ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 69/ मन्त्र 1
आ वां॒ रथो॒ रोद॑सी बद्बधा॒नो हि॑र॒ण्ययो॒ वृष॑भिर्या॒त्वश्वै॑: । घृ॒तव॑र्तनिः प॒विभी॑ रुचा॒न इ॒षां वो॒ळ्हा नृ॒पति॑र्वा॒जिनी॑वान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । रथः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । ब॒द्ब॒धा॒नः । हि॒र॒ण्ययः॑ । वृष॑ऽभिः । या॒तु॒ । अश्वैः॑ । घृ॒तऽव॑र्तनिः । प॒विऽभिः॑ । रु॒चा॒नः । इ॒षाम् । वो॒ळ्हा । नृ॒ऽपतिः॑ । वा॒जिनी॑ऽवान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां रथो रोदसी बद्बधानो हिरण्ययो वृषभिर्यात्वश्वै: । घृतवर्तनिः पविभी रुचान इषां वोळ्हा नृपतिर्वाजिनीवान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । रथः । रोदसी इति । बद्बधानः । हिरण्ययः । वृषऽभिः । यातु । अश्वैः । घृतऽवर्तनिः । पविऽभिः । रुचानः । इषाम् । वोळ्हा । नृऽपतिः । वाजिनीऽवान् ॥ ७.६९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 69; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथात्र सूक्ते परमात्मा रथस्य रूपकालङ्कारेण राजपुरुषेभ्यः सन्मार्गमुपदिशति।
पदार्थः
हे राजकीयाः पुरुषाः ! (वाम्) युष्माकं (रथः) रथः (हिरण्ययः) प्रकाशमयः (वृषभिः, अश्वैः) बलिभिः तुरङ्गमैर्युक्तः (घृतवर्तनिः) स्नेहवर्त्या दीप्तः (पविभिः, रुचानः) वज्रमयैः पदार्थै रोचमानः (इषाम्) ऐश्वर्य्याणां (वोळ्हा) प्रापकोऽस्ति तत्र रथे (वाजिनीवान्) स्थितिमान् (नृपतिः) आत्मरूपो राजा (रोदसी) द्यावापृथिव्योः अव्याहतगतिः सन् (आ) सर्वतः (बद्बधानः) विजयं कुर्वन् (यातु) गमनशीलो भवतु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इस सूक्त में परमात्मा रथ के रूपकालङ्कार द्वारा राजपुरुषों को सन्मार्ग का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
हे राजपुरुषो ! (वां, रथः) तुम्हारा रथ (हिरण्ययः) जो ज्योति= प्रकाशवाला (वृषभिः, अश्वैः) बलवान् घोड़ोंवाला (घृतवर्तनिः) स्नेह की बत्ती से प्रकाशित (पविभिः, रुचानः) दृढ़ अस्थियों से बना हुआ (इषां, वोळ्हा, वाजिनीवान्) और जो सब प्रकार का ऐश्वर्य्य तथा बलों का देनेवाला है, उसमें तुम्हारा बैठा हुआ (नृपतिः) आत्मारूप राजा (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक में अव्याहतगति होकर (आ, बद्बधानः) सब ओर से भली-भाँति विजय करता हुआ (यातु) गमन करे ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में रथ के रूपकालङ्कार से परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषों ! तुम्हारा शरीररूपी रथ, जिसमें इन्द्रियरूप बलवान् घोड़े जुते हुए हैं, जो दृढ़ अस्थियों से बना हुआ है, जिसमें वीर्यरूप स्नेह से बनी हुई वर्तिका=बत्ती जल रही है, जो सब प्रकार के ऐश्वर्य्य तथा बलों का बढ़ानेवाला है, उसमें स्थित आत्मारूप राजा अव्याहतगति= बिना रोक-टोक सर्वत्र गमनशील हो अर्थात् तुम लोग पृथिवी और द्युलोक के मध्य में सर्वत्र गमन करो, यह हमारा तुम्हारे लिए आदेश है ॥१॥
विषय
दो अश्वी, राजा और विद्वान्, गृहस्थ के कर्त्तव्य । रथवत् गृहस्थाश्रम ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( रथः हिरण्ययः ) लोह सुवर्णादि धातु का बना उत्तम रथ ( वृषभिः अश्वैः याति) बलवान् अश्वों या वेगवान् बैलों से चलता है, वह (घृतवर्तनि: ) जल से सिंचे मार्ग पर चलने हारा और (पविभिः रुचानः ) चक्रधाराओं से सुशोभित और ( इषां वोढा ) अभिलषित अन्नादि सामग्री का वहन करने वाला, और ( वाजिनीवान् ) उत्तम बलवती शक्ति से युक्त होकर (नृ-पतिः) मनुष्यों का रक्षक होता है उसी प्रकार (वाजिनीवान्) उत्तम बलवती सेना, उत्तम ज्ञान ऐश्वर्य से सम्पन्न वाणी और भूमि का स्वामी, (नृ-पतिः) मनुष्यों का पालक राजा, (रथः) रमणीय स्वभाव वाला, उत्तम विद्या का उपदेष्टा, प्रजा को