliance. O earth and heaven, trying to be like you, let us be generous and free and blest beyond all bonds of lower existence.
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