ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
प्र वो॑ दे॒वं चि॑त्सहसा॒नम॒ग्निमश्वं॒ न वा॒जिनं॑ हिषे॒ नमो॑भिः। भवा॑ नो दू॒तो अ॑ध्व॒रस्य॑ वि॒द्वान्त्मना॑ दे॒वेषु॑ विविदे मि॒तद्रुः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । दे॒वम् । चि॒त् । स॒ह॒सा॒नम् । अ॒ग्निम् । अश्व॑म् । न । वा॒जिन॑म् । हि॒षे॒ । नमः॑ऽभिः । भव॑ । नः॒ । दू॒तः । अ॒ध्व॒रस्य॑ । वि॒द्वान् । त्मना॑ । दे॒वेषु॑ । वि॒वि॒दे॒ । मि॒तऽदुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो देवं चित्सहसानमग्निमश्वं न वाजिनं हिषे नमोभिः। भवा नो दूतो अध्वरस्य विद्वान्त्मना देवेषु विविदे मितद्रुः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। देवम्। चित्। सहसानम्। अग्निम्। अश्वम्। न। वाजिनम्। हिषे। नमःऽभिः। भव। नः। दूतः। अध्वरस्य। विद्वान्। त्मना। देवेषु। विविदे। मितऽद्रुः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कीदृशं राजानं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽहं वः सहसानं देवमग्निमश्वं न वाजिनं नमोभिः प्र हिषे तथैतं यूयमपि वर्धयत। हे राजँस्त्मना यो देवेषु मितद्रुर्विद्वान् विविदे तं प्राप्य नोऽध्वरस्य दूतो भव ॥१॥
पदार्थः
(प्र) (वः) युष्मान् (देवम्) दातारम् (चित्) अपि (सहसानम्) (अग्निम्) विद्यया प्रकाशमानम् (अश्वम्) आशुगामिनम् (न) इव (वाजिनम्) प्रशस्तवेगवन्तम् (हिषे) प्रहिणोमि (नमोभिः) अन्नादिभिः (भवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (दूतः) सुशिक्षितो दूत इव (अध्वरस्य) अहिंसामयस्य न्याय्यव्यवहारस्य (विद्वान्) (त्मना) आत्मना (देवेषु) विद्वत्सु (विविदे) विद्वत्सु (विविदे) विज्ञायते (मितद्रुः) यो मितं शास्त्रसंमितं द्रवति प्राप्नोति सः ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यो हि प्रजाक्षेपं सहतेऽश्व इव सर्वकार्याणि सद्यो व्याप्नोति विद्वत्सु विद्वान् दूत इव प्राप्तसमाचारो भवेत्तमेव राजानं कुरुत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले सातवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में कैसे पुरुष को राजा करें, इस विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे मैं (वः) तुमको (सहसानम्) यज्ञ के साधक (देवम्) दानशील (अग्निम्) विद्या से प्रकाशमान (अश्वम्, न) शीघ्र चलनेवाले घोड़े के तुल्य (वाजिनम्) उत्तम वेगवाले (नमोभिः) अन्नादि करके (प्र, हिषे) अच्छी वृद्धि करता हूँ, वैसे इसको तुम लोग भी बढ़ाओ। हे राजन् ! (त्मना) आत्मा से जो (देवेषु) विद्वानों में (मितद्रुः) शास्त्रानुकूल पदार्थों को प्राप्त होनेवाला (विद्वान्) विद्वान् (विविदे) जाना जाता है उसको प्राप्त होके (नः) हमारे (अध्वरस्य) अहिंसा और न्याययुक्तव्यवहार के (दूतः) सुशिक्षित दूत के तुल्य (भव) हूजिये ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो प्रजा के किये आक्षेपों को सहता, घोड़े के तुल्य सब कार्य्यों को शीघ्र व्याप्त होता, विद्वानों में विद्वान्, दूत के तुल्य समाचार पहुँचानेवाला हो, उसी को राजा करो ॥१॥
विषय
