ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
अता॑रिष्म॒ तम॑सस्पा॒रम॒स्य प्रति॒ स्तोमं॑ देव॒यन्तो॒ दधा॑नाः । पु॒रु॒दंसा॑ पुरु॒तमा॑ पुरा॒जाम॑र्त्या हवते अ॒श्विना॒ गीः ॥
स्वर सहित पद पाठअता॑रिष्म । तम॑सः । पा॒रम् । अ॒स्य । प्रति॑ । स्तोम॑म् । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । दधा॑नाः । पु॒रु॒ऽदंसा॑ । पु॒रु॒ऽतमा॑ । पु॒रा॒ऽजा । अम॑र्त्या । ह॒व॒ते॒ । अ॒श्विना॑ । गीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अतारिष्म तमसस्पारमस्य प्रति स्तोमं देवयन्तो दधानाः । पुरुदंसा पुरुतमा पुराजामर्त्या हवते अश्विना गीः ॥
स्वर रहित पद पाठअतारिष्म । तमसः । पारम् । अस्य । प्रति । स्तोमम् । देवऽयन्तः । दधानाः । पुरुऽदंसा । पुरुऽतमा । पुराऽजा । अमर्त्या । हवते । अश्विना । गीः ॥ ७.७३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विदुषो याज्ञिको भवितुं प्रार्थयते।
पदार्थः
(अश्विना) हे यज्ञविद्यावेत्तारो विद्वांसः ! भवन्तः अस्मान् (अस्य) एतस्य संसारस्य (तमसः) अज्ञानात् (पारम्) पारं (अतारिष्म) गमयन्तु (स्तोमम् प्रति देवयन्तः) इमं ब्रह्मयज्ञं कामयमाना वयं (दधानाः) उत्तमगुणान् धारयाम, (गीः) अस्माकं वाक् पवित्रा भवतु किञ्च वयं (पुरुदंसा) कर्मकाण्डिनः (पुरुतमा) उत्तमगुणवन्तः (पुराजा) प्राचीनाः (अमर्त्या) मरणादिदुःखरहिताः सन्तः (हवते) यज्ञं करवाम ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब यज्ञविद्या जाननेवाले विद्वानों से याज्ञिक बनने के लिये प्रार्थना कथन करते हैं।
पदार्थ
(अश्विना) हे यज्ञविद्या जाननेवाले विद्वानों ! आप लोग हमको (अस्य) इस संसार के (तमसः पारं) अज्ञानरूप तम से पार (अतारिष्म) तरायें (प्रति स्तोमं देवयन्तः) इस ब्रह्मयज्ञ की कामना करते हुए हम लोग (दधानाः) उत्तम गुणों को धारण करें (गीः) हमारी वाणी पवित्र हो और हम (पुरुदंसा) कर्मकाण्डी (पुरुतमा) उत्तम गुणोंवाले (पुराजा) प्राचीन और (अमर्त्या) मृत्युराहित्यादि सद्गुणों को धारण करते हुए (हवते) यज्ञकर्म में प्रवृत्त रहें ॥१॥
भावार्थ
हे यजमानो ! तुम लोग यज्ञविद्या जाननेवाले विद्वानों से याज्ञिक बनने के लिए जिज्ञासा करो और उनसे यह प्रार्थना करो कि आप हमको याज्ञिक बनायें, जिससे हम इस अविद्यारूप अज्ञान से निवृत्त होकर ज्ञानमार्ग पर चलें। हम उत्तम गुणों के धारण करनेवाले हों और अन्ततः हमको मुक्तिपद प्राप्त हो, क्योंकि यज्ञ ही मुक्ति का साधन है और याज्ञिक पुरुष ही चिरायु होकर अमृत पद को प्राप्त होते हैं, या यों कहो कि जो पुरुष कर्म तथा ज्ञान दोनों साधनों से जिज्ञासा करता है, वही अमृतरूप पद का अधिकारी होता है, इसलिए मुक्ति की इच्छावाले पुरुषों को सदा ही यज्ञ का अनुष्ठान करना श्रेयस्कर है ॥१॥
विषय
उत्तम स्त्री-पुरुषों का वर्णन ।
भावार्थ
हम लोग ( देवयन्तः ) उत्तम विद्वानों और शुभ गुणों को अपनाना चाहते हुए और ( स्तोमं ) स्तुति और स्तुत्य कार्य को ( प्रति दधानाः ) प्रत्येक दिन धारण करते हुए ( अस्य ) इस ( तमसः ) और अज्ञान दुःख के ( पारम् अतारिष्म ) पार हो जायें । हे ( अश्विना ) उत्तम जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( गीः ) उत्तम विद्वान् पुरुष ( पुरुदंसा ) बहुत से उत्तम कर्मों को करने वाले, (पुरु-तमा) बहुतों में उत्तम, ( पुरु-जा ) सब के आगे अग्रणीवत् चलने वाले, ( अमर्त्या ) साधारण मनुष्यों से विशेष आप दोनों की ( हवते ) प्रशंसा करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते । छन्दः—१, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दुःखनिवारण
पदार्थ
पदार्थ- हम लोग (देवयन्तः) विद्वानों और शुभ गुणों को चाहते हुए, (स्तोमं) = स्तुत्य कार्य को (प्रति दधानाः) = प्रत्येक दिन धारण करते हुए (अस्य) = इस (तमसः) = अज्ञान, दुःख के (पारम् अतारिष्म) = पार हों। हे (अश्विना) = जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो! (गीः) = विद्वान् पुरुष (पुरुदंसा) = बहुत कर्मों के कर्ता, (पुरु-तमा) = बहुतों में उत्तम, (पुरु-जा) = सब के आगे चलनेवाले, (अमर्त्या) = साधारण मनुष्यों से विशेष आप दोनों की हवते प्रशंसा करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ मनुष्य लोग विद्वानों के संग से उत्तम गुण एवं कर्मों के द्वारा अज्ञान व दुःख का निवारण करें तथा विद्वानों एवं सज्जनों का आदर किया करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
The voice of the worshipper invokes and celebrates the Ashvins, harbingers of the light and bliss of divinity, most versatile in generous action, most ancient, original and immortal. Offering songs of praise in homage to divinity in meditative search for the life divine, we cross over this darkness and ignorance of our existence.
मराठी (1)
भावार्थ
हे यजमानांनो! तुम्ही यज्ञविद्या जाणणाऱ्या विद्वानांकडून याज्ञिक बनण्यासाठी जिज्ञासू बना व त्यांना अशी प्रार्थना करा, की तुम्ही आम्हाला याज्ञिक बनवा. ज्यामुळे आम्ही या अविद्यारूपी अज्ञानापासून निवृत्त होऊन ज्ञानमार्गावर चालावे. आम्ही उत्तम गुण धारण करावे व शेवटी आम्हाला मुक्तिपद प्राप्त व्हावे. कारण यज्ञच मुक्तीचे साधन आहे व याज्ञिकच चिरायू बनून अमृतपद प्राप्त करतात. वस्तुत: जो पुरुष ज्ञान व कर्म दोन्ही साधनांनी जिज्ञासू बनतो त्याला अमृतरूपी पद प्राप्त होते. त्यासाठी मुक्तीची इच्छा करणाऱ्या पुरुषांनी सदैव यज्ञाचे अनुष्ठान करणे श्रेयस्कर आहे. ॥१॥
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