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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रति॑ वां॒ सूर॒ उदि॑ते सू॒क्तैर्मि॒त्रं हु॑वे॒ वरु॑णं पू॒तद॑क्षम् । ययो॑रसु॒र्य१॒॑मक्षि॑तं॒ ज्येष्ठं॒ विश्व॑स्य॒ याम॑न्ना॒चिता॑ जिग॒त्नु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । वा॒म् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । सु॒ऽउ॒क्तैः । मि॒त्रम् । हु॒वे॒ । वरु॑णम् । पू॒तऽद॑क्षम् । ययोः॑ । अ॒सु॒र्य॑म् । अक्षि॑तम् । ज्येष्ठ॑म् । विश्व॑स्य । याम॑न् । आ॒ऽचिता॑ । जि॒ग॒त्नु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति वां सूर उदिते सूक्तैर्मित्रं हुवे वरुणं पूतदक्षम् । ययोरसुर्य१मक्षितं ज्येष्ठं विश्वस्य यामन्नाचिता जिगत्नु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । वाम् । सूरे । उत्ऽइते । सुऽउक्तैः । मित्रम् । हुवे । वरुणम् । पूतऽदक्षम् । ययोः । असुर्यम् । अक्षितम् । ज्येष्ठम् । विश्वस्य । यामन् । आऽचिता । जिगत्नु ॥ ७.६५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रातः सूर्य्योदयसमये परमात्मानं वर्णयन्त ऐश्वर्य्यं प्रार्थयन्ते। अथ सूर्य्योदये परमात्मोपासनं कथ्यते ।

    पदार्थः

    (सूरे, उदिते) सूर्य्योदयसमये (मित्रम्) सर्वमित्रं परमात्मानं (वरुणम्) सर्वैः सेवनीयं (पूतदक्षं) पवित्रनीतिम् एवंविधं परमात्मानं (सूक्तैः) मन्त्रसमूहैः अहं सर्वदा (हुवे) आह्वये तथा च (वां) अध्यापकोपदेशकयोः शिक्षालाभार्थम् आह्वानं करोमीत्यर्थः, (ययोः) अध्यापकोपदेशकयो राजा तथा प्रजा आह्वानं करोति अन्यच्च, (अक्षितं) क्षयरहितम् (असुर्यं) अपरिमितबलसंयुक्तं (ज्येष्ठं) सर्वोपरि विराजमानं (विश्वस्य, यामन्) सम्पूर्णयुद्धजेतारम् आह्वयामि (आचिता) बृहद्युद्धविज्ञानवन्तौ यौ अध्यापकोपदेशकौ तयोराह्वानं कार्य्यम् इति शेषः, य एवं करोति स सङ्ग्रामे शत्रुसङ्घस्य (जिगत्नुः) जेता भवति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रात:काल सूर्योदयसमय परमात्मा का उपासन कथन करते हुए उससे ऐश्वर्य्यप्राप्ति की प्रार्थना करतें हैं। अब सूर्योदयसमय में परमात्मा का उपासन कहते हैं।

    पदार्थ

    (वां) हे राजा तथा प्रजाजनसमुदाय ! तुम सब (सूरे, उदिते) सूर्योदयकाल में (मित्रं) सबका मित्र (वरुणं) सबका उपासनीय (पूतदक्षं) पवित्र नीतिवाले परमात्मा के (प्रति) समक्ष (सूक्तैः) मन्त्रों द्वारा (हुवे) उपासना करो, (ययोः) जो उपासक राजा तथा प्रजाजन (अक्षितं, असुर्यं) अपरिमित बलवाले (ज्येष्ठं) सबसे बड़े (विश्वस्य, यामन्) संसार-भर के संग्रामों में (आचिता) वृद्धिवाले देव की उपासना करते हैं, वे (जिगत्नुः) अपने शत्रुओं को संग्रामों में जीत लेते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे  पुरुषों ! तुम सब सूर्योदयकाल में वेदमन्त्रों द्वारा सर्वपूज्य परमात्मा की उपासना करो, जिससे तुम्हें अक्षत बल तथा मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति होगी और तुम संग्राम में अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे । यहाँ द्विवचन से राजा तथा प्रजा दोनों का ग्रहण है अर्थात् राजा और प्रजा दोनों उपासनाकाल में प्रार्थना करें कि हे भगवन् ! आप हमको अक्षत बल प्रदान करें, जिससे हम अपने शत्रुओं को जीत सकें ॥ इस मन्त्र में सूर्योदयसमय सन्ध्या तथा उपासना का विधान स्पष्ट पाये जाने से सबका परम कर्त्तव्य है कि सूर्योदयसमय ब्राह्म मुहूर्त में परमात्मा की उपासना करें, जिससे बुद्धि, बल तथा सब प्रकार का ऐश्वर्य्य प्राप्त हो ॥१॥