विद्वान् और राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(वाजिनं अश्वं नमोभिः) जिस प्रकार वेगवान् अश्व को विनम्र करने के लिये कशादि (चाबक) साधनों से प्रेरित किया जाता है और जिस प्रकार उसको ( नमोभिः ) अन्नों से बढ़ाते, पुष्ट करते हैं, उसी प्रकार हे मनुष्यो ! (वः) आप लोगों के बीच ( देवं चित्) सूर्यवत् तेजस्वी, अग्नि के समान प्रतापी, ज्ञानप्रकाशक, ( सहसानम् ) बलवान् ( अश्वम् ) राष्ट्र के भोक्ता, ( वाजिनं ) ऐश्वर्यवान् और विद्यावान् पुरुष का भी ( नमोभिः प्र हिषे ) उत्तम आदर सत्कारों से प्रेरित, प्रार्थित करें और शस्त्रादि से उसे बढ़ावें । हे विद्वन् ! राजन् ! तू ( त्मना ) स्वयं अपने सामर्थ्य से ( मित-द्रु: ) परिमित भय वाला, ( देवेषु ) विद्वान् श्रेष्ठ पुरुषों के बीच ( विविदे) विदित हो, प्रसिद्धि और परिचय प्राप्त कर और तू ( विद्वान् ) ज्ञानवान् होकर ( नः ) हमारे (अध्वरस्य ) यज्ञ, अविनाश्य कर्तव्य का ( दूतः ) अग्निवत् प्रकाशक ( भव ) हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक्ं पंक्तिः । ७ स्वराट् पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मितद्रुः
पदार्थ
[१] मैं (नमोभिः) = नमनों के द्वारा (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (प्रहिषे) = अपने हृदय में [प्रहिणोमि] प्राप्त करता हूँ। उस अग्नि को जो (वः देवम्) = तुम सबके प्रकाशक हैं। (सहसानम्) = शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं। (चित्) = निश्चय से (अश्वं न वाजिनम्) = शीघ्रता से मार्ग का व्यापन करनेवाले घोड़े के समान शक्तिशाली हैं। अर्थात् जो मुझे शीघ्र ही लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले हैं। [२] हे प्रभो ! (अध्वरस्य) = सब यज्ञों के (विद्वान्) = ज्ञाता होते हुए आप (नः) = हमारे लिये (दूतः भव) = दूत होइये, ज्ञान-सन्देश को प्राप्त कराइये। वे (मितद्रुः) = नपी-तुली गतिवाले प्रभु-सर्वत्र जितनी उचित है उतनी ही क्रिया करनेवाले प्रभु (त्मना) = स्वयं किसी और की सहायता को न लेते हुए (देवेषु) = सूर्य आदि देवों में (विविदे) = उस उस शक्ति को प्राप्त कराते हैं। पृथिवी में पुण्यगन्ध को, जलों में रस को, अग्नि में तेज को, वायु में गति को, आकाश में शब्द को तथा सूर्य-चन्द्र आदि में प्रभा को स्थापित करनेवाले प्रभु ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- मैं हृदय में नमन द्वारा प्रभु दर्शन के लिये यत्नशील होता हूँ। प्रभु ही मेरे शत्रुओं का पराभव करते हैं। वे मुझे ज्ञान का सन्देश देनेवाले प्रभु ही सब सूर्य आदि देवों में नपी-तुली गतिवाले हो रहे हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टांताने राजा इत्यादीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो प्रजेसाठी निंदा सहन करतो, घोड्याप्रमाणे सर्व कार्य शीघ्रतेने करतो, विद्वानांमध्ये विद्वान दूताप्रमाणे कार्य करणारा असतो त्यालाच राजा करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Citizens of the world, for you all, just as a rider spurs on the war horse on the course to achieve his goal, so do I, with homage and adorations, invoke, invite and inspire Agni, brilliant, generous and brave leader of the world, dynamic and warlike achiever, and I say: O lord all knowing, well known for your wisdom and observance of the laws among the nobilities, be the messenger and leader of our yajnic social system of peace, non-violence and all round progress for all. Conscientiously be so, and move at a measured pace.
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