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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्वे॑ति सु॒भगो॑ वि॒श्वच॑क्षा॒: साधा॑रण॒: सूर्यो॒ मानु॑षाणाम् । चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य दे॒वश्चर्मे॑व॒ यः स॒मवि॑व्य॒क्तमां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । ए॒ति॒ । सु॒ऽभगः॑ । वि॒श्वऽच॑क्षाः । साधा॑रणः । सूर्यः॑ । मानु॑षाणाम् । चक्षुः॑ । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । दे॒वः । चर्म॑ऽइव । यः । स॒म्ऽअवि॑व्यक् । तमां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वेति सुभगो विश्वचक्षा: साधारण: सूर्यो मानुषाणाम् । चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य देवश्चर्मेव यः समविव्यक्तमांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ऊँ इति । एति । सुऽभगः । विश्वऽचक्षाः । साधारणः । सूर्यः । मानुषाणाम् । चक्षुः । मित्रस्य । वरुणस्य । देवः । चर्मऽइव । यः । सम्ऽअविव्यक् । तमांसि ॥ ७.६३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्राणायामादिसंयमैर्ध्येयस्य परमात्मनो ध्यानमुपदिश्यते।

    पदार्थः

    (यः, देवः) यः ज्योतिःस्वरूपः परमात्मा (मित्रस्य, वरुणस्य) अध्यापकोपदेशकयोः (चक्षुः) नेत्रम् अस्ति अन्यच्च यः (तमांसि) अज्ञानानि (चर्म, इव) तृणानीव (सम्) सम्यक्तया (अविव्यक्) नाशयति, स एव (मानुषाणां) सर्वमनुजानां (साधारणः) सामान्यरूपेण (सूर्यः) प्रकाशकः (विश्वचक्षाः) सर्वद्रष्टा (सुभगः) ऐश्वर्यसम्पन्नोऽस्ति, स परमात्मा प्राणायामादिसंयमैः (उद्वेति) प्रकटीभवति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्राणायामादि संयमों द्वारा ध्येय परमात्मा का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (यः, देवः) जो दिव्यरूप परमात्मा (मित्रस्य, वरुणस्य) अध्यापक तथा उपदेशकों को (चक्षुः) मार्ग दिखलानेवाला और जो (तमांसि) अज्ञानों को (चर्म, इव) तुच्छ तृणों के समान (सम्) भले प्रकार (अविव्यक्) नाश करता है, वही (मानुषाणां) सब मनुष्यों का (साधारणः) सामान्यरूप से (सूर्यः) प्रकाशक, (विश्वचक्षाः) सर्वद्रष्टा और (सुभगः) ऐश्वर्यसम्पन्न है, वह परमात्मदेव प्राणायामादि संयमों से (उद्वेति) प्रकाशित होता है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मदेव ही अध्यापक तथा उपदेशकों को सन्मार्ग दिखलानेवाला, सब प्रकार के अज्ञानों का नाशक है, वह सर्वद्रष्टा, सर्वप्रकाशक तथा सर्वैश्वर्यसम्पन्न परमात्मा प्राणायामादि संयमों द्वारा हमारे हृदय में प्रकाशित होता है, इसी भाव को “चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य” यजु॰ ७।४२॥ में प्रतिपादन किया है कि वही परमात्मा सबका प्रकाशक और सन्मार्ग दिखलानेवाला है। “साधारणः” शब्द सामान्यभाव से सर्वत्र व्याप्त होने के अभिप्राय से आया है, जिसका अर्थ ऊपर स्पष्ट है ॥१॥