रमाने हारा ( हिरण्ययः ) हितैषी और सुखप्रद, ( बद्धधानः ) दुष्टों को बाधा, और बन्धनादि करता हुआ, ( वृषभिः अश्वैः ) उत्तम बलवान्, विद्याओं में पारंगत वीर पुरुषों सहित (रोदसी वां) सूर्य भूमिवत् सम्बद्ध आप दोनों राज प्रजावर्गो और गृहस्थ स्त्री पुरुषों को ( आ यातु ) प्राप्त हो । वह ( घृत-वत्तनिः ) तेजो युक्त स्निग्ध मार्ग से जाने वाला उत्तम व्यवहारवान् और ( पविभिः रुचानः ) पवित्र आचरणों से युक्त, उत्तम हथियारों से सुशोभित गृहस्थ ( इषां वोढा ) अभिलषित दाराओं से विवाह करने हारा हो और राजा ( इषां वोढा ) सेनाओं को अपने ज़िम्मे लेकर चलने हारा हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ७ त्रिष्टुप् । ३ आर्षी स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राजा का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- जैसे (रथः हिरण्ययः) = लोह-सुवर्णादि धातु का बना रथ (वृषभिः अश्वैः याति) = बलवान् अश्वों या बैलों से चलता है, वह (घृतवर्तनि:) = जल से सिंचे मार्ग पर चलने हारा और (पविभिः रुचानः) = चक्रधाराओं से सुशोभित और (इषां वोढा) = इष्ट अन्नादि का वहन करनेवाला और (वाजिनीवान्) = बलवती शक्ति से युक्त होकर (नृपतिः) = मनुष्यों का रक्षक होता है वैसे ही (वाजिनीवान्) = बलवती सेना, ज्ञानसम्पन्न वाणी और भूमि का स्वामी, (नृ-पतिः) = प्रजा पालक राजा, (रथः) = रमणीय-स्वभाव, उत्तम विद्या का उपदेष्टा, प्रजा को रमाने हारा (हिरण्ययः) = हितैषी और सुखप्रद (बद्वधानः) = दुष्टों को बाधा और बन्धनादि करता हुआ, (वृषभिः अश्वैः) = विद्याओं में पारंगत वीर पुरुषों सहित (रोदसी वां) = सूर्य-भूमिवत् सम्बद्ध आप दोनों राजा-प्रजावर्गों और गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को (आ यातु) प्राप्त हो । वह (घृतवर्त्तनि:) = स्निग्ध मार्ग से जानेवाला, उत्तम व्यवहारवान् और (पविभिः रुचान:) = पवित्र आचरणयुक्त, उत्तम हथियारों से सुशोभित गृहस्थ (इषां वोढा) = अभिलषित दार से विवाह करने हारा हो और राजा (इषां वोढा) = सेनाओं को अपने जिम्मे लेकर चलने हारा हो ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा को योग्य है कि वह सुदृढ़ धातुओं से रथों व यन्त्रों का निर्माण करावे, युद्धविद्या में पारंगत वीर पुरुषों को सेना में उत्तम पद प्रदान कर सेनापति के सहयोग से राष्ट्र की प्रजा की रक्षा करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
O harbingers of light and fresh life for the dawn of a new day, let your golden chariot traversing heaven, earth and the skies by powerful forces on blazing wheels across the cosmic waters come to us loaded with nourishments and inspiring energies and be the guide and protector of humanity for higher victories. (The mantra is an address to the brilliant powers of social governance and management for the protection and progress of the people. These powers should act as harbingers of fresh life and energy with the light of a new sun at the rise of a new dawn every day.)
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात रथाच्या रूपकालंकाराने परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजपुरुषांनो! तुमचा हा शरीररूपी रथ आहे. ज्यात इंद्रियरूपी बलवान घोडे जुंपलेले आहेत. तो दृढ अस्थींनी बनलेला आहे. ज्यात वीर्यरूपी स्नेहाने भरलेली वात जळत आहे. जो सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्य व बलाला वाढविणारा आहे. त्यात स्थित आत्मारूपी राजा अडथळा न येता सतत सर्वत्र गमनशील असतो. अर्थात, तुम्ही पृथ्वी व द्युलोकात सर्वत्र गमन करा. हा तुमच्यासाठी आदेश आहे. ॥१॥
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