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    विषय

    मित्र और वरुण, राजा-प्रजा वर्ग के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (ययोः ) जिनका ( अक्षितम् ) कभी नाश न होने वाला, ( असुर्यम् ) प्राणों में रमण करने वाले, 'असुर' अर्थात् जीवों के हितकारक, ( ज्येष्ठं ) सबसे श्रेष्ठ बल ( विश्वस्य) सबको (जिगत्नु ) जीतने वाला, सबसे अधिक है वे दोनों ( यामन् ) राज्यादि शासन, राज्यप्रबन्ध के कार्य में ( आचिता ) आदर प्राप्त करने योग्य हों । ( सूरे उदिते ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष के ( उदिते ) उदय होने वा सर्वोपरि प्रधान पद प्राप्त कर लेने पर मैं ( वाम् ) आप दोनों नर नारी वर्गों और राजा प्रजा वर्गों में से ( पूत-दक्षं ) पवित्र बल और आचारवान् ( मित्रं ) सर्व स्नेही और ( वरुणं ) श्रेष्ठ जन को ( सूक्तैः ) उत्तम वचनों से मैं प्रजाजन ( प्रति हुवे ) प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करूं । अर्थात् तेजस्वी राजा के अधीन रहकर भी प्रजा अति बलशाली, प्रजास्नेही, सर्वविजयी बलवान् पुरुषों का सदा आदर करती रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    राजा प्रजा के कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ - (ययोः) = जिनका (अक्षितम्) = अविनाशी, (असुर्यम्) = प्राणों में रमण करनेवाले, 'असुर' अर्थात् जीवों के हितकारक, (ज्येष्ठं) = श्रेष्ठ बल (विश्वस्य) = सबको (जिगत्लु) = जीतनेवाला है वे दोनों (यामन्) = राज्यप्रबन्ध के कार्य में (आचिता) = आदर प्राप्त करने योग्य हों। (सूरे उदिते) = सूर्य तुल्य तेजस्वी पुरुष के उदय होने, वा सर्वोपरि पद प्राप्त कर लेने पर मैं (प्रजाजन वाम्) = आप दोनों नर नारी और राजा-प्रजा-वर्गों में से (पूतदक्षं) = पवित्र बल और (आचारवान् मित्रं) = सर्व स्नेही और (वरुणं) = श्रेष्ठ जन को (सूक्तै:) = उत्तम वचनों से प्रति हुवे प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ-राजा को योग्य है कि वह प्रजा के हितकारी श्रेष्ठ कर्मपरायण पुरुषों व स्त्रियों को राज्य प्रबन्ध के कार्य हेतु उन्नत व सर्वोपरि पदों पर नियुक्त करे। प्रजा जन ऐसे तेजस्वी पवित्र आचारवान् पदाधिकारियों का सम्मान करें तथा आज्ञापालन में रहकर अनुशासन बनावें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Early at the dawn of sun rise, with songs of adoration, I invoke and worship Mitra, lord of infinite love and universal friendship, Varuna, lord of omniscient wisdom, judgement and justice, lords of pure omnipotence whose life giving energy and power is boundless and imperishable, first, foremost and highest, and when invoked and realised, it is all victorious in the battles of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे पुरुषांनो! तुम्ही प्रात:काळी वेदमंत्राद्वारे पूजनीय परमात्म्याची उपासना करा. ज्यामुळे तुम्हाला अखंड बल व मनोवांछित फल मिळेल व तुम्ही युद्धात आपल्या शत्रूंवर विजय प्राप्त कराल. येथे द्विवचनाने राजा व प्रजा दोन्हींचे ग्रहण करता येते. अर्थात, प्रजा व राजा यांनी उपासना काळात प्रार्थना करावी, की हे देवा! तू आम्हाला अक्षय बल दे. त्यामुळे आम्ही आमच्या शत्रूंना जिंकू शकू.

    टिप्पणी

    या मंत्रात सूर्योदयाच्या वेळी संध्या व उपासनेचे स्पष्ट विधान केलेले आहे. त्यामुळे सर्वांचे परम कर्तव्य आहे, की सूर्योदयाच्या वेळी ब्राह्ममुहूर्ताच्या समयी परमेश्वराची उपासना करावी. ज्यामुळे बुद्धी बल व सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे. ॥१॥

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