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    विषय

    सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( सूर्यः ) सूर्य ( देवः ) प्रकाशयुक्त होकर ( तमांसि चर्म इव ) अन्धकारों को चर्म के समान ( सम् अविव्यक ) एक साथ ही छिन्न भिन्न कर देता है और ( मानुषाणां साधारणः ) सब मनुष्यों के प्रति एक समान प्रकाशित ( विश्व-चक्षा: उद् एति उ ) होकर सबको दिखाता हुआ उदित होता है और ( मित्रस्य वरुणस्य चक्षुः ) मित्र, दिन और वरुण रात्रि दोनों का भी प्रकाशक होता है उसी प्रकार (सु-भगः ) उत्तम ऐश्वर्यवान् ( सूर्यः ) सूर्य के समान तेजस्वी, ( मानुषाणां साधारणः ) सब मनुष्यों के प्रति एक समान और (विश्व-चक्षाः) सबका द्रष्टा, सबका मार्गदर्शी विद्वान् वा राजा भी ( मित्रस्य ) अपने स्नेही और ( वरुणस्य ) श्रेष्ठ पुरुष का भी ( चक्षुः ) नेत्र के समान मार्गदर्शक हो । वह ( देवः ) विद्वान् (तमांसि ) अज्ञान शोकादि अन्धकारों को ( चर्म इव सम् अविव्यक् ) चर्म के समान एक साथ ही अच्छी प्रकार छिन्न भिन्न करे । राजा शत्रु दल को छिन्न भिन्न करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    मार्गदर्शक विद्वान्

    पदार्थ

    पदार्थ- जैसे (सूर्यः) = सूर्य (देवः) = प्रकाशयुक्त होकर (तमांसि चर्म इव) = अन्धकारों को चर्म के समान (सम् अविव्यक्) = एक साथ छिन्न-भिन्न करता है और (मानुषाणां साधारणः) = मनुष्यों के प्रति एक समान प्रकाशित होकर (विश्व-चक्षाः उद् एति उ) = सबको दिखाता हुआ उदित होता है और (मित्रस्य वरुणस्य चक्षुः) = मित्र, दिन और वरुण, रात्रि दोनों का प्रकाशक होता है वैसे ही (सु-भगः) = उत्तम ऐश्वर्यवान् (सूर्यः) = सूर्य-समान तेजस्वी, (मानुषाणां साधारणः) = मनुष्यों के प्रति एक समान और (विश्व-चक्षाः) = सबका मार्गदर्शी विद्वान् वा राजा भी (मित्रस्य) = अपने स्नेही और (वरुणस्य) = श्रेष्ठ पुरुष का भी (चक्षुः) = नेत्र के समान मार्गदर्शक हो। वह (देवः) = विद्वान् (तमांसि) = अज्ञान अन्धकारों को (चर्म इव सम् अविव्यक्) = चर्म के समान एक साथ छिन्न-भिन्न करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम विद्वान् जन राष्ट्र में लोगों के अज्ञान को अपने वेद ज्ञान के प्रकाश से नष्ट करके उनका मार्गदर्शन करें। वे समानता, बन्धुत्व तथा मधुर व्यवहार सिखाकर राष्ट्र को उन्नत करने में सहायक होवें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The glorious Sun, self-refulgent sovereign lord of the universe, rises high and higher, watching the world, giving light and intelligence to humanity in general. The lord that gives light to the day and depth to the ocean dispels all darkness and confusion as the storm disperses leaves of dry grass. (The mantra refers to the rise of the light of Divinity in the soul of the individual human being during meditation. The Light blesses any one who practices meditation under the instructions of a teacher and continues the practice with unquestionable faith.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वरच, अध्यापक, उपदेशक यांना सन्मार्ग दाखविणारा, सर्व प्रकारच्या अज्ञानाचा नाशक आहे. तो सर्वद्रष्टा, सर्वप्रकाशक तसेच ऐश्वर्यसंपन्न असून, प्राणायाम इत्यादी संयमाद्वारे आमच्या हृदयात प्रकट होतो. ‘चित्रं देवानामुद्ग्दनीकं चक्षुर्मित्रस्य’ यजु. ७/४२ मध्ये प्रतिपादित केलेले आहे. तोच परमात्मा सर्वांचा प्रकाशक व सन्मार्गदर्शक आहे. साधारण: शब्द सामान्यपणे सर्वत्र व्याप्त होणारा या अर्थाने आलेला आहे. ॥१॥

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